हरे काँच की चूड़ियाँ
हरे काँच की चूड़ियाँ
जैसे ही घर वालों की तरफ से रिश्ता तय हुआ, व्योम और देविका का फोन का सिलसिला शुरू हो गया। सुलझे विचार, जीवन के प्रति जिम्मेदाराना नजरिया।
"क्या तुम दो-तीन की छुट्टियां ले सकती हो"
पापा कह रहे इसी माह एक रस्म हो जाय तो ठीक रहेगा।
"हाँ मुझसे भी यही कहा जा रहा है"
"ले ही लेते है"
"ठीक है, मैं तुम्हारा भी रिजर्वेशन करा लेता हूँ"
निश्चित दिन दोनों अपने घर पहुँचे। दोनों परिवार के कुछ सदस्यों की उपस्थिति में सगाई का कार्यक्रम सम्पन्न हुआ।
व्योम के फूफाजी ने बात शुरू की "भाई शर्मा जी लेन-देन की चर्चा कर लें तो अच्छा होगा",
वैसे हमारे गाँव में तो इस परंपरा को बनाए रखना हमारी प्रतिष्ठा का विषय है।
सभी हतप्रभ हो फूफाजी को देख रहे थे। व्योम के पापा ने कहा "हम तो इस बात से सहमत नहीं है"
"अरे! वाह भाई साब आप तो हमेशा मेरी बात को काटते है" अचानक माहौल गरमा गया। फूफाजी उठ खड़े हुए और चल दिए। पीछे-पीछे उनका मान रखते हुए सब चले गए।
थोड़ी ही देर में व्योम के पापा का फोन आया "भाई शर्मा जी हमें माफ कीजिएगा मैं आपसे दहेज की बात नहीं कर सकता हूँ। किन्तु अपने जीजाजी को भी कैसे समझाऊं", इसी आवाज के साथ पीछे से फूफाजी की आवाज आ रही थी। उनसे कह दो हमने जो जड़ाऊ गहने और साड़ियाँ दी है सब वापस कर देना। फौरन व्योम के पापा ने फोन बंद कर दिया।
शर्मा जी ने अपनी पत्नी से विचार विमर्श कर सब सामान इकट्ठा किया और सुबह ही धन्यवाद के साथ उनका सामान वापस कर आए।
व्योम की नजर एक गत्ते का डिब्बा जो छोटे टेबल पर रखा था उस पर पड़ी, उसे खोलकर देखा तो आँखें डबडबा गईं। उसमें थी हरे काँच की चूड़ियाँ। न रोक पाया खुद को !!! और फोन लगा दिया देविका को।
"तुमने हरी चूड़ियाँ आधी वापस क्यों की?"
शायद आधी तो हमारे अपनों ने पैरों से कुचल दी। उसी की किरचें हमारे दिल में चुभ रहीं है।
"अरे नही !! व्योम आधी तो मैंने अपने पास रखीं है"
"हाँ देविका और आधी मैंने रखीं है" रुआंसी आवाज में व्योम कह रहा था।
"इतनी जल्दी हार कैसे मान रहे हो व्योम, हम दोनों के पास ये जो हरे काँच की चूड़ियाँ है ना; ये जरूर आपस में मिलेंगी और तुम ही मुझे पहनाना"

