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DrNikesh Kumar

Tragedy

4.7  

DrNikesh Kumar

Tragedy

लॉकडॉउन में जिजीविषा...

लॉकडॉउन में जिजीविषा...

5 mins
341


नीड़ न दो चाहे टहनी का, आश्रय छिन्न-भिन्न कर डालो ।किंतु, पंख दिए हैं तो; आकुल उड़ान में विघ्न ना डालो।।


रिक्शा वालों को देखकर अचानक श्रेष्ठ के जेहन में ये पंक्तियां कौंध गए जो उसने बचपन की कविता में पढ़े थे।आखिर कौन हैं ये रिक्शे वाले, ठेले वाले? आए कहां से? जाना कहां है? किसे ढोकर ले जा रहे हैं? खुद को या अपनी बेबसी को? सचमुच भूख से बड़ी कोई बीमारी नहीं हो सकती। देखने से तो ऐसा लगता है मानो कई रात से सोए ना हो। क्यों एक होड़ सी लगी है कहीं जाने की? जैसे कुछ छूटता जा रहा हो हमेशा के लिए!

अनगिनत प्रश्नों की गठरी लिए श्रेष्ठ उनके करीब पहुंचता है तो देखता है कि लगभग 5-7 रिक्शे हैं और 2-4 ठेले। पर, ना कोई सवारी और ना कोई सामान ।15-20 की संख्या में मजदूर हैं जिन्हें देखकर ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि एक लंबी यात्रा से आए हैं। यात्रा जीवन की यात्रा। भूख की यात्रा। या बेबसी की यात्रा.....!

कुछ क्षण श्रेष्ठ उन्हें देखता रह जाता है बिना पलक झपकाए। फिर प्रश्नों की गठरी उसे बोझ लगने लगती है, उतार कर खुद को सहज करता है । एक रिक्शे के पास पहुंचता है भैया कहां से आ रहे हो ?कहां को जाओगे?

रिक्शावाला कुछ बोलना चाहता है पर सूखे ओठ कांप कर रह जाते हैं। श्रेष्ठ उसे पानी की बोतल थमाता है तो बिन कुछ कहे वो ढक्कन खोल इतनी जल्दबाजी में पीने लगता है कि कुछ पानी अंदर कुछ उसके कपड़ों पर गिरने लगती है और वह हिचकने लगता है। लगातार बहुत देर तक हिचकता है । यह पानी पीने के बाद की हिचकी है। जरूर बहुत कुछ ऐसा है जो उसके अंदर कैद है, जो बताना तो चाहता है पर, इतनी ताकत उसमें नहीं।

श्रेष्ठ उसे दूसरी बोतल ला कर देता है और तसल्ली देता हुआ कहता है कि भैया आराम से पियो फिर कुछ केले खा लो सारे मजदूरों को पानी पिला कर केले खिलाए जाते हैं।

तब तक वह इन अभागों के फटेहाल अवस्था को देखता है तो पाता है कि चप्पल के फीते रस्सी से बंधे हैं, कटे- फटे पैरों को जैसे महीनों से आराम ना मिला हो ।कोई फटी हुई लूंगी तो कोई ना फटने वाले जींस में है फिर भी जींस को थकान ने फाड़ डाला है बेतरतीब तरीके से। शरीर पर तंग और मैले कमीज कई जगह फटे और बेहाल हैं, चेहरे पर गमछे का मास्क लगा है जिसे ना जाने कबसे उतारा ना गया हो ,कंधे पर अंगोछा और आंखें जैसे कई रातों से नींद नहीं लेने के कारण लाल तो हैं फिर भी उनमें एक चमक है। वाह, आंखों में इतनी चमक! यह तो खुशी की चमक है कुछ पाने वाली! आखिर क्या पाया है इन्होंने इतना श्रम कर? 10 मिनट बाद सभी थोड़े स्थिर होते हैं तो श्रेष्ठ वही प्रश्न दोहराता है, "भैया कहां से आ रहे हो और कहां को जाना है"?

प्रश्न करते ही रिक्शावाला फफक कर रोने लगता है और क्षेत्रीय भाषा में कहता है -"आ गइलिए भैया ! आब कहीं ना जवाय ! कहीं ना जवाय और शायद कहियो ना जवाय। कह कर वह अपनी लड़खड़ाती जबान रोक लेता है कि कहीं पता नहीं दुर्भाग्य के देवता सुन ना लें और उसे अपनी गठरी उठा फिर से परदेस न जाना पड़ जाए।

आगे वह बतलाता है कि "भैया आब त आ गईलिए।१५ कोस रहले य आब। ई त एहना पार हो जैतै, पतो न चलते"। श्रेष्ठ पूछता है कि 40 किलोमीटर तो अब बचा है आ कहां से रहे हो कैसे आ रहे हो ? रिक्शावाला कहता है कि -"गुडगांवा स आ रहलिय य। ई सिपाउल छै, आब गाम जइबे। सुनैलिया य कोनो कोरोणा भैरस फैल ल छै सब दिशा।१२०० किलोमीटर आबई के कोनो ठिकाना नई। न रहै के ठाम, न खाय - पिय के, आ न सुतै के। की पुछै छ भैया, लॉकडाउन होईते मकानमालिक कमरा खाली करा देलक। हम गरीब दिहाड़ी आदमी। हमर कियो नै। एईसन हाल जींगी म नै देखलू। न जाने कब ई कोराना रावण मरतै। न बस,न रेल। त रिक्शे स नाप लैलिए। जब मरबे करबे, त अपन घरे - गाम म ही मरबे। ईहे सोच के एत्ते दूर एतनाक कष्ट सह चैल आइलिये। कभी त लगले, आब घर वाला के न देख पैबे। मर जैबे, घर कोनो क पतो न चलतै।" कहते हुए रिक्शेवाले की आंखें डबडबा गई थी।

श्रेष्ठ ने कंधे पर हाथ रखकर सहानुभूति भरी तसल्ली दी और पूछा कि यह दो सवारी मजदूर कौन हैं आपके रिक्शे पर? क्या आपके अपने हैं? "हां भैया हमरे भाई हैं, कुछ दूर हम चलैलियाई रिक्शा, थक जाई पर कभी भाई हैंडल संभाल लेलक, हम पीछे बैठलू। १२ दिन लगातार रिक्शा हंकलियाई।" पूछने पर बताया कि कभी-कभी तो दो-तीन दिन बाद खाने मिलते थे कहीं सो लिया कहीं चलते रहे इस आस में कि कैसे भी बच्चों को बूढ़े मां बाप को देख तो पाऊं मरू भी तो अपनी मिट्टी में।

श्रेष्ठ उनकी बातों को सुन हतप्रभ रह गया था मिट्टी से ऐसा जुड़ाव! ऐसी जिजीविषा! बेबसी को ऐसा मात, सचमुच एक किसान या मजदूर ही दे सकता है। ये मजदूर दिल्ली से बिहार रिक्शा चला कर आए हैं क्योंकि लॉकडाउन के कारण बस, रेल सब बंद है। छिपते-छिपाते, मार-खाते, गालियां-झिड़की सुनते, भूखे-प्यासे खुद ही पंचर भरते, नींद से बुझे हुए ये मजदूर!


धन्य है इनकी मिट्टी और धन्य है इनकी जिजीविषा।।।



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