DrGyanchand Jangid Advo

Inspirational

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DrGyanchand Jangid Advo

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गुरु से बढ़ कर न कोई

गुरु से बढ़ कर न कोई

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जीवन में सीखते रहना मानव की जन्मजात प्रवृत्ति है लेकिन जब व्यक्ति में सीखने की इच्छा, सीखने की ललक, सीखने की जिज्ञासा, न हो तो सीखने की प्रवृत्ति समाप्त हो जाती है वह व्यक्ति जीवन में कुछ नया सीख नहीं पाता है साथ ही सीखने के लिए एक इंसान को हमेशा शिष्य ही बना रहना चाहिए क्योंकि शिष्य बने रहने पर ही सीखा जा सकता है अगर व्यक्ति ने अपने मस्तिष्क में यह भ्रम पाल लिया कि वह सब कुछ जानता है उसने सब कुछ सीख लिया है तो ऐसी परिस्थिति में ऐसे दौर में उस व्यक्ति के सीखने का दौर समाप्त हो जाता है वह कुछ सिख नही पायेगा और अगर उस व्यक्ति के मस्तिष्क में अहम ने घर बना लिया तो सीखने का दौर तो समाप्त होगा ही होगा साथ में सीखा हुआ ज्ञान भी एक रचनात्मक रूप नहीं ले पाएगा ।चलो इस विषय वस्तु पर मुझे एक छोटा सा प्रसंग याद आ रहा है।एक समय की बात है एक व्यक्ति गुरु के पास पहुंचा ज्ञान प्राप्त करने के लिए कुछ नया सीखने के लिए कुछ वक्त वह गुरु के पास शिष्य बन कर रहा गुरु जहां भी जाते थे गुरु उस शिष्य को हमेशा आगे रखकर यह जानने का प्रयास करते थे उनके द्वारा सिखाया गया ज्ञान उनके द्वारा दिया गया ज्ञान शिष्य ने कितना आत्मसात किया है या नहीं किया है कुछ वक्त बाद गुरु ने यह एहसास किया कि उनके शिष्य के मन मस्तिष्क में सीखे गये ज्ञान के कारण अहम पैदा हो रहा है।

एक दिन गुरु ने अपने शिष्य को साथ लेकर एक नदी को पार करने के लिए चल पड़े नदी को पार करने के लिए एक पुलियानुमा एक सकड़ी सी पगडंडी हुआ करती थी जिस पर केवल एक व्यक्ति ही चल सकता था गुरु ने शिष्य को आगे रखा और स्वयं उसके पीछे-पीछे चलना शुरू कर दिया बीच रास्ते में पहुंचे तो उन्होंने देखा की उसे पगडंडी पर उस छोटे से पुल पर जिस पर केवल एक ही व्यक्ति आ जा सकता था सामने एक कुत्ता आ गया अब गुरु के आगे चलने वाले शिष्य को नहीं सूझ पा रहा था कि अब वह क्या करें क्योंकि गुरु ने उनको आगे बढ़ने के लिए ज्ञान दे दिया था लेकिन मुसीबत के समय किस प्रकार वापस लौटा जा सकता है या उसका सामना कैसे किया जाएगा ये ज्ञान देने से पूर्व ही शिष्य को अहम पैदा हो गया था

शिष्य उस समस्या को सामना नहीं कर पाया क्योंकि उन्होंने उस यात्रा को पार करने के लिए आधा ही ज्ञान प्राप्त कर लिया और आधा ज्ञान प्राप्त करने के बाद ही उनके मन मस्तिष्क में अहम पैदा हो गया जिसके पश्चात वह आगे का ज्ञान प्राप्त नहीं कर पाया और परिणाम हुआ कि वह नदी में गिर गया शिष्य को तेरना भी नहीं आता था क्योंकि गुरु के द्वारा दिए जाने वाले ज्ञान का तीसरा चरण उसे तैरना सिखाना था जो वह शिष्य अहम और घमंड की वजह से नहीं सीख पाया गुरु तुरंत शिष्य के पीछे नदी में कूद गए और शिष्य को कुशलता पूर्वक बचाकर नदी के तट पर लेकर आ गए तब गुरु ने शिष्य को कहा की सीखने के लिए हमेशा शिष्य बना रहना आवश्यक होता है और नहीं एक शिष्य को अपने ज्ञान पर किसी प्रकार का अहम और घमंड अपने मस्तिष्क में पैदा होना देना चाहिए जैसा कि उस शिष्य ने पाल लिया था तब उससे शिष्य को एहसास हुआ कि मैं चाहे जितना सीख लूं ज्ञान की कोई सीमा नहीं है और वह ज्ञान मे हमेशा हमेशा के लिए एक शिष्य बनकर ही प्राप्त कर सकता हूं

 इसलिए जिंदगी में कुछ सीखना है तो हमेशा शिष्य बने रहो और अपने सीखे हुई ज्ञान पर कभी अहम, घमंड मत करो।


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