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Tribhuvan Gautam

Inspirational

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Tribhuvan Gautam

Inspirational

खामोश लफ्ज़

खामोश लफ्ज़

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ज़िन्दगी की उलझने इंसान को खामोश रहने पर मजबूर कर देती है। आज का दौर कैसा है और क्या चल रहा है शायद इसको समझने मात्र मे ही आधी उम्र निकल जाती है।

हमने बचपन में बहुत से सपने देखे होते है की बड़े होकर ये बनना है, तब हमें दुनियादारी की कोई परख नहीं होती बस अच्छी बातें सिखाई जाती है की झूठ मत बोलो हमेशा सच्चाई की राह पर चलना चाहिए, गरीबों असहायों की मदद करनी चाहिए वगैरह वगैरह।

बचपन में बच्चा बड़े चंचल स्वभाव का होता है जो देखता है वो करना चाहता है वो बनना चाहता है। किसी ने कह दिया कि बड़े होकर क्या बनोगे तो हम डॉक्टर, इंजीनियर, यही सब बताया करते थे। किसी ने ये नहीं कहा होगा की इंसान बनना है।


लेकिन जब हकीकत से सामना होता है तो दिल दुखता जरूर है की जो हमें बचपन से सिखाया गया वो जिंदगी के पन्ने में था ही नहीं। वो डॉक्टर, इंजीनियर के सपने धूमिल से लगते है। तब लफ्ज ही खामोश नहीं होते है ज़िन्दगी से लड़ने की तमन्ना भी कम होती जाती है।

हमें बचपन से जवानी तक एक ही चीज़ सिखाई गई... प्राइमरी से जूनियर, जूनियर से हाईस्कूल, हाईस्कूल से इंटर, इंटर से ग्रेजुएशन, ग्रेजुएशन से पोस्ट ग्रेजुएशन। साला सारा जीवन ये ही चलता रहा। समझ में नहीं आता की ज़िन्दगी में ये डिग्रियां महत्वपूर्ण है या पैसे। क्योंकि पैसे कमाना तो कभी सिखा ही नहीं था। पैसे की कीमत तब जाना जब जिम्मेदारियां सर पर आयीं।

जब तक नासमझ थे, पापा से हर चीज़ की ज़िद करते थे की ये हमें चाहिए पापा लाकर देते थे और हम खुश हो जाया करते थे, नहीं ला पाते थे तो गुस्सा हो जाते थे, दूसरे बच्चे को देखते थे तो लगता था उनके पापा अच्छे है उनके पास सब कुछ है।

लेकिन जब बड़े होते गए और जब जाना की पापा पैसे कैसे लाते रहे होंगे जुबान खामोश हो जाती है।

तब समझ आता है किताबों मे जो पढ़ा सब गलत था किताबें वो नहीं सिखा पायी जो जिंदगी ने सिखा दी।

ग्रेजुएशन के बाद कई सालों तक नौकरी की तलाश में मेहनत की लेकिन नौकरी नहीं मिली काफी ठोकरें खाने के बाद भी इस आस में लगे है की आज नहीं तो कल मिलेगी ये जानते हुए की देश की जनसंख्या दिन प्रतिदिन बढ़ रही है और सरकार के पास इतनी सीट नहीं बची की सबको नौकरी दे पाये। हर साल करीब 5 लाख सीट के लिए 5 करोड़ फार्म भरना ये दर्शाता है की देश में इतने बेरोजगार है।

लेकिन फिर भी हम इसी नौकरी के पीछे पड़े है की कभी तो मिलेगी क्योंकि इसके अलावा हमने कभी कुछ सीखा ही नहीं या हमें कुछ सिखाया ही नहीं गया।


उम्र को देखते हुए घर वालों ने शादी भी पक्की कर दी है। कुछ महीने के बाद शादी होनी है। एक समस्या खत्म होने का नाम नहीं ले रही जो एक और आने वाली है। अब शादी के बाद जिम्मेदारियां और बढ़ेगी।

घर वालों ने ब्लैकमेल या जैसे भी मना सकते थे वो किया जोर जबरदस्ती से प्यार से सबकुछ। ये कहकर की हम देखेंगे सबकुछ।

भला ऐसा कहाँ होता है...इतना तो जानने लगे है की शादी के बाद कोई किसी का नहीं होता एक झटके में साइड कर देंगे और उसके बाद कोई पूछने वाला नहीं होगा। फिर हमें ना चाहते हुए घर का खर्च उठाने के लिए 100-200 ₹ की नौकरी भी करनी पड़ेगी जो हमने शायद कभी सीखा ही नहीं था। जब ऐसा करना पड़े और जब 4 पैसे मुश्किल से हाथ में आते है तो जिंदगी की सच्चाई देखकर रूह कांपने जैसी स्थिति आए तो गलत नहीं होगा।


ऐसे धर्म संकट में मैं भी उलझ रहा हूँ। क्या सही क्या गलत, क्या करूँ क्या ना करूँ, कुछ समझ नहीं आ रहा।

1 साल के बाद शायद शादी हो जाएगी उसकी टेन्शन मुझे खाए जा रही है। टेन्शन इतनी ज्यादा है की कुछ भी करने का मन भी नहीं करता।

कभी कभी मन करता है की सबकुछ छोड़-छाड़ कर कहीं भाग जाऊँ। जिंदगी की तलाश में खुद को भटकता हुआ ही पाता हूँ खुद को।

शायद जिस मंजिल की तलाश में हूँ वो मंजिल सच मे है भी या नहीं।

या फिर ऐसे ही भटक रहा हूँ...रेगिस्तान में मरीचिका से भ्रमित होकर पानी की तलाश में भटकता एक प्यासा आदमी जो पानी ना मिलने पर अंत में प्यास की वजह से दम तोड़ देता है.....



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