हौसलों की उड़ान

हौसलों की उड़ान

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10वीं कक्षा के फाइनल एग्जाम का अन्तिम दिन - सभी बच्चे खुश हैं कि अब दो महीने की छुट्टी मिलेगी पढ़ाई से और फिर वो आगे की कक्षा में पढ़ाई करेंगे। सभी बच्चे इसी ख़ुशी में एक-दूसरे से मिलकर विदा ले रहे हैं। मगर इन सबके बीच एक उदास चेहरा टकटकी लगाए शून्य को निहार रहा है। यह सृष्टि है... दिव्यांग सृष्टि चलने-फिरने में असमर्थ। पैर हैं... लेकिन बेअर्थ... निर्जीव.... बेजान। कहा जाता है ईश्वर अगर कहीं कटौती करता है तो कुछ ज्यादा भी देता है। जगत नियंता ने सृष्टि को उन्मुक्त मस्तिष्क एवं संवेदनशील हृदय दिया।

व्हीलचेयर पर बैठी सृष्टि शायद इस बात से अनजान है कि उसके जीवन में स्कूल का आज ये आखरी दिन है मगर कहीं न कहीं उसकी अंतरात्मा उससे कह रही थी, भले ही विद्यालय उससे पीछे छूट जाए लेकिन वह भावी जीवन में बहुत कुछ हासिल करेगी।

अध्यापक- "सृष्टि यहाँ एकांत में बैठी क्या सोच रही हो?"

सृष्टि- "कुछ नहीं सर! बस कल्पना कर रही हूँ एक ऐसे जीवन की जिसमें शिक्षा के बिना भी कोई वजूद हो।"

अध्यापक- (प्यार से सृष्टि के सिर पर हाथ फेरते हुए) "बेटा! शिक्षा के बिना जीवन का कोई महत्व नहीं होता और फिर तुम ऐसा क्यों सोच रही हो? तुम्हें तो अभी उच्च शिक्षा प्राप्त करनी है। तुम्हारा भविष्य तो बहुत स्वर्णिम होगा।"

सृष्टि- "नहीं सर! इसकी क्या गारंटी है कि अगर मैंने उच्च शिक्षा प्राप्त कर ली तो मेरा भविष्य स्वर्णिम ही होगा और मैं अपनी स्थिति सम्मानजनक बना पाऊँगी। और इसकी भी क्या गारंटी है कि अगर मैंने आज इस स्कूल से जाने के बाद कभी किसी स्कूल में पढ़ाई नहीं की तो मेरा भविष्य खऱाब होगा और मेरा अस्तित्व महत्वहीन हो जाएगा।"

सृष्टि के उत्तर ने अध्यापक को निरुत्तर कर दिया। उनकी स्नेह भरी दृष्टि सृष्टि को निहार रही थी... ऐसा लग रहा था मानो मन ही मन वे अपनी शिष्या को आशीष दे रहे हों।

''सर! मैं अपने जीवन में कुछ अलग करना चाहती हूँ। सबको सब कुछ नहीं मिलता है और जिसको जो चीज़ नहीं मिलती है उसी कमी के बिना ही जीवन में आगे बढ़ने की कला को ही सही मायनों में जीना कहते हैं। सर मैं शिक्षा के खिलाफ नहीं हूँ, मगर उन लोगों को सोचिए जिन्हें किन्हीं कारणोंवश शिक्षा प्राप्त नहीं हो पाती। वो तो इसी को अपनी बदनसीबी मानकर जीवन में आगे बढ़ने के लिए कुछ नहीं करते।" सृष्टि ने मौन व् एकाग्रचित्त अध्यापक से कहा।

अध्यापक- (सृष्टि की बात को काटते हुए, शायद सृष्टि के सवालों का उनके पास जवाब नहीं था) "बेटा! स्कूल में ताला डालने का समय हो गया है - अब हमें यहाँ से चलना चाहिए।"

''ओके सर, आज के बाद आप जब कभी भी मुझसे मिलेंगे तो एक दूसरी ही सृष्टि आपके सामने होगी।" दृढ़ता से लवरेज सृष्टि बोली।

घर में पड़ी एक पत्रिका को उठाकर सृष्टि उसे गौर से देखती है। उसमें बहुत सी प्रोत्साहित करने वाली बातों को पढ़ते हुए सृष्टि मन ही मन में बहुत खुश होती है। ऐसा लग रहा था मानो उसके चंचल मन को लक्ष्य मिल गया हो। एक डायरी और पेन लेकर सृष्टि अपने टूटे-फूटे शब्दों में अपने मन के भावों को कागज़ पर उकेरना शुरू करती है। धीरे-धीरे लेखन को सृष्टि ने अपनी दिनचर्या में शामिल कर लिया। पत्रिकाओं में लेखों को पढ़कर... नेट की सहायता से... अखबारों से उसने अपने शब्द ज्ञान को विस्तार देना शुरू कर दिया। सामाजिक गतिविधियों में सृष्टि ने ध्यान देना शुरू कर दिया। बड़े-बड़े अरमानों को दिल में लिए सृष्टि किसी भी परिस्थिति में खुद को कमजोर नहीं पड़ने देना चाहती थी। उत्साह के पंख लगाकर वह तो उड़नाा चाहती थी उन्मुक्त व्योम में।

लोगों ने सृष्टि के प्रति दयनीय भरी बातों से सृष्टि का मनोबल गिराने की बहुत कोशिश की। मगर लोग उसको जितना कम महसूस कराने की कोशिश करते सृष्टि अपने विचारों से उतना ही ऊपर उठने की कोशिश करती। इस सबके बीच सृष्टि की जिंदगी में जो सुखद एहसास है वह है सृष्टि का प्यार प्रिंस। सृष्टि और प्रिंस एक-दूसरे से मित्र की एक पार्टी में मिले थे। पहली नज़र में ही दोनों एक-दूसरे को दिल दे बैठे। व्हीलचेयर पर बैठी सृष्टि की दिव्यांगता से प्रिंस को कोई समस्या नहीं होती। प्रिंस का प्यार पाकर सृष्टि खुद को बहुत ज्यादा खुशनसीब मानने लगती है लेकिन सृष्टि के मन में एक डर भी रहता कि आखिर कब तक प्रिंस का प्यार उसके साथ रहेगा। कभी प्रिंस उसको छोड़ गया... तो कैसे जियेगी वो? ऐसे ख्याल मात्र से ही सृष्टि की आँखों से अश्रुधारा बहने लगती थी। आँखें रोते-रोते सूज जाया करती लेकिन कुछ कर गुजरने के हौसले पस्त नहीं होते।

कुछ महीनों के रिलेशनशिप के बाद प्रिंस सृष्टि से दूर-दूर सा रहने लगा। सृष्टि भी अपनी अपंगता के कारण कुछ कह नहीं पा रही थी। वो बस किसी भी कीमत पर प्रिंस को खुद से दूर नहीं जाने देना चाहती थी। प्रिंस को जीवनसाथी बनाने के लिए सृष्टि सब-कुछ करने के लिए तैयार थी...उसका मन-ओ-मस्तिष्क दिन-रात यही सोचता था वह क्या करे...जिससे वह प्रिन्स के काबिल बन सके।

एक दिन सोशल मीडिया पर सृष्टि को 'मिस व्हीलचेयर इंडिया कांटेस्ट' के बारे में पता चलता है। सृष्टि को इस कॉन्टेस्ट के जरिये अपना सुनहरा भविष्य नज़र आता है। यह ताज आसान नहीं था। एक मिडिल क्लास परिवार की लड़की के लिए यह काँटों भरी राह थी। कटीले रास्ते से ज्यादा बुलन्द थे सृष्टि के इरादे। अपने प्यार के काबिल बनने के लिए और सम्मानजनक मुकाम हासिल करने के लिए सृष्टि चल निकलती है कठिन डगर पर।

(मिस व्हीलचेयर इंडिया कॉन्टेस्ट का फॉर्म भरते समय फाउंडर सृष्टि से)- "आपकी क्वालीफिकेशन क्या है।"

यह सवाल सुनकर सृष्टि को ऐसा लगता है मानो उसे किसी ने आसमान से जमीन पर फेंक दिया हो। स्वर्णिम भविष्य का सपना संजो रही सृष्टि का मस्तिष्क ठहर सा जाता है। निरुत्तर सृष्टि को विद्यालय के अन्तिम दिन अध्यापक की कही बात याद आती है...'बिना शिक्षा के कुछ नहीं होता। सृष्टि ने जवाब में कहा था...क्या गारंटी है अगर मैंने उच्च शिक्षा प्राप्त की तो मेरा भविष्य स्वर्णिम होगा और अगर उच्च शिक्षा प्राप्त नहीं कि तो मेरा भविष्य उज्ज्वल नहीं होगा।

फाउंडर- (सृष्टि के मौन को तोड़ते हुए) "मिस सृष्टि! मिस व्हीलचेयर इंडिया कांटेस्ट का ताज पहनने के लिए अपनी शैक्षणिक योग्यता तो बताइए?"

"सर! उस अवॉर्ड तक पहुँचने के लिए डिग्री या टैलेंट दोनों में से सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण क्या है?" सृष्टि ने अपना आत्मबल समेटते हुए सवाल के जवाब में सवाल दागा।

फाउंडर- "टैलेंट के बिना तो आप कहीं भी नहीं पहुँच सकते और डिग्री तो उस टैलेंट का आधार होती है।"

सृष्टि- "सर अगर मैं कहूं कि मेरे पास टैलेंट का ये आधार ही नहीं है तो क्या उस अवॉर्ड तक मैं नहीं पहुँच सकती?"

(फाउंडर सृष्टि को आश्वर्य से देखते हुए)- "मैं आपसे एक सवाल पूछता हूँ अगर आपने इस सवाल का सही जवाब दे दिया तो आपको उस अवॉर्ड तक पहुचने के लिए किसी डिग्री की जरुरत नहीं होगी... मिस सृष्टि संसार में टैलेंट और डिग्री से भी बढ़कर क्या है?"

(उत्साह से परिपूर्ण सृष्टि व्हीलचेयर पर बैठे फाउंडर को देखते हुए कहती है)- "सर आपने जिस कॉन्फिडेंस लेवल के दम पर हम जैसे लोगों के लिए ये फाउंडेशन तैयार किया है, आपने जिस कॉन्फिडेंस लेवल से हम जैसे लोगों के लिए ये सुनहरी दुनियाँ कायम की है वही आत्मविश्वास दुनियाँ की हर डिग्री से बड़ा है और उसी आत्मविश्वास की दम पर मेरा कौशल मुझे उस अवॉर्ड तक पहुंचा सकता है।"

फाउंडर ताली बजाते हुए- "वेल डन सृष्टि! आप मिस व्हीलचेयर इंडिया कांटेस्ट की पूरी हकदार हैं और शायद इंडिया यह पुरस्कार अब आपका ही इन्तजार कर रहा है। हौसलों के पंखों से सपनों की उड़ान भरो और हासिल कर लो वो सम्मान जिसकी तुम हकदार हो।" सृष्टि पूरी शिद्दत से अपनी योग्यता और आत्म विश्वास की दम पर मिस व्हीलचेयर इंडिया का ताज हासिल कर लेती है।

सृष्टि जब मिस व्हीलचेयर इंडिया का खिताब जीतती है तो वह अपनी खुशी प्रिन्स के साथ साझा करती है और प्रिन्स को शादी के लिए प्रपोज करती है। पर जो खुशी वह प्रिन्स के चेहरे पर देखना चाहती है वह उसे दिखाई नहीं देती। इसको लेकर वह विचलित हो जाती है। उसके प्रपोज़ल का प्रिन्स कोई जवाब नहीं देता।

प्रिन्स की चुप्पी तोडऩे के लिए सृष्टि कहती है...''प्रिंस! क्या अब भी तुम अपने प्यार को अपने घर वालों के सामने स्वीकार करने की हिम्मत नहीं जुटा सकते। प्रिंस तुम हमेशा से मुझे अपने प्यार को सबसे छिपाते आये हो। इसकी वजह से तुमने मुझसे कितनी दूरियां बना कर रखीं और मैं भी तुमसे सिर्फ इसलिए कुछ न कह सकी क्योंकि मैं खुद को इस काबिल बनाना चाहती थी कि तुम मुझे गर्व के साथ अपनी जीवनसाथी के रूप में दुनियां वालों के सामने स्वीकार कर सको। प्रिंस मैं तुमसे बहुत प्यार करती हूँ और तुम्हे पाने के लिए ही मैंने ये मुकाम हासिल किया है। आज तो तुम मुझे अपने प्यार को स्वीकार कर सकते हो।"

(बोलते-बोलते सृष्टि का गला रुंध गया था)

प्रिन्स ने अपना मौत तोड़ते हुए कहा...''सृष्टि! बेशक तुम आज एक कामयाब लड़की बन गयी हो। तुम्हें मुझसे भी अच्छा जीवनसाथी मिल जायेगा। परन्तु मुझे माफ कर दो। मैं तुम्हें स्वीकार नहीं कर सकता क्योंकि तुम्हारी दिव्यांगता को मेरे मम्मी-पाप कभी स्वीकार नहीं कर सकते। इसलिए मेरे मम्मी-पापा ने जहाँ रिश्ता तय किया है, मैं वहीं शादी करूँगा। मैं मेरे मम्मी-पापा का दिल नही दुखा सकता।"

प्रिंस की बातें सृष्टि को झकझोर देती हैं। उसके ख्वाब...उसके अरमान रेत के घर की मानिन्द ढेर हो जाते हैं। जहां सब लोग उसकी कामयाबी पर गौरवान्वित महसूस कर रहे हैं वहीं उसका प्यार...जिसके लिए उसने यह मुकाम हासिल किया उसने यह बताने की कोशिश कि बिना पैर वालों को दौडऩे का हक नहीं है। वे सपने नहीं देख सकते।

सृष्टि को अब यह खुशियां रास नहीं आ रही थीं। वह इतना सब करने के बाद भी अपनी दिव्यांगता पर विजय न हासिल कर सकी। वह सोचती है कि क्या प्रिन्स का प्रेम सच्चा था? प्रेम तो ढाई अक्षरों का नाम नहीं है। प्रेम तब सम्पूर्ण होता है जब उसमें ढाई अक्षर त्याग के मिलते हैं। सृष्टि ने प्रेम और त्याग के लिए सब कुछ किया... स्वयं को प्रिन्स के योग्य बनाने के लिए अपनी दिव्यांगता और अशिक्षा से जंग लड़ी। इसके एवज में प्रिन्स ने क्या किया। सिर्फ सृष्टि के प्रेम का तिरस्कार। प्रिन्स को शायद प्रेम के मायने मालूम ही नहीं।

सृष्टि एक बार फिर अपने आत्मबल को एकत्रित करती है और सोचती है अच्छा रहा ये ब्रेक अप शादी से पहले ही हो गया अन्यथा जीना और दुश्वार हो जाता। वह फिर से चल निकलती है आत्म सम्मान पाने के लिए। दौड़ा देती है अपनी कलम को दुनिया को प्रेम का सही अर्थ सिखाने के लिए, कुरीतियों का कत्ल करने के लिए, अज्ञान के अंधेरे को मिटाने के लिए, अपने जैसे लोगों में जोश भरने के लिए, एक प्रेरणामयी मूरत बनने के लिए। सृष्टि की कलम रुकेगी नहीं... उसका जज़्बा थमेगा नहीं क्योंकि हौसलों के पंख उसकी उड़ान को उन्मुक्त गगन में ले जाएंगे।


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