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इश्क और इबादत

इश्क और इबादत

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'जनाब, एक समस्या है'

'बताइये मियां'

"इबादत नहीं होती हमसे..ख़ुदा को जवाब देना मुश्किल हो जायेगा"

"कभी इश्क किये हो?"

"नहीं तो.."

"तो कर लो..इबादत सीख जाओगे"

"हा हा हा.. क्यों मज़ाक करते हो डा. साहब..अच्छे खासे तंदरुस्त हैं हम..ये बेवकूफी नहीं करेंगे"

"मियां हमने तो इबादत का रास्ता बताया था आपको..चलना ना चलना आपकी मर्ज़ी"

"अच्छा चलिये किया इश्क..फिर? इबादत कैसे होगी!"

"बरखुरदार...दिल से इबादत के लिए दिल को जानना जरूरी होता है और दिल जब तक कम्बखत टूटता नहीं तब तक ख़ुदा का एहसास ही नहीं होता"

"कुछ समझे नहीं..इश्क क्यों करें?"

"अरे मियां..जब पहली बार मोहब्बत होगी तब दिल टूटेगा..सबका टूटता है..कम से कम एक बार। और फिर दुनिया को देख पाओगे..जब महबूब छोड़ के चला जायेगा..तब तुम खुद बा खुद ख़ुदा के पास चले जाओगे..अरे वैसे नहीं..इबादत करने.."

"अरे डा. साहब ये तो मुश्किल काम हुआ..जो मालूम है कि दिल टूटेगा तो हम पड़े क्यों मोहब्बत में...और आप जो इतना लिखते हैं ..इश्क पे, आखिर ऐसा क्या है, हम भी तो जी रहे ..अच्छे खासे मज़े में..बिना मोहब्बत करे"

"पहली बात..ये हम कह तो रहे है और तुम सुन भी रहे हो की दिल टूटेगा ..पर जब ये नासूर गले पड़ेगा ना तो हमारे लफ्ज़ सुनाई देंगे और ना ही तुम्हारी तंदरुस्ती तुम्हें बचा पाएगी...और मियां तुम अभी भोंटी पेंसिल की तरह हो..जिसकी ज़िन्दगी का कागज़ कोरा है.."

"डा. साहब हम शायर नहीं..थोड़े आसान लफ़्ज़ों में समझाइये.."

"मियां तुम एक पेंसिल हो और इश्क़ जो है ना एक शार्पनर है, तो जब छिलोगे तब कुछ लिख पाओगे ना..ये जो इश्क़ है ना ..ये आदमी को पेना करता है, दर्द होता है, पर आदमी कुछ लिखने लायक बन जाता है, अपनी ज़िन्दगी के कागज़ पे"

"....पर डा. साहब नोक भी तो टूट जाती है कभी कभी "

"अब यही तो ज़िन्दगी है जनाब..पतंग उड़ाने का क्या मज़ा जब तक कटने का डर ना हो.."

"डा. साहब ..नया नहीं..अभी आप पेंसिल पे ही रुकिए..जाने कहाँ फंसा रहें है हमको"

"हा हा ..और एक और बात मियां ..ये पेंसिल को ना ज्यादा मत छीलना.. क्योंकि है थोड़ी सी ही..तो हिसाब से..."


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