घर
घर
अम्माजी की जिंदगी दो बिंदुओं को जोड़ने वाली एक सरल -सीधी रेखा थी। एक बाबूजी यानि उनके पति और दूसरा उनका घर। सुबह से शाम तक बाबूजी की सेवा-टहल और घर के कोने-कोने की देखभाल। ब्रह्म मुहूर्त में उठकरपूजा के फूलों को तोड़नेवालो से बचाने से लेकर सोते समय चाबी ढूँढ कर ताला बन्द करने तक, उनकी अच्छी खासी व्यस्त जिंदगी थी।ढेर सारा शारीरिक कष्ट और मुट्ठी भर मानसिक संतोष के साथ दिन निकलते जा रहे थे।
घर के मुख्य दरवाजे पर लगे बाबूजी के नाम की तख्ती उन्हें आश्वस्त करती थी। घर और बाबूजी, दोनों में कौन ज्यादा अहम थे, कहा नहीं जा सकता। दोनों में फर्क बस इतना था कि कभी-कभी बाबूजी उन्हें बताये बिना कहीं चले जाया करते थे।ऐसे में बाबूजी के लौट आने तक घर की दीवारें, मेन गेट और बरामदे पर रखी कुर्सी, सभी अम्माँ जी की बेचैनी के मूक गवाह हुआ करते थे।कुल मिलाकर बाबूजी वह खूंटी थे जिस पर अम्माजी का अस्तित्व टंगा था।
एक दिन अचानक सुबह-सुबह बाबूजी बिना किसी शोर- सराबे के अनन्त यात्रा पर निकल गए और अम्माजी का घर भी जैसे अपने साथ ही लेते गए।उनकी आख़िरी इच्छानुसार गाँव जाकरपंद्रह दिनों का श्राद्ध कर्म, गहमा-गहमी , बेटों-बहुओं की व्यस्तता , लोगों की आवाजाही और लगातार की भागमभाग के बीच हाहाकार करते हृदय और खामोश होठों के साथ बैठी अम्माँ जी को अपना घर बार- बार याद आता रहा।
एक-एक कर आने वाले सभी लोग अपने - अपने घरों को लौट गए। अम्माँ जी एक जिंदा इंसान से सामूहिक जिम्मेदारी में तब्दील हो चुकी थीं।
बेटों ने अपना फैसला सुना दिया था 'माँ, अब तुम इतने बड़े घर में अकेली नहींं रह सकती। आज कल किसी पर भरोसा नहींं किया जा सकता है।आये दिन अखबार में अकेले रहने वाले वृद्धों के साथ होने वाले हादसों की खबर छपती रहती हैं।"अम्माजी के पास चुपचाप इस फैसले को मान लेने के अतिरिक्त कोई विकल्प न था।
अम्माजी को अपने छोटे बेटे के साथ उसके शहर रहने आना पड़ा।वो जड़ से उखड़ चुके नन्हे पौधे की तरह कुम्हलाने लगीं।बेटे के अत्याधुनिक सुख-सुविधा सम्पन्न, साज-सज्जा वाले फ्लैट में अपने होने का अर्थ तलाशती रहतीं और सुध-बुध खो बैठतीं । नई जगह पर हर काम के लिए बहू पर निर्भरता ने उन्हें लाचार बना दिया था।अपने घर में अंधेरे में भी टटोलकर दियासलाई, मोमबत्ती और बाबूजी की दवाई ढूंढ लेतीं, मानो अंधेरा स्वयं ही प्रकाश बन उन्हें उनकी जरूरत की चीजों के पास ले आता था। यहां तो व्यवस्थित ढंग से रखी चीजें भी उन्हें जैसे दिखती नहींं थी। ऐसा नहींं था कि वो कभी बेटे के पास नहींं रहीं थीं लेकिन हर बार आने से पहले जाने का दिन निश्चित होता और वो बाबूजी का बहाना लेकर चुपचाप अपने घर लौट जाया करतीआजकल उन्हें हर दोपहर अपना बरामदा याद आता, जिस पर लगी चौकी पर बैठे बाबूजी अखबार से ढूँढ़- ढूँढ़ कर आजकल के बेटों का अपने माँ- बाप से दुर्व्यवहार के किस्से सुनाया करते थे।कैसे फलाँ शहर में एक बेटा मां को एयरपोर्ट पर छोड़ कर खुद विदेश चला गया और माँ इंतज़ार करती रह गयी। किसी शहर में किसी बेटे ने वृद्धा माँ को सात दिनों तक घर में बन्द कर दिया और खुद घूमने चला गया।किसी बेटे का माँ - बाप की जायदाद हथिया कर वृद्धाश्रम में छोड़ कर आना।ये सभी खबरें और कहानियाँ अम्माजी को एक काल्पनिक भय और दुख से भर देती थी। दोनों इस पर देर तक चर्चा करते। आखिर में अम्माजी भारी मन और सुस्त कदमों से उठ कर "जो रामजी की मर्जी "कहते हुए रसोई की ओर रुख करतीं और निखालिस दूध की चाय बना कर बाबूजी के साथ बैठ कर घूँट- घूँट पीते हुए रास्ते पर आने जाने वाले लोगों को देखा करतीं मानों जिंदगी के बचे खुचे खुश लम्हों को किफायत के साथ ख़र्च कर रही जाते-जाते बाबूजी अपने साथ अम्माजी की उन जीवंत दुपहरियों को भी ले गए थे। बेटे के घर बंद ए सी कमरे में अकेली खाली बैठी बेचैन हो जाया करतीं अम्माँ जी।ज्यादा समय लगा नहींं उनको बिस्तर से लगते हुए। कोई दवा उन्हें फायदा नहींं करती।अब ऐसी दवा कहाँ से आये जो मन के दुख को समझे और कम करे।
डॉक्टर की सलाह पर सबने सोच कर फैसला किया कि अम्मा को कुछ दिन केलिए उनके पुराने वाले घर ले जाया जाए, शायद कुछ मन बदल जाए।
गेट पर कार के रुकते ही अम्मा जी ने जैसे चौंक कर अपने घर को देखा।बाबूजी के नाम की तख्ती अभी भी अपनी जगह पर लगी थी।अंदर के उमड़ते तूफान को संभालते हुए अम्माजी बरामदे पर लगी चौकी पर बैठ गईं।महीनों से छाती पर हिमखंड सा जमा दुख पिघल-पिघल कर आंखों के रास्ते बाहर आ रहा था। आंसुओं से धुंधलायी दृष्टि से अपने घर के कोने-कोने को निहारते हुए अम्माजी कृतज्ञ थीं। उनका घर अपनी दवाइयों वाली चिरपरिचित गंध के साथ उनकी प्रतीक्षा में वहीं खड़ा था।