लम्हों का इश्क़
लम्हों का इश्क़
इश्क तो लम्हों में होता है और सदियों तक रहता हैं। हाँ इश्क ऐसा ही होता हैं।
बस_यू_ही
हाँ शिवान्गी को उस दिन इश्क़ ही तो हो गया था, जब वो और शिवान्स पहली बार मिले थे और गुजरते हुये दिन के एक एक पल के साथ शिवान्गी का प्यार बढ़ता ही चला गया। और दो अनजान एक दूसरे की ज़िन्दगी बन गये थे।
आज शिवान्गी की तबीयत कुछ ठीक नही और उसे शिवेन्द्र की बहुत याद आ रही थी जिसे ऑफिस के काम से कुछ दिनों के लिए बाहर जाना पड़ गया था। बिस्तर पर लेटी बीमार शिवान्गी को शिवेन्द्र के साथ हुयी अपनी पहली मुलाकात के एक एक पल याद आ रहा था.....
कैसे वो दोनों पहली बार अकेले घर से बाहर निकले थे। जनवरी की ठण्डी में सुबह सुबह दिल्ली पहुंचे थे। शिवेन्द्र ने पहले से ही होटल में एक कमरा बुक करा लिया था। दिन में थोड़ा आराम करके शाम को दोनों थोड़ा घूमने निकले गये थे। कनाट प्लेस की चकाचौंध और दिल्ली की सर्दी में दोनों एक दूसरे का हाथ थामे चले जा रहे थे, घूमते हुये वो देने पालिका बाजार भी गये थे। वहाँ से खरीददारी करते हुये आइसक्रीम खाते हुए वापिस होटल आ गये थे। सुबह जब दोनों एक दूसरे से मिले थे तो एक ऐसे अनजान थे जिनके बीच बाते तो होती थी, लेकिन मुलाकात अभी तक नहीं हो पाया थी। आज बहुत कोशिश के बाद ये मुलाकात सम्भव हो पायी थी।
आज शिवेन्द्र के साथ उसकी पहली मुलाकात की यादें उसे जितना खूबसूरत मखमली एहसास दे रही थी, उतनी ही ज्यादा शिद्दत से उसे आज शिवेन्द्र की कमी महसूस करा रही थी। वो एक बार फिर से वापिस उन पलो को जी लेना चाहती थी। कैसे उन दोनों ने एक साथ वोडका की सिप ली थी,..... चिली पनीर और फ्रेच फ्राइ का टेस्ट.........और देर रात तक बाते करते रहे.... और बीते करते करते ही शिवेन्द्र का बिस्तर पर आधे बैठे आधे लेटे हुये उसे पहली बार छुना...., कितनी मासूम सी थी वो छुअन की वो खुद भी उसकी बाहो में सिमटती चली गई। उसे वह अनजान सा बिल्कुल भी नहीं लगा..... अनजाने शिवेन्द्र की बाहो में अनकहा असीम सुकून था, एक अजीब सी कशिश थी, उसकी बाहो में, एक कभी ना छोड़ने का भरोसा था......उसकी गोद में अध लेटी शिवान्गी को कब नींद आ गयी पता ही नहीं चला..... लगभग एक घण्टे बाद जब उसकी नींद खुली तो देखा शिवेन्द्र उसे वैसे ही गोद में लिये हुये अपने कितने प्यार से देख रहा था.......
शिवाऩ्गी को पहली बार लगा था कि जिस इंसान के गोद में वो इतना सुकून और भरोसे से सो गई, वह कोई अनजाना कैसे हो सकता है..... जिसकी बाहो में सिमटते हुये उसे रंच मात्र भी भय ना हुआ वो अनजाना कैसे हो सकता है, उस अनजाने इंसान के गोद में कितना सुकून, कितना भरोसा था.... जैसे कोई मासूम सो दुनिया की परवाह किये बगैर छुप जाता है माँ की ऑचल में वैसे ही तो मैं भी सो गई थी... कितना ममत्व था उस अनजान के छुअन में.....कितना वात्सल्य बरस रहा था उसके भूरे भूरे आँखों से...... कैसे अनजान हो सकता है ऐसा व्यक्ति.... नहीं ये अनजान नहीं ये मेरी ज़िन्दगी है..... एक सामान्य सी मुलाकात में जो इंसान इतना कुछ दे जाये वो अनजान हो ही नहीं सकता..... जिसे कुछ देर के साथ में ही आपकी फिक्र होने लगे.....जो पूरे रास्ते घूमते हुये भी पल पल आपका ख्याल रखे..... वो तो अनजान हो ही नहीं सकता वो तो ज़िन्दगी है।

