Vipin Baghel

Tragedy

4.5  

Vipin Baghel

Tragedy

हे! मानव अब और नहीं

हे! मानव अब और नहीं

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अभी कुछ दिन पहले की ही तो बात है जब कुछ शिकारी एक हिरन का शिकार करने आये थे। उस वक्त वह नदी में पानी पी रही थी। जब उसने उस हिरन की आवाज सुनी तो वो पानी को बीच में ही छोड़कर उसकी तरफ दौड़ी और उन शिकारियों को वहां से भगाया।ऐसा करने में उसको भी थोड़ी चोट आ गयी थी पर दोस्ती में ये सब तो चलता है ऐसा सोचते हुए उसने अपनी सूंड में पानी लेकर उस हिरन के घाव को साफ किया और उसे उसके घर तक पंहुचा दिया।

आज वो अपने आप को बहुत अच्छा अनुभव कर रही थी। वैसे ऐसी ख़ुशी उसने अब तक बहुत कम ही महसूस की है| सामने जंगल की हरियाली और आसमान में पंछियो की आवाजें और आस पास उसके अन्य साथी जो उसके साथ हर एक परस्तिथिति में साथ रहते हैं मानों उससे कह रहे हों कि " क्या बात है ? आज तो आप बहुत सुन्दर, शांत और आनंदित लग रही हो । आज कुछ विशेष है क्या ?" और इसके उत्तर में अपने अंदर सारी ख़ुशी को छुपाती हुई कह रही हो कि "अरे नहीं ! बस ऐसे ही आज थोड़ा सा खुश होने का मन कर रहा था" और वह यह कहते कहते उनको भूल गयी और फिर से अपनी ही दुनियाँ में मशगूल हो गयी। 

अपने मन में हजारों सपने बुनते हुए जंगल से टहलते टहलते न जाने किस वक्त एक बस्ती में पहुंच गयी। जब उसे याद आया की वो कहां है? तो उसे कुछ घर और काम करते हुए मनुष्य दिखे। "क्या मनुष्य कहना मेरे लिए ठीक होगा या कुछ और कहूं इन लोगों को। वैसे इन्होने इस प्रकृति में कुछ भी तो नहीं छोड़ा है। सब कुछ तो खाकर हजम कर लिया और अगर ऐसा ही चलता रहा तो इस प्रकृति में नर मुंडों के आलावा कुछ भी तो नहीं दिखेगा " यही सोच विचार करती हुई वो आगे बढ़ने लगी। वो कुछ दूर आगे ही बढ़ पायी थी की तब तक कुछ दिखाई दिया जब पास जाकर देखा तो एक विचित्र चीज पड़ी हुई थी जिसके एक किनारे पर पत्ते थे और दूसरे किनारे पर कुछ खजूर की छाल जैसा कुछ। वाह! कितनी अच्छी खुशबू आ रही है इतना सोचते ही उसने उसे अपनी सूंड में पकड़कर अपने जबड़े में रख लिया। जैसे ही उसने उसे दबाया तो ......| एक घनघोर सन्नाटे के साये में अचानक उसको सुनाई देना बंद हो गया और उसे ऐसा लगा जैसे आसमान में चक्कर लगा रही हो। जब उसे होश आया तो उसका जबड़ा पूरी तरह से क्षत विछत हो गया था। तभी अचानक उसे दो आवाजें सुनाई दीं| एक तो उसके कराहने की आवाज थी और वो दूसरी ....| यही सोचते हुए वो और भी कराह उठी और बोली "अरे! कहीं मैं गर्भवती तो नहीं हूँ| और उसे महसूस हुआ कि हाँ उसके गर्भ में एक बच्चा पल रहा है। अब तो उसकी जान ही निकली जा रही थी। ये दर्द , अपने तक तो ठीक था पर मेरे बच्चे के लिए ....| यह सोचकर उसके आँखों से आंसुओं कि बारिश होंने लगी।अब वह अपना दर्द तो भूल गयी थी पर क्या अपने बच्चे के दर्द को भूल सकती थी, शायद नहीं।

उसके मन में अब हजारों सवाल उठ रहे थे पर वो किसी भी हालत में अब अपने बच्चे के लिए जीना चाहती थी। पर ये दर्द उसकी जिंदगी में एक हिमालय पर्वत जैसा खड़ा था। जिस पर फतह हसिल करना असम्भव सा लग रहा था। उसने हिम्मत करके धीरे धीरे अपने आप को काबू किया और पास के तालाब कि तरफ चल दीं और बीच तालाब में जाकर खड़ी हो गयी| अब उसके मन में और हृदय में अन्तर्द्वन्द चलने लगा और सोचने लगी ;

मन : अब आपको किसी भी तरह अपने बच्चे के लिए जीना होगा।

हृदय : जीना ! किस लिए। ऐसे लोगों के बीच में जो प्रकृति का सबसे बड़े दुश्मन हैं|

मन:  अरे ! शायद इन लोगों से गलती हो गयी है। वैसे सारे लोग ऐसे नहीं होते हैं।

हृदय: अब ये तो मुझे नहीं पता कि यह जान बूझकर किया या गलती हो गयी पर   इतना तो पता है कि जब तक इनके काम आ रहे हैं तब तक तो सब अच्छा है। उसके बाद काम न आने पर ये लोग आपको खा जाएँ। इन्हे किसी से भी हमदर्दी नहीं है।ये तो अपने ही लोगों को नहीं छोड़ते तो और की तो बात न ही करें तो बेहतर है।

मन:  सही है। तो फिर क्या सोचा है?

हृदय: अब सोचने को वैसे कम ही बचा है। ऐसी हालत में मैं कुछ ही दिन जिन्दा रह सकती हूँ पर ...|

मन:  पर..

हृदय: कुछ देर शांत। कोई जबाव नहीं दिया।

मन :  अरे कुछ तो बोलो।

हृदय: वो बोली , ऐसी हालत में मैं कुछ खा नहीं सकती तो इससे मुझे कोई दिक्कत नहीं है पर मेरे बच्चे के लिए कुछ तो चाहिए।मैं उसको तिल तिल मरता हुआ नहीं देख सकती और यह कहते कहते उसकी आँखों से आंसुओं की धारा फूट पड़ी|

 हृदय की इस बात ने मन के हृदय को भी विदीर्ण कर दिया। और मन ने हृदय को इस पीड़ा से निकल जाने का मार्ग दे दिया।


फिर थोड़ी देर में ही उसने अपनी स्वांस को रोक लिया और इस निर्दयी दुनियां से निकलकर एक ऐसी दुनियां की तरफ चल दी जहाँ पर असीम शांति के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। वो थोड़ी ही दूर चल पायी थी तब तक उसकी पेट में पल रहा बच्चा भी उछल कूद करता हुआ वहां आ गया। वो उसको देखकर बहुत खुश हुई और एक दूसरे की आपस में सूंड डालकर आगे बढ़ गए और जाते जाते कुछ कह भी रहे थे " हे! निर्दयी मानव अब बहुत हुआ अब और नहीं "| 


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