लाल कोट- अध्याय ४ हलचल

लाल कोट- अध्याय ४ हलचल

5 mins
612


समय बड़ी धीरे से गुज़र रहा था। सर्दियों का इंतज़ार कर मेरे दिन कटने लगे और भगवन की दया से इस बार अक्टूबर मैं अच्छी सर्दी पड़ गयी। कलकत्ता की सर्दी बड़ी हसीन होती है। हलकी धूप और कड़कड़ाती ठण्ड जो दिखाई नहीं देती। अगर उसे हलके में लिया तो सीधे गला पकड़ती है, और बेचारे कान और छाती भी मुफ्त में उसके लपेटे में आ जाते हैं। जी, सर्दियों में यहाँ गले और कान को बचाके रखना होता है। वरना वो चुड़ैल जीना हराम कर देती है।

मेरे लिए अब की सर्दिया अलग थी क्योंकि मैं आज़ाद था। इन दो महीनो में न जाने क्या करना चाहता था। लेह जाने का एयर-टिकट मैंने बना लिया था। कोई साथी नहीं था तो अकेले ही घूम आने का सोचा। वो आजकल सोलो ट्रैवेलिंग का फैशन है न। ये सुन तो मेरी माँ की रातों की नींद ही उड़ गयी। वो रोज़ मुझे बहलाती पुचकारती कि मैं वहा अकेले न जाऊँ, कोई मुझे गोली मार देगा या फिर मैं किसी नाले में गिर जाऊँगा या फिर हिमालय ही मेरे ऊपर गिर जायेगा। मैं सोचता हूँ कि मेरी माँ ही क्या दुनिया का आठवां अजूबा है ?

ख़ैर, अब शेर दिन भर तो घर बैठ नहीं सकता, तो एक रोज़ में ट्राम कि सवारी के लिए निकल गया। सोचा कि कलकत्ते को एक टूरिस्ट के नज़रिये से देखूँ। मेरे पास अब समय का खज़ाना था। टॉलीगंज ट्राम डिपो से धर्मतला जाने वाली एक ट्राम पर में फट बैठ गया। ट्राम में अभी भी कुछ नहीं बदला था, हाँ बस डब्बे कम गए थे- वही काठ कि सीट और वही नाली वाली फर्श, ट्रिंग-ट्रिंग करती अपनी ही पटरी पर होले-होले रेंगती, जिसे साइकिल भी पीछे छोड़ जाये। एक ज़माना था जब कलकत्ता शहर में ट्राम साँप सी रेंगती थी, इस गली-उस गली, इस डगर-उस डगर। अभी भी उसकी पटरियों के निशाँ पूरे कलकत्ते में मिलेंगे।

काफी इंतज़ार के बाद ट्रिंग-ट्रिंग करती, मेरी वाली ट्राम अपने घर से सैर-सपाटे को निकली। वाह क्या नज़ारा था, पूरी तीन डिब्बो वाली ट्राम में केवल तीन लोग, एक मैं, एक ड्राइवर और दूसरा कंडक्टर। मुझे यकीन नहीं हो रहा था कि मैं ये कर रहा था। बहुत ही अजीबो-गरीब महसूस हो रहा था। दुनिया जहा रफ़्तार में थी, मैं वहीं धीमी गति में था, कोई जल्दी नहीं। अचानक लगा जैसे यही तो ज़िन्दगी है। मैट्रिक पास करने के बाद, मैं बेवजह ही भागे जा रहा हूँ। ज़िन्दगी का मकसद ही जैसे भागना बन गया।

अपनी सोच में डूबा इस धीमी गति और सर्दी की धुप के मज़े लेने लगा। भीड़ कुछ बढ़ी पर इतनी नहीं। सीटें अभी भी खाली थी। फिर अचानक कुछ चुड़ैल जैसी हँसी ने मेरा ध्यान खींच लिया। बिलकुल सामने वाली सीट पर दो लड़कियाँ न जाने कब आ कर बैठ गई। उनमें से एक चुड़ैल जैसे हँस रही थी और दूसरी का पता नहीं। मेरा ध्यान अब उन की तरफ आकर्षित हुआ। एक ने लाल रंग का कुछ पहना था और दूसरी ने काला। लाल वाली के बाल हलके से भूरे, लम्बे और बड़े ही रेशमी लग रहे थे और काली वाली के काले, घने और मैगी जैसे घुंघराले। दोनों ने ही शायद पार्लर में जाकर अपने बाल ऐसे करवाए होंगे। पैदाइशी बाल शायद ही इतने खूबसूरत हो।

मेरी नज़र बार-बार लाल कपड़े वाली की तरफ जा रही थी। पीछे से उनकी शकल नहीं देख पा रहा था। दिल में ख्याल आया कि कही वो बरसात कि रात वाली तो नहीं। मैंने झट से नीचे झुक उसके जूते देखने की कोशिश कि। उसने काले रंग के ही जूते पहने थे वो भी बेलीज़। "हाँ शायद वो वही है" - दिल ने ज़ोरों से ऐलान किया और धक्-धक् ज़ोरों से धड़कनें लगा। अब मैं बेचैन था। दिल को सँभालूँ या खुद को। बड़े गंदे-गंदे ख्याल मेरे ज़ेहन में आने लगे। मेरा दिल और दिमाग एक हो गया था और मुझे पोपट बनाने लगा।

बेलगाम हों दिल कि सुन मैं उनकी सीट के पिछले वाली सीट पर जा बैठा, इस ख्वाहिश में कि उसका दीदार हो जाये पर ज्यों ही मैं बैठा, वो दोनों उतरने के लिए खड़ी हो गई और पलक झपकते ही ट्राम से उतर भी गई। मैं बेवकूफों सा बैठा ट्राम रुकने का इंतज़ार करने लगा। फिर देखा कि एक और सज्जन भी चलती ट्राम से उतर गए। अरे वाकई, ये कोई लोकल ट्रैन थोड़े ही न है, ट्राम है ट्राम। ये सोच मैंने भी चलती ट्राम से 'जे माँ काली" बोल छलांग लगा दी। यकीन मानों मेरे मुँह से दूसरा शब्द "माँ" निकला। जब फटती है तो माँ ही याद आती है।

मैं उन लड़कियों के पीछे हो लिया। वो एहसास, उफ़, बड़ा मज़ा आ रहा था। मेरी मुस्कराहट बेरोकटोक मेरे चेहरे पे छाई हुई थी।

बेसब्री नहीं थी पर एक उत्सुकता थी कि क्या होगा जब मैं उसे देखूँगा, क्या वो वही लड़की है, अगर हसीन न हुई तो, क्या मुझे इश्क़ हो रहा है, मैं क्यों उस लड़की को ढूंढ रहा हूँ, मैंने तो उसका चेहरा ही नहीं देखा फिर कैसे पहचानूँगा ? इन सवालों ने मेरा ध्यान धुंधला दिया। चलते-चलते मैं खड़ा हो गया और इधर-उधर देखने लगा। वो दो लड़कियाँ कहीं दिखाई नहीं दे रही थी। फिर मैंने सोचा कि क्यों मैं उनके पीछे अपनी जान हथेली पे लिए जा रहा हूँ ? अगर वो बारिश वाली लड़की न हो तो ? पर दिल क्या झूठ बोल सकता है ?

मुझको अब मेरे दिल पर यकीन न रहा आखिर मैं कोई मजनू तो नहीं जो ऐसे छलांगे लगता फिरूँ। ये सोच मैंने अपनी राह बदली और ट्राम के पीछे भागा.....

कहानी जारी है ....


Rate this content
Log in

Similar hindi story from Drama