कल हमारे साथ भी यही होगा
कल हमारे साथ भी यही होगा
पुणे की जवाहर कोलोनी में एक राजस्थानी परिवार रहता था | परिवार में हिमांशु जोशी, उनकी पत्नी विभा, बेटी सुधा, बेटा समीर और हिमांशु की बूढी माँ रहती थी | सब लोग एक दूसरे को बहुत चाहते थे | परिवार में खुशनुमा माहौल था | एक दिन सुबह, जब हिमांशु अपनी सुबह की सैर से घर लौट रहा था, उसने देखा, लाला रतन मल हलवाई की दुकान पर एक तरफ गरमा गर्म दाल की कचोरी तल रही हैं और दूसरी ओर जलेबी बन रही हैं | नाश्ते के लिये उसने वहां से १० कचोरी और पाँव भर जलेबी ले ली | साथ ही पास के मेडिकल स्टोर से माँ की दवाइयाँ भी ले ली और घर आ गया | घर पर ......
हिमांशु – सुधा ! सुधा बेटा ये कचोरीयां और दादी की दवाइयां ले जाओ | मम्मी को दे दो |
दादी – हिमांशु ! क्या लाया है ? मेरी दवाइयाँ लेकर आया क्या ?
हिमांशु – हाँ माँ, आपकी दवाइयां ले आया हूँ |
विभा – सुधा ! जाकर पापा से पूछकर आ, कितनी कचोरी लेंगे ? और आलू की सब्जी कचोरी फोड़कर उसी में डाल दूं या अलग से कटोरी में लेंगे ?
सुधा – पापा ! आपको कितनी कचोरी दूं और सब्जी कैसे लेंगे ?
हिमांशु – मुझे दो दे देना और सब्जी उसी में डाल देना | और हाँ बेटा, जलेबी और चाय का भी देख लेना |
सुधा – हाँ पापा, मैं जलेबी भी एक प्लेट में डालकर लाती हूँ | चाय मम्मी बना रही है |
दादी – ये कचोरी लाला रतन मल हलवाई की दुकान से है क्या ?
सुधा – हाँ दादी, उसी दुकान से है |
इतने में ही विभा ने एक सेव काटकर दादीजी को दे दिया |
दादी – पता नहीं अब कैसी बनती होंगी ?
हिमांशु – अब भी वैसी ही बनती हैं माँ, जैसी पहले बनती थी |
दादी – पहले तो यूं बड़ी बड़ी बनती थी | मूंगफली के तेल में बनाते थे | खूब सारी दाल भरते थे | साथ में खट्टी मीठी चटनी और आलू की अमचूर वाली सब्जी होती थी | एक कचोरी सवा रूपये की आती थी | पता नहीं अब कैसी बनाते हैं ?
सुधा ! मुझे भी एक जलेबी और कचोरी का एक टुकड़ा देना, मैं भी थोडा सा चख लूं |
हिमांशु – माँ, आपको कुछ नहीं मिलेगा | पहले उलटा सुलटा खाती हो और फिर अपनी तबियत खराब करती हो | कभी मिठाई, कभी कुल्फी और कभी भुजिया छुपाकर खाती हो, फिर चाहे लूज मोशन की नदियाँ बहती रहें | हमें और कोई काम नहीं है क्या ?
दादी – ये बात सौ बार सुना चुका है मुझे | अब और कितनी बार सुनायेगा ? और एक टुकड़े में ऐसा क्या हो जायेगा ?
हिमांशु – क्या हो जाएगा ? माँ, आप अच्छी तरह जानती हो, क्या हो सकता है ? अब आप बच्ची नहीं हो | माँ, आप समझना क्यों नहीं चाहती हो ?
दादी – घर में तू अकेला ही समझदार है | और किसी को तो जैसे कुछ समझ ही नहीं है | रख अपनी कचोरी और जलेबी अपने पास | अब तू कहेगा तब भी नहीं खाऊंगी |
(बडबडाते हुए) ये लड़के भी ना ! हमेशा बोलते रहते हैं, ये करो, ये मत करो | विभा ये सब बड़े ध्यान से देख रही थी | वह बच्चों में अच्छे संस्कारों के प्रति हमेशा से गंभीर थी | वो ये अच्छे से समझती थी कि बच्चे जो देखते सुनते हैं, बड़े होकर उसी का अनुसरण करते हैं | समय समय पर हिमांशु को भी बताती रहती थी | उसने इशारे से हिमांशु को रसोई में बुलाया और समझाने के अंदाज में बोली | माँ के साथ, आप ये जो सब कर रहे हैं, ठीक नहीं है | आपकी और माँ की बातें दोनों बच्चे सुन रहे हैं और देख भी रहे हैं | क्या आपने कभी सोचा है कि इस सबका दोनों बच्चों पर क्या असर पड़ेगा ? जब हम बूढ़े हो जायेंगे तो हमारे साथ हमारे बच्चे भी ऐसा ही बर्ताव करेंगे | और अगर आपको माँ से कुछ कहना भी है तो उनके कमरे में जाकर अकेले में कहो | यूं सबके सामने नहीं | इतना कहकर विभा अपने काम में लग गई | विभा की बातों का हिमांशु पर सकारात्मक असर हुआ |
हिमांशु को अपनी गलती समझ आयी
आगे से नहीं दोहराने की कसम उठाई
एक प्लेट में जलेबी और कचोरी सजाई
अपने हाथ से माँ को कचोरी खिलायी
बेटे के हाथ से जलेबी और कचोरी खाकर माँ की आँखों में ख़ुशी के आंसू आ गए |