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chandraprabha kumar

Inspirational

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chandraprabha kumar

Inspirational

कच्ची धरती

कच्ची धरती

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   कार गेट पर जाकर रुकी तो विनयमोहन बाबू जैसे सजग से हो गये। कल्पना की रेशमी डोर पकड़े उनका मानस अधर में झूल रहा था। उनकी बेटी अल्पना का संबंध यहॉं अनन्त से तय हो जाए तो उनका अहोभाग्य होगा। वे कार से उतरे तो बंगले की भव्यता पर निगाह जम गई। उसकी कलात्मकता और सुघड़ सोन्दर्य देखने वाले का मन बरबस आकर्षित कर लेता था। बंगले के स्वामी अनन्त को वे अच्छी तरह जानते थे और उसकी स्वीकृति लेने ही यहाँ आए थे। 

   सहज मुस्कान लिए अनन्त ने आगे बढ़कर विनयमोहन बाबू का स्वागत किया। पौरुषदीप्त स्निग्ध मुखमंडल अनंत को देखते ही वे खिल गये। “ अनुरूप ही यह वर है उनकी लाड़ली के लिये”- मन ही मन उन्होंने सोचा। 

  अनन्त उन्हें अपना बंगला दिखाने ले गया। अभी नया ही बनवाया था उसने यह ।अपने आप ही सजाया संवारा था। सामने के लॉन में हरी कोमल दूब का ग़लीचा सा बिछा हुआ था।

    अनन्त की ओर से विनय मोहन जी के प्रस्ताव पर कोई आपत्ति नहीं हुई ,इससे सफल हो प्रसन्न वदन वे लौट गए।

   उनके जाते ही अनन्त को लगा कि वे उसके मानस का कोई अनजाना राग छेड़ गए हैं ।गत बजती रही … कभी द्रुत लय कभी विलम्बित। उसी में डूबा-डूबा अनन्त अपने में ही खो गया। 

   अधिक दिन नहीं बीते उस बात को। आज का प्रसिद्ध कपड़े का व्यापारी अनंत तब कोमल वय तरुण था। सपनों की वह दुनिया- वह नित नये सपने संवारता था, उनमें रंग भरने का प्रयास करता। इंटर का परीक्षाफल आया था और उसमें प्रथम श्रेणी लेकर उत्तीर्ण हुआ था अनंत। 

  मित्र ने कहा था-“ यार ! इस बार भी बाज़ी मार ले गए। अव्वल आये हो। हम तुम्हारा मुक़ाबला कहाँ कर सकते हैं। अब बतलाओ आगे क्या करने का इरादा है ?”

 शर्माता सा अनंत बोला था-“ पिताजी की हार्दिक इच्छा है इंजीनियरिंग में भेजने की। मैं भी यही सोच रहा हूँ। “

   आँखों में पुलक ,गोरे गालों में गुलाबी छटा, और होंठों पर मुस्कुराहट-यही था सबका प्यारा अन्तू। भविष्य की उम्मीदों से भरा सफलता को अपनी चेरी बनाने का दृढ़ संकल्प लिए अदम्य साहस से खिले फूल सा बढ़ता जा रहा था अनंत। पग- पग पर सौरभ लुटाता ,मुस्कान बिखेरता। किशोर मन दुनिया की विषमताओं से अछूता था अभी। 

   अपने लाड़ले की सफलता का समाचार सुनकर पिता फूले न समाये। कॉलेज में एडमिशन करा दिया गया और अनंत ने अपनी पढ़ाई को संभाला। वह कल्पना करता कि कब वह शुभ दिन आएगा जब वह इंजीनियर बनेगा ।अपनी कोठी होगी ,कार होगी ,और होंगे सुख के सब साधन। 

   यों सब कुछ ठीक चल रहा था , पर अनंत के पिता की बीमारी बढ़ती जा रही थी। वे स्नेहमय थे। सबको उन्होंने अपने स्नेह और परिश्रम से सींचा था। पर अब काल के आघात से वह स्वस्थ शरीर क्षीण होता जा रहा था। 

    अन्तू पिता की सेवा में प्राणपण से जुटा। अध्ययन भी करना था ।पर पढ़ाई एक ओर और पिता की सेवा दूसरी ओर। पढ़ाई तो फिर भी हो जाती।पिता न रहे तो…….। इस तो से आगे अन्तू सोच न पाता था। 

    अच्छा बड़ा परिवार था ।काफ़ी भाई बहिन थे अन्तू के। बड़े भाई अपनी अपनी नौकरी पर थे। छोटी- छोटी बहिनें थीं बचपन से भरी हुई ,उत्तरदायित्व विहीन। यदि अन्तू भी पिता की सेवा न करके पढ़ाई में लगा रहता , तो फिर कौन उनकी देखभाल करता ? अन्तू के ही नन्हें कन्धों पर पिता की अस्वस्थता में गृह का भार आ पड़ा था। कुछ अपनी ज़मीन- जायदाद थी। पहिले पिता ही सब देखते थे। पर अब यह भी अनन्त को करना पड़ता था। नन्हीं नन्हीं बहिनों की फ़रमाइशें भी वही पूर्ण करता। मॉं का सहारा भी वही था। 

  जिस जगह अनन्त की निगाह न जाती थी ,वही काम पड़ा झींकता रहता था। पढ़ाई- लिखाई सब रखी रह गयी। फँस गया अनन्त। कीचड़ में फँसे हाथी की तरह छटपटाता ,पर विवश था। मन को किसी तरह समझाता कि पिता ठीक हो जायेंगे तो सब कुछ संभल जायेगा। पर पिता ने जो एक बार शय्या पकड़ी , फिर उठने का नाम नहीं लिया। सेवा में कोई कमी नहीं थी। अच्छे से अच्छे डॉक्टर का इलाज चला , पर विधाता का विधान -सबको बिलखता छोड़ पिता ने सदा के लिए आँखें मूँद लीं। फूट फूटकर रोया अनन्त, कैसे होगा सब कुछ ? किसी तरह शान्त होकर मन को धीरज दिया कि -“मॉं हैं, भाई हैं, सब तो हैं। फिर वह इतना अधीर क्यों होता है। “

  समय घाव को भर तो देता है, पर जो क्षति हो जाती है उसको पूर्ण नहीं कर पाता। पिता की बीमारी में लगा अनन्त पढ़ाई नहीं कर पाया। बी.एस-सी. का परीक्षाफल आने को था। अनन्त शंकित मन घूमता था। प्रार्थना करता -“ परमेश्वर ! पास हो जाय वह।” 

   साथी कहते कि-“ क्यों घबराते हो ? फ़र्स्ट से तो कम तुम बात ही नहीं करते। यदि इस बार फ़र्स्ट नहीं आते हो तो सेकेण्ड तो कहीं गई ही नहीं। “ 

    पर उसका समाधान न हो पाता था। प्रोफ़ेसर , प्रिन्सिपल सबकी निगाह उस पर थी। कॉलेज की शान है वह। सबको आशा थी कि इस बार भी वह अवश्य कोई सा स्थान पायेगा। और वह अनन्त सबसे मुँह छिपाता फिरता था। 

  धड़कते दिल से परीक्षाफल देखा। सप्लीमेंट्री आया था। मौनभाव से सह गया। इन परिस्थितियों में और नतीजा भी क्या निकलता ? यही क्या ईश्वर की कम कम कृपा थी कि वह फ़ेल नहीं हो गया ।सप्लीमेंट्री का एग्ज़ाम दिया। बी.एस-सी.किसी तरह पास कर लिया। इंजीनियरिंग में बैठने की उमंगें अब भी लहरें मारती थी। निराशा का कोई कारण भी नहीं था। यही विचार कर उसने कॉम्पिटिशन की तैयारी शुरू कर दी। 

  पर दो साल तक किताबों की ओर समुचित ध्यान नहीं दे पाया था इसलिए पढ़ाई की ओर मन लगता ही नहीं था। सब विषय नये नये से बिना पढ़े से लगते। बार बार मन पढ़ाई की ओर खींचने की कोशिश करता ,पर ध्यान एकाग्र न हो पाता था। पिता की मृत्यु से जो स्थान रिक्त हुआ था, उसकी पूर्ति भी उसे ही करनी पड़ी। बड़े भाई थे ,पर वे उत्तरदायित्व उठाने को तैयार न थे। अपनी-अपनी पत्नियों और बच्चों को लेकर वे बाहर नौकरी पर थे। वे क्यों बेकार इस झमेले में पड़ते। घर पर रहना कोई पसंद नहीं करता था। एक अनन्त ही रह गया। छोटा भाई अनन्त, बीस वर्ष भी अभी पार नहीं किये, पर सबकी निगाहें उसी की तरफ़ थीं। बहिनों का प्यारा अन्तू भैया, भाईयों का दाहिना हाथ। सबकी अपनी- अपनी धुन थी, कौन अन्तू को देखता। वही सबको देखने - भालनेवाला बन गया। किसी का भी सहारा नहीं मिल पाया उसको। एक मॉं थी , जो अपनी शक्ति भर उसकी देखभाल करती थी। 

  भाईलोग सब कुछ उसी पर छोड़कर अपने अपने घर- बार में रम गये। नन्हें हाथों पर भार पड़ा तो बुजुर्गियत आ गई। किशोरावस्था को छोड़ यौवन की दहलीज़ पर पॉंव रखा ही था कि प्रौढ़ता आ गई। सब कुछ सह गया अन्तू। किसी को तो हलाहल पान करना ही था, और यह हलाहल अन्तू के ही कंठ में गया। 

   कितनी ही बार प्रयत्न करने पर भी वह इंजीनियरी के कॉम्पिटिशन में आने में असफल रहा। आगे पढ़ाई करने को भी उसका मन नहीं करा। जो वह बनना चाहता था ,नहीं बन पाया तो अब आगे पढ़कर क्या करता। फिर भी किसी तरह उसने एम.ए. पास कर लिया। 

  यह सब कुछ हुआ , पर अपने को अनन्त कैसे समझाता ?एकान्त क्षणों में मन की जलन बाहर फूट पड़ती। उसका किशोर दिल अभी भी किसी कोने में पड़ा सिसकता था। पिता अपनी आशा अपने साथ ही ले गए। छोटे पुत्र को मँझधार में छोड़ गए। साथ ही भारी ज़िम्मेदारी भी दे गए। अब वह तट पाने के लिए हाथ चलाए तो उत्तरदायित्व से विमुख होता है। 

  पर अनंत इस तरह कैसे पीठ दिखा सकता था। जो कुछ सामने आया वह ढाल की तरह सह गया। अनन्त बदल गया था। हँसमुख चेहरे पर गंभीरता छा गई थी। जिसकी बातें रोतों को भी हँसाती थीं, वाणी उससे रूठ गई थी। 

   पहले का झिझका- झिझका अनन्त अब न रहा था।पहले का उग्र स्वभाव शांत हो गया। याद है अनन्त को वह दिन जब थाली सफ़ाई से परोसी न होने पर वह भोजन छोड़ कर उठ जाता था। किसी को अपने तौलिए से हाथ नहीं पोंछने देता था। पर अब इन निरर्थक की बातों में क्या रखा था। लड़कपन की वे बातें भूली- बिसरी हो गईं। नया व्यक्तित्व उभरा , जो परिस्थितियों के भार से झुक जाता था ,पर टूटने का नाम न लेता था।

   निराश होना अनंत ने न जाना था। भगवान ने बेसहारा किसी को नहीं बनाया। दो हाथ ,दो पैर और दिमाग़ सबको दिए हैं। जो हाथ पैरों से काम करे, दिमाग़ इस्तेमाल में लाये ,तो सब जगह अपने लिये पैर रोपने को भूमि पा सकता है। धरती कच्ची है। बीज रोपा जाय तो अंकुरित भी हो सकता है। श्रम की खाद डाली जाय ,तो बीज अंकुरित क्यों न होगा। श्रम प्रतिष्ठा न होने से ही रोपे बीज मुरझा जाते हैं ।धरती तो सबके लिए कच्ची है।

  अनन्त ने कपड़े की दुकान खोल ली। नौकरी की आशा में कब तक इधर- उधर मारे - मारे फिरता। आगे की कहानी उसके कठोर संघर्ष की कहानी है। छोटी सी दुकान को सजा- संवारकर रखता। बिक्री न हो पाती तो गट्ठर सिर पर उठाये गली-गली फिरता ।मधुर वाणी और व्यवहार कुशलता से उसका व्यापार चमक गया। वह दुकान बढ़ाता चला गया । दुकान की कितनी ही शाखाएं खोल लीं। अकेला सब काम कैसे संभालता,सेल्समैन रख लिए। और एक दिन कपड़े के व्यापारियों में वह सर्वप्रमुख हो गया। आज वह होलसेल एजेण्ट है “रविकिरण कपड़ा मिल” का। 

  नगर के दूसरे व्यापारी अपनी कन्या का रिश्ता उससे करने को उत्सुक रहते।और आज सेठ विनयमोहन बाबू भी तो इसी सम्बन्ध में आये थे। अनन्त ने ज़िन्दगी से हार नहीं मानी थी। सपने टूटने पर वह रोया अवश्य था, पर धीरज हाथ से नहीं खोया था। 

   अब उसकी यह कोठी किसी की पायल की रुनुक- झुनुक से झंकृत होने वाली थी। अपनी विकरालता दिखलाकर ज़िन्दगी ने प्रमदा- वन का द्वार उसके लिये खोल ही दिया। 



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