लाल कोट - अध्याय २: आसमां गिरा

लाल कोट - अध्याय २: आसमां गिरा

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उस शाम घर वापस आना जैसे इंग्लिश चैनल को पार करने जैसा कठिन बन गया था। टूटा दिल अपनी जेब में ले मैं बस का उसी बस-स्टॉप पर घंटो इंतज़ार करता रहा या शायद अपने दिल को दिलासा देता रहा की वो लाल रेन कोट वाली लड़की यहीं-कहीं रहती हो और गलती से घर से निकल आये तो मेरी नज़र पड़े। पर ऐसा कुछ न हुआ बल्कि एक और बारिश में भीग पानी-पानी हो गया। अब ठण्ड भी लगने लगी थी और छीकें आनी भी शुरू हो गयी। पूरा यकीन था कि जल्द ही साइंस कि चपेट में आऊँगा। माँ ने ठीक कहा था कि, "गब्लू बारिश में मत भीगना।" समझ नहीं आ रहा था की दिल की सुनू या शरीर की। फिर एक पल के लिए माँ का ख्याल आया तो मैं पैदल ही निकल पड़ा।

सड़क पानी से भरा था और मेरे घुटने भी। जय माँ तारा बोल कर मैं सीधे-सीधे चलने लगा क्यों की कोई मोड़ का अंदाज़ा ही नहीं हो रहा था। बस किनारे खड़े पेड़ और बिल्डिंग कुछ मदद कर पा रहे थे। मेरे जैसे कुछ लोग पैदल ही निकल पड़े थे। उन्हें देखा तो कुछ सुकून मिला। अब दिमाग लाल कोट छोड़ खुद की जान की परवाह करने लगा। नए-नए इश्क़ का भूत पानी देख कहीं मानो बह गया था। सही में बोलूँ तो अब मेरी फट रही थी क्योंकि पैर आगे बढ़ाना एक बड़े और भरी लकड़ी के संदूक को हटाने जैसा था। कदम मानो इतने पानी में ठहर गए थे।

माँ कि कही वो सारी बाते अब याद आ रहीं थी- "कहीं गड्ढे में मत गिर जाना, बिजली की कटी तार का ध्यान रखना और नाला देखकर चलना। सच में, लग रहा था कि क्या होगा अगर मैं किसी गड्ढे में समा गया या पानी में कर्रेंट खाऊँ तो कैसा लगेगा, क्या मैं हवा में उड़ जाऊँगा ?

तभी मैंने देखा कि लोग एक के पीछे एक कर एक रेखा में चल रहे थे। ये सही था। मैं भी उनकी तरफ हो लिया। कम से कम सामने वाले को देख पता तो चलेगा की कदम सही जगह पहुँची। दिल थोड़ा शांत हुआ पर इतने में सबसे सामने वाला लड़खड़ाया और पानी में गिर गया। बेचारे को देख सब चिल्लाये "अरे संभालके दादा" पर उनकी मदद को झट से पहुँच पाना नामुमकिन था। बेचारा वो दादा पानी में गोते खाता मदद के लिए हाथ मारने लगा।

मैं काफी पीछे था। अचंभा उनकी मदद करने में पूरी ज़ोर लगाता रेखा छोड़ अलग दिशा में चल पड़ा। ज़ेहन में बस एक ही बात थी "उसे बचाना है" और इतने में मैं खुद ही लड़खड़ा गया पर किस्मत से संभल भी गया और वो गन्दा पानी मेरे मुँह में जाने से बच गया। अगले ही पल मैं वापस उस एक रेखा में घुस गया और बाकियों की तरह खुद कि सोच, सीधे चलने लगा। हीरो बनने के भूत को भी जैसे साप सूंग गया। वाकई में, जान बची तो लाखो पाए। उस वक़्त मैंने खुद को एक बार फिर पहचाना। मैं कोई हीरो-वीरो नहीं, बस एक आम बंगाली हूँ। जैसे बाकि बस अपनी सोच रहे थे, मैं भी वही कर रहा था। शर्मिंदा तो था पर ऐसे ज़रूर कम लोग होते होंगे जो अपनी जान पर खेल दूसरों को बचाते हैं। मुझे बड़ा अफ़सोस हुआ कि मैं उन जनता में शामिल नहीं।

नज़रे नीची कर टेढी आँखों से मैंने उस डूबते हुए दादा को देखा। एक मज़दूर जैसे दिखने वाले आदमी ने उसे संभाल लिया था। 'पर घुटने भर पानी में कोई डूबता है भला ?' ये ख्याल तब क्यों मेरे मन में आया ?

खैर मुझे उस मज़दूर भाई को देख बड़ा गर्व हुआ। उन्होंने वो किया जो मैं ना कर पाया और मैं ख़ुशी के मारे चिल्ला उठा "शाबाश दोस्त शाबाश, तुम ही वो शेर हो। मैं मिलता हूँ तुमसे इसके बाद।" ये कहते हुए मेरे आँखों मैं आँसू आ गए और वो एक टक मुझे देखता गया । मेरे वो आँसू ख़ुशी के थे। आखिरकार हम सब के बीच यही पर एक बहादुर इंसान भी था।

उस रात मैं हनुमान चालीसा पढ़ते-पढ़ते किसी तरह छः घंटे में गोरयाहाट से टॉलीगंज पहुँचा। रात के गयारह बज चुके थे। दरवाज़े पर माँ हाथ में गमछा लेकर खड़ी थी। उन्होंने वहीं मेरे कपड़े उतरवाए और सीधे स्नान कर निकलने को कहा। जब मैं बाहर आया तो माँ ने पहले गंगा जल छिड़का की पता नहीं किस-किस के पाप में मैं धुलकर आ रहा था और फिर गरम-गरम खाना परोसा।

उस रात मैंने जाना कि माँ भगवान का दूसरा रूप हैं, कभी-कभी शायद।

कहानी जारी है...


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