ख़त
ख़त


तुम,
आज 'प्यारे तुम' नहीं लिखूँगी क्योंकि नाराज़ हूँ तुमसे,अब थोड़ा या ज़्यादा ये तुम ख़त पढ़ कर इतमीनान से सोचना। तुमने मेरे पिछले एक भी ख़त का जवाब नहीं लिखा है देखो मुझे न जाने क्यों आभास होने लगा है कि तुम ज़रूर ही कोई बहाना बना रहे हो और धीमी धीमी गति से किसी और के दीवाने हो रहे हो। रोज़-रोज़ की इस तड़प से तो कई लाख गुना अच्छा है कि तुम साफ़ सफेद शब्दों में स्पष्ट ही बोल दो की तुम्हारा दिल अब किसी और का हो चला है कम से कम यहाँ वैरागियों की तरह तो जीवन व्यतीत नहीं करना पड़ेगा न। जितना पीड़ादायक माहौल अब है शायद कुछ पीड़ा कम हो जाए शायद इस कंकाल बन चुके देह में थोड़ी तो जान आ जाए या शायद सब पीड़ा भस्म हो जाए।पिछले ख़त में मैंने तुम्हें बताया था न कि तुम्हारी याद में लिखना शुरू किया है, उसी के चलते काफ़ी तारीफ़े बटोर लेती हूं ख़ैर तुम तो कुछ पढ़ते ही नहीं हो और क्यों ही पढ़ोगे?
चलो तुम्हें यहाँ के हालातों का थोड़ा विवरण दे दूँ, क्या लगता है, पक्षी चहचहाते होंगे? या पवन लहराती होगी? तो तुम्हारी ग़लतफहमी दूर किए देती हूं यह
ाँ घोर सन्नाटा है बिल्कुल मेरे दिल की तरह सब कुछ उजड़ा-उजड़ा सा, सब कुछ बिखरा- बिखरा सा जैसे किसी भयानक तूफ़ान के आने से पहले शांति होती है ठीक वैसा । कड़कती धूप में रोज़ पसीने से लतपत एकटक राह को देखते हुए तुम्हारे ख़त का इंतज़ार करती रहती हूं। जितनी बाहर आग उगल रही है,तुम्हारी यादों की ज्वालामुखी भीतर ही भीतर उतनी ही आग उबाल रही है बस डर अब इस बात है कि कहीं ये विस्फ़ोट होकर घातक न साबित हो जाए या उस से भी भयानक कहीं ये भीतर ही न शांत हो जाए। मैंने आजकल ख़्वाब बुन ना भी छोड़ दिया है। मैं बस चलती चली जा रहीं हूँ, पता नहीं कहाँ। अजीब सी कश्मकश है मेरे अंदर कुछ समझ नहीं आ रहा, दूर-दूर तक केवल इंतज़ार ही दिखता है वही छोड़ कर गए हो तुम मेरे लिए, अब इसे मत मुझसे छीनना क्योंकि इंतज़ार तो सिर्फ़ मेरा ही है। हो सके तो जवाब लिखना और अपना ख़्याल रखना।
"शायद ये इश्क़ मेरा कहीं खो रहा है
तू भी तो आज कल किसी और का हो रहा है
गुरुरों की इस जीत में,
देख लो कहीं बिखर न जाए तुम और मैं प्रीत में"
निकिता