हिम स्पर्श - 48

हिम स्पर्श - 48

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“अब क्या है तुम्हारे मन में?” जीप बंद कर के जीत बाहर आ गया। ”अब चलो भी।“

जीत चाहता था कि वफ़ाई का हाथ पकड़ कर उसे जीप में बैठा दूँ किन्तु उसने वह विचार छोड़ दिया। वफ़ाई की प्रतीक्षा करने लगा।

“जीत, मैं हाईझ हूँ।“ वफ़ाई ने लज्जा से कहा।         

“वह क्या होता है?” जीत ने पूछा।

“जब कोई लड़की हेईझ में होती है तो उसे हाईझ कहते हैं।“ वफ़ाई ने जीत से आँखें चुराते हुए कहा। वफ़ाई कहीं दूर पर्वत पर देख रही थी।

“यह नई दुविधा ले आई तुम। हाईझ तथा हेइझ। यह सब क्या है। मैंने यह शब्द कभी नहीं सुने। तुम्हें जो कहना हो स्पष्ट कहो।“ जीत वफ़ाई के सामने खड़ा हो गया। वफ़ाई ने आँखें पर्वत से हटाकर मार्ग पर घुमा ली।

“यह सब मैं कैसे समझाऊँ तुम्हें?” वफ़ाई लज्जा से गुलाबी हो गई।

“तुम यदि नहीं समझाओगी तो मैं गूगल पर ढूंढ लेता हूँ।“ जीत मोबाइल पर देखने लगा। वहाँ नेटवर्क नहीं था। वह ढूंढ नहीं पाया।

“चलो छोड़ो, हम पर्वत पर चलते हैं। समय दौड़ रहा है। हमें भी भागना पड़ेगा।“ जीत जीप की तरफ बढ़ गया। वफ़ाई ने उसे रोक लिया, “जीत, समझा करो, मैं हाईझ में हूँ।“

“मैं समझने को तैयार हूँ किन्तु तुम समझाओ तब ना?”

वफ़ाई ने साहस जुटाया और सीधे ही जीत की आँखों में देखा।

“मैं मासिक में हूँ। इस मासिक को इस्लाम में हाईझ कहते हैं। और जो स्त्री हाईझ में होती है उसे हेईझ कहते हैं। मैं हेईझ हूँ।“ वफ़ाई एक ही सांस में बोल गई।

'कुछ मैं मासिक के विषय में तो जनता हूँ किन्तु यह शब्द नए थे मेरे लिए।' जीत मौन रहा।

“हाईझ में कुछ बातों पर प्रतिबंध होता है।“ वफ़ाई ने मौन भंग किया।

“यह मुझे ज्ञात है। हिंदुओं में भी प्रतिबंध होते हैं। जो स्त्री मासिक में होती है उस का रसोई तथा मंदिर में प्रवेश निषेध होता है। मुख्य कक्ष में नहीं बैठ सकती। उसे किसी बंद कक्ष में ही रहना पड़ता है। किसी को स्पर्श नहीं कर सकती। यदि कोई उसे स्पर्श कर लेता है, तो वह व्यक्ति अपवित्र हो जाता है। उसे पवित्र होने के लिए स्नान करना पड़ता है। जब तक वह स्नान नहीं कर लेता, किसी अन्य को वह स्पर्श नहीं कर सकता। वह किसी खेल में अथवा साहसिक प्रवृति में भाग नहीं ले सकती। ऐसे अनेक प्रतिबंध हैं। इस्लाम में भी ऐसा है क्या?”

“लगभग ऐसा ही है। कुछ भिन्न हैं।“

“वह भिन्न नियम बता दो।”

“मैं प्रयास करती हूँ।“ वफ़ाई ने कुछ याद करते हुए कहा, ”पाँच से छ: निषेध है। हेईझ नमाज़ नहीं कर सकती। कुरान को स्पर्श नहीं कर सकती। मस्जिद तथा धर्म स्थान के आसपास जा नहीं सकती। रोज़ा नहीं रख सकती ...।"

“कितने सारे प्रतिबंध। कितने तर्कहीन नियम! मैं इन नियमों को नहीं मानता। ना ही उनका अनुसरण करता हूँ।“

“नहीं जीत, हमें नियमों का पालन करना होगा। इसके पीछे कोई तर्क अवश्य होगा। हमारे पैगंबर अथवा संतों ने जो नियम बनाए होंगे उसके पीछे तर्क होगा ही क्योंकि वह सब ज्ञानी थे। हमें उसका विरोध नहीं करना चाहिए।”

“मैं उनका विरोध नहीं कर रहा हूँ। मैं सभी नियम का पालन करने को तैयार हूँ। केवल उसके पीछे का तर्क समझा दो मुझे।“

“तुम्हारे शब्दों में विद्रोह की गंध आ रही है, जीत।“

“शब्द विचारों को व्यक्त करते हैं। यदि इसे तुम विद्रोह कहती हो तो हाँ मैं विद्रोह पर हूँ।“

“किसी धर्म की परंपरा, नियम तथा प्रतिबंधों के विरुद्ध विद्रोह करना पाप है। और पापी नरक में जाते हैं।“

“तुम नरक अथवा स्वर्ग में विश्वास करती हो? वास्तविक जीवन के पश्चात जहाँ काल्पनिक दुख अथवा आनंद मिलता है उस नरक अथवा स्वर्ग का अस्तित्व है क्या? किसने देखा है? कौन जानता है?”

“जीत, तुम्हारे शब्दों से मुझे भय लगता है। मैं मेरे धर्म के विरुद्ध नहीं होना चाहती।“ वफ़ाई के मुख पर भय की रेखाएँ स्पष्ट थी।

“मैं तुम्हारे अथवा मेरे अथवा किसी भी धर्म के विरुद्ध नहीं हूँ।“

“तो तुम विद्रोह पर क्यों हो?”

“मैं अतार्किक बातों के विरुद्ध हूँ। यह भिन्न बात है कि वह धर्म से जुड़ी है।“

“मेरे धर्म में विद्रोह को स्थान नहीं। धर्म की बातों पर हम दलील नहीं कर सकते। अत: मैं उस का आँखें बंद कर अनुसरण करती हूँ।“

“किसी भी बात का इस प्रकार से अनुसरण मैं नहीं करता।“

“तुम उत्साह से भरे हो। यह उत्साह तुम्हें लंबा जीवन देगा। इस उत्साह से तुम सौ वर्ष तक जीवित रहोगे।“

“तुम बात से बच रही हो। अत: विषय बदल रही हो। सौ वर्ष तो क्या सौ दिवस के मेरे जीवन का विश्वास नहीं है मुझे।“ जीत ने गहरी सांस ली। ”हम हाईझ तथा हेईझ की बात कर रहे थे। इस पर्वत पर मंदिर में जाने की बात कर रहे थे। उस पर ही बात करें तो उचित रहेगा।”

“बात और दलील नहीं करूंगी मैं। बस मैं मंदिर नहीं आऊँगी। यह अंतिम निर्णय है मेरा। तुम यदि जाना चाहो तो जा सकते हो, मैं यहीं तुम्हारी प्रतीक्षा करूंगी।“

“इन शब्दों का क्या अर्थ है? मैं अकेला नहीं जाऊंगा। तुम्हें भी मेरे साथ चलना होगा।“

“किन्तु जीत, समझा करो। मैं विवश हूँ। मुझ में साहस नहीं है कि...।”

“साहस? तार्किक बातों को स्वीकार करने का साहस नहीं है तुम में?”

“जीत...।"

“स्त्री का मासिक आना एक शारीरिक प्रक्रिया है। इस का धर्म से कोई संबद्ध नहीं है। यह शुद्ध शारीरिक घटना है। यह प्रकृति अथवा ईश्वर अथवा अल्लाह की एक व्यवस्था ही है।”

“किन्तु यह रक्त, इस रक्त का बहना...।”

“यह रक्त भी आत्मा की भाँति पवित्र है। जब तुम किसी प्रेमी को रक्त से पत्र लिखती हो तो उसे शृंगारिक माना जाता है। पवित्र माना जाता है। संवेदना पूर्ण माना जाता है। उस पत्र का सम्मान होता है। यह रक्त जो बह रहा है वह उस बात का विश्वास दिलाता है कि एक नए जीवन को इस धरती पर जन्म देने के लिए स्त्री सक्षम है। कितना सुंदर, कितना शाश्वत है यह? इस रक्त तथा इस घटना से पवित्र क्या हो सकता है? आनंद तथा उत्साह से हमें इन क्षणों का स्वागत करना होगा। यही एक मात्र पवित्र घटना है जिसके माध्यम से ईश्वर हमें संकेत देता है कि उस ने मानव जाति पर से विश्वास नहीं खोया। वह इस धरती पर नए जीवन को भेजने के लिए उत्सुक है। ईश्वर के होने का यह सशक्त प्रमाण है। कितना सुंदर, कितना अदभूत है यह?” जीत ने कह दिया।

“जीत, इतने सुंदर एवं पवित्र शब्द मैंने कभी नहीं सुने। मुझे ऐसी अपेक्षा भी नहीं थी। कुछ कहने के लिए मेरे पास शब्द नहीं है।“ वफ़ाई कुछ क्षण मौन हो गई। जीत के शब्द वफ़ाई के कानों में प्रतिध्वनित होते रहे।

“जीत, तुम्हारा प्रत्येक शब्द मुझे देवी अनुभूति करा रहा है। क्या तर्क दिया है तुमने! मैं तुम्हारी शरण में हूँ।“ वफ़ाई जीप की तरफ बढ़ी, ”जीत, मैं तुम्हारे साथ चल रही हूँ। किसी भी स्थान पर, किसी भी स्थिति में। तुम तैयार हो? अब चलो भी, हमारे पास समय का अभाव है।“ वफ़ाई जीप में बैठ गई, जीत भी। जीप पर्वत पर जा कर रुकी। 

जीत ने मंदिर में प्रवेश किया, वफ़ाई ने भी। मंदिर खाली था, कोई भक्त नहीं थे। जीत मंदिर में तो प्रवेश कर गया किन्तु उसने प्रार्थना नहीं की। वह एक कोने में खड़ा हो गया और आस पास देखता रहा।

वफ़ाई किसी भी मंदिर में प्रथम बार आई थी। “जीत, यह कौन से भगवन का मंदिर है? इस भगवान का नाम क्या है?” वफ़ाई के प्रश्न में जिज्ञासा थी।

“क्या अंतर पड़ता है इससे? हमें भगवान को नाम नहीं देना चाहिए। भगवान, भगवान होते हैं।“

“किन्तु कोई नाम...।”

“हम भगवान का नामकरण करते हैं, यही तो भूल करते हैं। भगवान अविभाज्य है, अखंड है। जब हम उसे नाम देते हैं तब हम उसके चरित्र का भंजन करते हैं। उसे हम सीमित कर देते हैं। नाम देकर उसे विभाजित कर देते हैं। हम कहने लगते हैं कि यह मेरा भगवान है, वह तुम्हारा भगवान है। किन्तु ईश्वर तो एक ही है, सभी के लिए। ईश्वर को नाम कभी मत दो। बस उसकी पुजा करते रहो।“

वफ़ाई नि:शब्द हो गई। वह भगवान की तरफ घूमी और हिन्दू छोकरी की भाँति दर्शन करने लगी। वफ़ाई ने घंट बजाया। एक मधुर ध्वनि उत्पन्न हुई जो पर्वत की घाटियों में व्याप गई।

वफ़ाई ने दुपट्टे से माथा ढका। भगवान के समीप गई। दो हाथ जोड़े तथा आँखें बंध कर के नमन किया। कुछ बोली और आँखें खोल दी। कुछ क्षण भगवान की मूर्ति का ध्यान करने लगी। वफ़ाई के तन एवं मन में कुछ तरंगे बहने लगी। वह आनंदित हो गई। वह मुड़ी, अपने माथे पर कुमकुम का तिलक लगाया।

प्रार्थना, अर्चना पूर्ण कर के वफ़ाई जीत की तरफ घूमी। वह अभी भी मंदिर के कोने पर खड़ा था। वफ़ाई की प्रत्येक प्रवृति को देख रहा था। स्मित कर रहा था।

'वफ़ाई जीत के सामने थी। जीत ने उसे माथे से पाँव तक देखा। वह चकित था। वफ़ाई एक भिन्न लकड़ी बन गई थी। प्रथम बार उसने माथे पर दुपट्टा ढका था। ललाट पर तिलक था। उसकी आँखों में दिव्य-ज्योति थी। गाल लाल थे। अधरों पर स्मित था।'

“वाह! वफ़ाई तुम कुछ भिन्न ही हो गई हो। तुम नए अवतार में...।”

“जीत, तुमने मुझे मुसलमान से काफिर बना दिया।“ वफ़ाई ने सस्मित कहा।

“वह मेरा काम नहीं है, ना ही मेरा उदेश्य।“ जीत हँस पड़ा। मंदिर में आनंद व्याप्त हो गया।

भगवान भी आज आनंद में था क्योंकि प्रथम बार किसी भक्त ने उससे कुछ मांगा नहीं था। केवल जीवन के प्रत्येक क्षण के लिए भगवान का धन्यवाद किया था।

एक छोटा बालक मंदिर में प्रवेश कर गया। उसके मुख पर निर्दोष एवं वास्तविक स्मित था। वफ़ाई एवं जीत ने उसको देखा, उस बालक को स्मित दिया तथा मंदिर से बाहर निकल आए।

“जीत, हमारे मौलवी कहते थे कि यदि नमाज़ के पश्चात तुम किसी हँसते हुए बालक को देखो तो विश्वास कर लेना कि अल्लाह ने तुम्हारी प्रार्थना स्वीकार कर ली है।"

“अर्थात तुम्हारी प्रार्थना सफल हो गई।“ 

“किन्तु जीत, तुमने तो प्रार्थना नहीं की। मैंने देखा था कि तुम कोने पर खड़े थे और कोई पुजा....।”

“तुम अपनी पुजा कर रही थी कि मुझे देख रही थी? प्रार्थना के समय तुम ईश्वर के साथ नहीं थी। तुम्हारा ध्यान मेरे पर था। ऐसी प्रार्थना अच्छी नहीं होती।“ जीत ने स्मित किया।

“मुझे मेरे मुद्दे से भटकाओ नहीं। तुम ने प्रार्थना क्यों नहीं की?”

“मैं किसी मूर्ति से प्रार्थना नहीं करता। भगवान जब स्वयं मिल जाएंगे तब उनसे प्रार्थना कर लूँगा।“

“तुम और भगवान एक दूसरे से मिलोगे?”

“हाँ, अवश्य।“

“कब? कहाँ? कैसे?”

“शीघ्र ही। भगवान के घर।“

“तुम उपहास कर रहे हो मेरा तथा भगवान का। यह उचित नहीं है।“

“नहीं, मैं पूर्ण रूप से गंभीर हूँ। शीघ्र ही भगवान का मुझ से सामना होगा।“ जीत ने गगन की तरफ हाथ हिलाये। जीत के मुख पर अज्ञात स्मित था जिसे वफ़ाई समझ नहीं पाई।

“वफ़ाई, यहाँ अनेक बातें हैं अनुभव करने की। मंदिर एवं भगवान को यहीं छोड़ देते हैं और पर्वत पर चलते हैं।" जीत वफ़ाई को पर्वत पर ले गया। वह मौन हो गई।


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