Sneh Goswami

Drama

3.1  

Sneh Goswami

Drama

जमीन

जमीन

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बराड़ों की रिसेप्शन पार्टी थी, पूरी गहमागहमी, चारों और गोटे, किनारियाँ, फुलकारियाँ, सलमे और सितारे लिश्कारे मार रहे थे। सैंट की खुशबू हवा में उड़ रही थी और उसके साथ साथ अलग अलग स्टालों से उठती खाने की खुशबू अलग ही रंग बिखेर रही थी। कुछ लोग फ्लोर पर डी जे की धुन पर उलटे सीधे हाथ पैर मार रहे थे। हर तरफ कोट पैंट और टाई में सजे लोग समूह में खड़े ठहाके लगा रहे थे। सब बातों में मस्त थे, कई जोड़े स्टाल के पास खड़े डोसे टिक्की, चाट और स्नैक्स का मजा लेने में मस्त थे। मैं अभी सोच ही रही थी कि पहले किस तरफ जाया जाय। इतने में मिसेज मान एक फैशनेबल महिला को लगभग घसीटते हुए मेरी ओर ले आई।

मिसेज गुप्ता ! इन्हें आप जानती हैं ? यह हैं मिसेज सिद्धू । इस शहर में इनका वस्त्रम तो आपने देखा ही होगा।”

सामने वाली की आँखों में परिचय के डोरे दिखाई दिए और वह गले लग गई। मेरे मन में अभी संशय चल रहा था क्योंकि मन इस चेहरे की जिस महिला से परिचय जोड़ रहा था, उस अमरी से इस महिला की शक्ल थोड़ी बहुत बेशक मिलती हो, आवाज बेशक पूरी मिलती हो, पर्सनेलिटी कहीं से भी मेल नहीं खा रही थी।

जिस अमरी को मैं जानती थी, वह तो बेहद काली औरत थी, काले सियाह बालों में ढेर सारा तेल चुपड कर सीधी मांग की चोटी बनाई होती थी।  अजीबो गरीब ढंग से सलवार कमीज पहनी होती। सलवार का एक पहुंचा अक्सर घूमा रहती। चुन्नी कस कर सर पर लपेटने के बावजूद जमीन पर घिसटती दिखाई देती। गहरे लाल रंग की लिपस्टिक और बड़ी सी बिंदी के साथ वह बड़ी अजीब सी दिखाई देती थी और इस समय जिस औरत से मेरा परिचय कराया जा रहा था, वह हलके गुलाबी रंग के सिल्क के सूट और महंगी फुलकारी में सजी खड़ी थी। ऊँची एड़ी के जड़ाऊ सैंडल पाँवों में सज रहे थे और महंगा पर्स हाथ में पकड़ा था। करीने से कटे बाल, गले में डायमंड का नेकलेस, हाथों में बड़ी सी टेम्पल रिंग, सोने का चौड़ा कंगन, पहली नज़र में ही करोड़ों की मालकिन दिखाई दे रही थी।  मेरी आँखों में संशय के बादल देख वह खिलखिला कर हँस दी- "ओये तूने पहचाना नहीं मैं अमरी, तुम्हारी बचपन की सहेली। क्या हुआ जो दस साल बाद मिल रहे हैं, तू तो पहचान ही नहीं रही।" 

इतने में किसी ने उसे पुकारा तो "मैं अभी आती हूँ।" कह के वह आवाज की दिशा में बढ़ गई।

मैं सच में बुरी तरह से हैरान हो गयी थी। थी तो वह अमृत ही, इनका और हमारा खेत साथ साथ थे। पढ़ते भी हम एक ही स्कूल में थे, अमृत मुझसे एक कक्षा आगे थी पर स्कूल हम एक साथ ही आते जाते थे। वह बड़े बुजुर्गों की तरह मेरा ख्याल रखती। हमारे दोनों के परिवार मध्यम दर्जे के किसान परिवार थे। छोटी छोटी जोत थी। एक दो गाय भैसें भी दरवाजे पर बंधी थी।  गुजारा ठीक-ठाक हो जाता था पर शहर के फैशन की हवा नहीं लगी थी। अभी मैं नौवीं और अमरी दसवीं में हुए ही थे कि घर वालों ने अमरी का रिश्ता पक्का कर दिया था और इससे पहले कि वह दसवीं कर पाती, उसकी शादी हो गई। शादी जिस घर हुई थी, वह बठिंडा के आँचल में बसा तीस घरों का छोटा सा गाँव था हमारे खेत वाले घर से तेरह किलोमीटर दूर। बलकार अपने माँ बाप का इकलौता बेटा था, उसके बाप की सात किल्ले जमीन थी। घर में बापू, बेबे और बलकार- कुल जमा तीन लोग।

शादी के बाद अमरी पहली बार ससुराल से घर आई तो मैं उससे मिलने गई थी। उसने रेशमी लाल रंग का सूत पहना था जिसमें उसका काला रंग और भी काला दिखाई दे रहा था। लाल रंग का परांदा उसके दुपट्टे में से झांक रहा था, उसकी भाभियाँ एक कोने में रोटियां बनाती आपस में बातें कर रही थी- सुन अकेला एक ही लड़का और बहू को सिर्फ एक चेन और बालियाँ, हाथों में चूड़ियाँ भी नहीं डाली, न कोई अंगूठी।"

दूसरी ने टहोका दिया- "चल चुप कर .इसकी सास सयानी है, सब कुछ अपने कब्जे में रखना चाहती है, इस लिए नहीं दिया। मरेगी तो सब कुछ अपनी अमरी का ही होना हुआ न।'

अमरी तीन घंटे बाद ही वापिस लौट गई थी, अगली बार आई तो मैंने ये भाभियों वाली बात उसे बताई। 

उसके चेहरे पर उदासी की हलकी सी लकीर झलक गई - ” सुन! देना कौन नहीं चाहता पर होना भी तो चाहिए।”

पर उनके पास तो सात किल्ले खेत हैं, हमसे दुगने "- मैंने विरोध किया था।

हाँ, हमारे खेत चार किल्ले हैं पर उनमें नहर का पानी लगता है इसलिए फसल भरपूर होती है। उनके खेत में कहीं से भी पानी नहीं लगता, ऊपर से थर्मल की राख भी फसलों पर गिरती रहती है, सिवाय मूंगफली के कुछ नहीं होता। वह भी निकालते समय कड़ी जमीन खोदते खोदते हाथों में गड्ढे हो जाते हैं।“

अगले साल मैं पढ़ने के लिए बठिंडा के पी जी में रहने लगी थी फिर भी जब तब उससे मुलाकात हो जाती । उसने आमदनी बढ़ाने के लिए एक गाय और दो बकरियां पाल ली थी, जैसे तैसे गुजारा होने लगा था।

इसके बाद पिछले दस साल से उससे कोई सम्पर्क हो ही नहीं पाया। हम गाँव छोड़ कर शहर में रहने लगे थे, जमीन ठेके पर दे दी थी इसलिए गाँव आना जाना न के बराबर ही रह गया था।

 मैं इन पुरानी यादों में ही गुम थी कि अमरी लौट आई। हंसते हुए बोली- तुम अभी तक यहीं कड़ी हो मेरे बारे में ही सोच रही थी न। यह एक लम्बी कहानी है, सुनना चाहती है तो कल संडे है, घर आ जा। उसने पर्स खोला और एक खूबसूरत सा विजिटिंग कार्ड मेरी ओर बढ़ा दिया। कार्ड पर बड़े बड़े अक्षरों में छपा था- वस्त्रम नीचे कलात्मक ढंग से लिखा था मिसेज अमृत कौर सिद्धू उसके नीचे फोन नम्बर और घर का पता था। मैंने कार्ड लेकर पर्स में रख लिया।

अगले दिन शाम तक का इन्तजार करना भारी लग रहा था इसलिए सुबह का नाश्ता निपटा कर उसे फोन किया तो वह भी जैसे मेरे फोन का ही इन्तजार ही कर रही थी। सोच क्या रही है चली आ या मैं भेजूं ड्राइवर।

"नहीं मैं आ रही हूँ।"

पर मेरे तैयार होते होते उसने अपनी गाडी और ड्राइवर दोनों भेज दिए थे। बड़ी सी कोठी के सामने गाड़ी रुकी। वह गेट पर ही इन्तजार करती मिली। बड़ी गर्मजोशी से स्वागत किया और हाल में से होते हुए सीधे अपने कमरे तक ले गई।

नौकर ट्रे में जूस और खाने पीने का सामान ले आया था। उसने रखवा लिया नौकर चला गया था। उसने प्लेट मेरी ओर बढ़ाई- लो सैंडविच लो और इडली भी, आज मैंने तुम्हारे लिए अपने हाथों से बनाई है।“

" बलकार ?

" बच्चे ?”

"बच्चे तो डलहौजी बोर्डिंग में पढ़ते हैं दोनों बेटे वहीँ रहते हैं। लम्बी छुट्टियों में ही घर आते हैं, बलकार सिंगापुर गया है एक हफ्ते के लिए, शायद परसों आ जाएगा। तू उसे तो बिलकुल नहीं पहचान पाएगी।”

"मैं तो तुम्हें ही नहीं पहचान पाई। अब तक संशय बना हुआ है, यह बताओ तो सही यह सब हुआ कैसे।"

"बताती हूँ, आराम से बैठो।”

उसने बताना शुरू किया- "शादी के बाद के पांच साल बहुत मुश्किल में बीते। खेत में कुछ होता ही नहीं था जो थोड़ा बहुत होता भी उससे एक आदमी का ही पेट नहीं भरता था और यहाँ घर में चार जीव पहले से थे, पांचवा आने को था। मेरी सास लोगों का लोगड ला कर चरखे पर कात देती बदले दस बीस रूपये मिल जाते पर गुजारा नहीं होता था। ऐसे में किसी ने सलाह दी- काले चने लगाओ। हमने काले चने बोये, पहले से हालत थोड़े सुधरे अब एक वक्त की रोटी का जुगाड़ हो गया पर दूसरे टाइम फिर भी भूखा रहना पड़ता।

फिर मैंने गाय और बकरियां पाली। एक टाइम का दूध हम रखते दूसरे टाइम का बेचते। उपले पाथियाँ भी बेचते, रोटी मिलने लगी पर बच्चे दो हो गए, बड़े हो रहे थे, उन्हें पढ़ाना भी था। कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा था। ऐसे में एक दिन कुछ लोग उधर आये। खेत देखा- बोले- "जमीन बेचोगे, हम यहाँ मौल बनायेंगे।“ पहले तो बाप बेटा नहीं माने। आखिर पुरखों की बनाई जमींन थी पर जब उन्होंने बार बार संदेशे भेजे तो पूछा -कितने पैसे दोगे।

चालीस लाख "

कम हैं "

पचास लाख "

नहीं"

जमीन उन्हें पसंद आई हुई थी। आखिर में एक किल्ले के अस्सी लाख पर बात तय हो गई। दो चार दिन तो घर में सब उदास रहे। जिस दिन पांच - छह करोड़ रुपया हाथ में आया सारी उदासी गायब हो गई। इतना पैसा किसी ने देखना तो दूर सोचा भी नहीं था।

एक करोड़ की तो यह कोठी खरीदी। पचास लाख रेनोवेशन पर लगाया। एक करोड़ का इसमें सामान खारीद कर इसे सजाया। बच्चों के डलहौजी में दाखिले करवाए। बाकी पैसों से वस्त्रम खोला। एक से एक डिजाइनर अब हमारे लिए काम करते हैं सेल्समैन सामान बेचते हैं, एजेंट ऑर्डर लाते हैं। मजे में चल रहा हैं सब।“

"पर तेरी अंग्रेजी ?”

उसके लिए ग्रूमिंग क्लास अटेंड किये, घर में ट्यूटर रखे, अब लोग तरह तरह के प्रेजेंटेशन दिखाते हैं। काफी कुछ समझा जाते हैं। बाकी तरह तरह की संस्थाएं बुलाती रहती हैं, वहां से भी बहुत कुछ सीखा जा सकता है। अब तो विदेशों से भी आर्डर मिलने लगे हैं। कई देशों में हमारी ड्रेस जाती हैं।

मैं मन्त्र मुग्ध सी उसकी बातें सुने जा रही थी। कहीं सुना था- माया तेरे तीन नाम जी, परसू, परसा, परसरामजी।

आज अपनी आँखों से प्रत्यक्ष देख पा रही थी।

उसने खाना खिला कर अपनी गाड़ी में वापिस भेजते समय ताकीद की- दुबारा जल्दी मिलने आना, बलकार से भी मिलना है।

गाड़ी में बैठ विदा लेते समय भी मैं यही सोच रही थी- अमरी से अमृत कौर बनने का सफर कितना लम्बा रहा होगा। क्या सबकी किस्मत इस तरह बदल जाती है। बलकार से मिलूँ तो क्या वह भी सहज रूप से मिलेगा। इन प्रश्नों का उत्तर पाने के लिए तो एक बार इस कोठी में दुबारा आना ही होगा। मैंने विदा के लिए हाथ हिलाया, गाड़ी आगे बढ़ गयी। फाटक पर खड़ी अमृत जींस टॉप में मंद मंद मुस्कुरा रही थी।


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