गन्दा ख़ून

गन्दा ख़ून

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वसीम ग़ुस्से में सामने पड़ी शराब की बोतल को काफ़ी देर से घूर रहा है। उसका जी चाह रहा है कि शराब की बोतल को दाँतों से कूच के थूक दे और फिर शीशे के टुकड़ों को अपने पैरों तले कुचल के मिट्टी में मिला दे। फिर वसीम की नज़र सामने आलमारी में रखी ढेर सारी बोलतों पर जाती है। अब उसका जी चाह रहा है कि सामने पड़ी एक बोतल और आलमारी में पड़ी सभी बोलतों को एक बोरे में भरे और दूर कहीं समुन्दर में जाके फेंक आए और फेंकने से पहले बोरे में भरी सभी बोतलों को ज़मीन पर बोरे सहित पटक-पटक के फोड़ डाले।

वसीम को अपने ग़ुस्से को ज़ाहिर करने का कोई और तरीक़ा नहीं मिल रहा है। वो बार-बार अपने दोनों हाथ अपने सिर के पीछे ले जाता है और ऐसा महसूस करता है जैसे उसने कोई बहुत बड़ा गुनाह कर दिया है। वो ग़ुस्से ही में उठता है और खिड़की से बाहर देखने लगता है। बाहर सड़क पे गाड़ियाँ इस तरह दौड़ रही हैं जैसे आज ही क़यामत आने वाली है और सबको मरने से पहले कुछ ज़रूरी काम निपटाने हैं।

वसीम की खिड़की के एक कोने में एक ख़ाली बोतल रखी है जो उसने कुछ दिन पहले उसी जगह खड़े-खड़े ख़ाली की थी और ख़ाली बोतल को एक किनारे रख दिया था। वो ख़ाली बोतल किसी विधवा की तरह वसीम को उम्मीद को भरी नज़र से देख रही थी। वसीम को ऐसा महसूस हुआ कि वो ख़ाली बोतल उससे कह रही हो कि, “मुझे एक बार और अपने होंटों से लगा लो।”

और बोतल का इतना कहना ही था कि वसीम का ग़ुस्सा सातवें आसमान तक पहुँच गया और अब उसे अपना ग़ुस्सा बाहर निकालने का एक ज़रिया मिल गया। उसने उस ख़ाली बोतल को कुछ इस तरह उठाया जैसे कोई अपने दुश्मन का गला कुछ इस तरह दबा रहा हो कि बस अब जान ले ही लेगा। और वसीम ने उस ख़ाली बोतल को, जो उसे एक विधवा की तरह उम्मीद भरी नज़र से देख रही थी, सामने पड़ी बोतल पे इस तरह पटका कि दोनों बोतलें आपस में दो पहाड़ों की तरह टकरायीं और एक दूसरे से टकराते ही चकना-चूर हो गईं। 

बोंतलों के टकराने और चकना-चूर होने की आवाज़ वसीम में कानों में कुछ इस तरह गई जैसे उसके कानों में किसी ने आम का रस डाल दिया हो और वसीम को बहुत अच्छा लगा हो। लेकिन बोतल के इस तरह टूटने की आवाज़ ने दूसरे कमरे में मौजूद एक औरत को इस तरह बाहर निकाला जैसे घर में भूकम्प आ गया हो या इस कमरे की छत और दीवारें सब एक साथ धम्म से नीचे गिर गई हों। दूसरे कमरे से एक ख़ूबसूरत औरत इस कमरे में हैरान और घबराई हुई सूरत लेकर दाख़िल हुई। उसने पहले टूटी हुई बोतलों को देखा, फिर वसीम को देखा, जिसकी नज़र अब आलमारी में पड़ी अपनी ख़ूबसूरती पे इतरा रही बोतलों पर थी।

-“या अल्लाह, वसीम! क्या हुआ?” इतना कहकर वो ख़ूबसूरत सी औरत, जो बोतल के टूटने की आवाज़ सुनकर अन्दर आई थी, वसीम की ओर बढ़ने लगी, मगर वसीम ने उसे वहीं, एक फ़ौजी अफ़सर की तरह रोक दिया।

-“अन्दर मत आओ फ़रीदा। शीशा लग जाएगा तुम्हें।” इतना कहकर वसीम आगे बढ़ा और आलमारी में रखी सभी बोतलों को, जो अपनी ख़ूबसूरती पे इतरा रहीं थीं, इतनी बेरहमी से बाहर निकाल कर ज़मीन पे पटकने लगा कि पूरे घर में शराब ही शराब बहने लगी। फ़रीदा, जो वसीम के हुक्म की तामील में हैरान खड़ी थी और हिल नहीं रही थी कि उसके नाज़ुक और मुलायम पैरों में शीशा लग जाएगा, अब और इन्तिज़ार न कर सकी और अपने नाज़ुक और मुलायम पैरों में शीशा लग जाने की परवाह किए बग़ैर आगे बढ़ी और वसीम का हाथ कुछ इस तरह पकड़ लिया जैसे वो कोई ग़लत काम कर रहा था।

वसीम ने अपनी ग़ुस्से से लाल आँखों से फ़रीदा की ओर देखा। फ़रीदा की आँखें सफ़ेद और ख़ुश्बूदार थीं। वसीम को अचानक लगा कि फ़रीदा की सफ़ेद और ख़ुश्बूदार आँखों में लाल-लाल ख़ून भर गया है या उन टूटी हुई बोतलों की रंगीन शराब फ़रीदा की सफ़ेद और ख़ुश्बूदार आँखों में इस तरह भरती जा रही है जैसे उसकी आँखें न हों कोई समन्दर हो और फिर वसीम को लगा कि फ़रीदा की सफ़ेद और ख़ूश्बूदार आँखें कहीं नदारद हो गई हैं। अब सब जगह बस लाल-लाल ख़ून या रंगीन शराब दिखाई दे रही है।

-“वसीम!” फ़रीदा ने वसीम को झकझोरा। वसीम ने देखा कि अचानक से फ़रीदा की सफ़ेद और ख़ुश्बूदार आँखों से सारा लाल-लाल ख़ून ग़ाएब होता जा रहा है और उसकी सफ़ेद और ख़ुश्बूदार आँखें फिर से वापस आ गई हैं जिनकी पलकें बार-बार झुक रही थीं।

वसीम ने देखा, उसने इतनी ही देर में आलमारी की कई बोतलें तोड़ डाली थीं। फिर उसने वापस आलमारी में देखा, कुछ बोतलें अभी भी सही सलामत मौजूद थीं। लेकिन ये बची हुई बोतलें अब पहले की तरह अपनी ख़ूबसूरती पे इतरा नहीं रहीं थीं बल्कि अब सब एक डरी हुई बिल्ली की तरह एक कोने में दुबुक सी गईं थीं।

वसीम ने कमरे में बह रही शराब को देखा। उसे लगा जैसे बहती हुई शराब, बहता हुआ ख़ून बन गई हो। फिर वसीम को उस बहते हुए ख़ून में कुछ दिखने लगा। अभी एक दिन पहले ही वसीम अपने ऑफ़िस के लोगों के साथ एक होटल में बैठा पार्टी कर रहा था। ख़ूब जम के खाया जा रहा था और ख़ूब जम के पिया जा रहा था। वसीम का भरा हुआ गिलास उसके सामने रखा था। उसने अपना गिलास उठाया ही था कि तभी वसीम का फ़ोन आया था।

- “हैलो वसीम!”

- “अरे अश्‍विनी मैडम आप? सब ठीक है ना?”

- “अभी इस वक़्त कहाँ हो आप?”

- “ऑफ़िस के लोगों के साथ पार्टी चल रही है मैडम। आप कहिए ना!”

- “नहीं, कुछ नहीं! आप पार्टी करो। बाद में बात करते हैं।”

- “ठीक है। मैं फ़्री होके फ़ोन करता हूँ आपको।”

और वसीम को फ़्री होने में रात के बारह बज गए थे। पार्टी के जोश और शराब के नशे में वसीम के क़दम लड़खड़ा रहे थे मगर यही तो पीने का मज़ा है। लेकिन वसीम को इतना याद था कि उसे अश्‍विनी मैडम को फ़ोन करना है। इसलिए उसने शराब के नशे में, रात के बारह बज चुके हैं, इसका भी ख़याल न किया और अश्‍विनी मैडम को फ़ोन लगा दिया।

- “हाँ, वसीम! क्या हुआ?”

- “मैडम! फ़ोन आपने किया था। आप बताओ क्या हुआ?”

- “अभी तुमने पी रखी है, वसीम। घर जाओ।”

- “नहीं मैडम! मैंने पी ज़रूर है। लेकिन मैं पूरे होश में हूँ। देखिए आपको फ़ोन करना मुझे याद था, इसलिए मैंने किया। अभी आप बताओ, आपने किसलिए फ़ोन किया था?”

- “कुछ अर्जेंट काम था वसीम। लेकिन अभी आप जिस हालत में हो, तो कोई फ़ाएदा नहीं है कहके।”

- “अरे मैडम! आप कहके तो देखो। आपके लिए जान भी हाज़िर है।”

- “किसी की जान ही बचानी है वसीम! किसी को अर्जेंट ब्लड की ज़रूरत है। लेकिन।”

- “लेकिन क्या? मैं ‘ओ पॉज़िटिव’ हूँ। किसी को भी ब्लड दे सकता हूँ। आप बोलो, किधर आना है? मैं अभी आता हूँ। आप ये मत सोचो कि मैं पहुँच नहीं पाऊँगा। अपने पैरों से चलके आऊँगा। आप बस बताओ, आना किधर है?”

- “मुझे पता है तुम ‘ओ पॉज़िटिव’ हो। और तुम तुरन्त आ भी जाओगे। इसीलिए तो मैंने सबसे पहले तुम्हें फ़ोन किया था। लेकिन तुमने पी रखी है वसीम। तुम इस हालत में ब्लड डोनेट नहीं कर सकते।”

- “अरे तो मैं लौंग वाला पान खा लूँगा। हॉस्पिटल पहुँचते-पहुँचते सब स्मेल ग़ाएब हो जाएगी। किसी को कुछ पता नहीं चलेगा। घर पे कोई होता है, तो मैं यही करता हूँ।”

- “सिर्फ़ स्मेल भगाने से काम नहीं चलेगा यार। अल्कोहल का असर ब्लड में दो दिन तक रहता है। तुम दो दिन से पहले किसी को ब्लड नहीं दे सकते। वो भी दो दिन तक तुम्हें ख़ूब पानी पीना पड़ेगा और ख़ूब ज्यूस पीना पड़ेगा। तब जाके तुम्हारे ब्लड से अल्कोहल का असर दूर होगा।”

वसीम को ये बात पता नहीं थी। उसको तो जैसे साँप सूँघ गया।

- “अरे! तो ये बात पहले बतानी थी ना मैडम! जब आपने फ़ोन किया था, उस वक़्त तक मैंने पीना शुरू भी नहीं किया था। मैं बस पीने ही जा रहा था कि आपका फ़ोन आया था। मेरे एक हाथ में गिलास था और दूसरे हाथ में फ़ोन। और मैं आपसे बात कर रहा था।”

- “अरे, तो ये मुझे नहीं पता था ना कि तुमने पीना शुरू किया है या नहीं।”

- “अब?”

- “अब तुम सँभल के घर जाओ।”

- “वैसे, किसको चाहिए था?”

- “है कोई, अपना ही।”

- “कुछ इन्तिज़ाम हुआ कि नहीं।”

- “कुछ लोगों ने ‘हाँ’ कहा है। उन्हीं का इन्तिज़ार हो रहा है।”

- “मुझे बहुत बुरा लग रहा है मैडम! ऐसे मौक़े पे मैं आपकी मदद नहीं कर पा रहा हूँ। वो भी सिर्फ़ इसलिए कि मैंने पी रखी है। इतनी ख़राब चीज़ है ये शराब कि ख़ून को भी गन्दा कर देती है?”

- “अब तुम घर जाओ वसीम। रात बहुत हो चुकी है।”

वसीम से फिर कुछ और बोला ही नहीं गया। वो काफ़ी देर तक सड़क किनारे बैठकर सोचता रहा कि उसने ये क्या किया? उससे कितना बड़ा गुनाह हो गया आज?

फिर आज सुबह से ही वसीम ने ख़ूब पानी पिया, ख़ूब ज्यूस पिया और ख़ूब पेशाब किया। फिर शाम को अश्‍विनी मैडम को फ़ोन किया।

- “कैसी सिचुएशन है अब? आपने जैसा कहा था, मैं ख़ूब पानी पी रहा हूँ, ज्यूस पी रहा हूँ, और पेशाब भी ख़ूब किया है। मेरे ख़्याल से अब शराब का असर चला गया होगा। आप कहें, तो मैं आ जाता हूँ।”

- “नहीं वसीम! अब ज़रूरत नहीं।”

- “क्यूँ, क्या हुआ?”

- “सही वक़्त पे ब्लड अरेंज नहीं हो पाया। और”

- “और?”

- “और क्या? जाने वाला चला गया।”


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