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प्रीता अरविन्द

Drama

3  

प्रीता अरविन्द

Drama

बिछोह

बिछोह

5 mins
648

कॉलबेल की आवाज सुनते ही सोनालिका की जैसे जान में जान आयी। वैसे भी सुबह की सबसे मीठी आवाज बाई के आने की घंटी की होती है। दरवाजा खोलते ही निर्देशों की जैसे झड़ी सी लगा दी थी उसने

"सारी सब्जियाँ निकाल कर रख दी हैं। अच्छी तरह साफ करके काटना। आटा मिलाकर बस रख दो।  खुद बनाऊंगी मैं।

और हां गैस पर खीर चढ़ाई हुई है। बीच- बीच मे चलाती रहना। गैस बिल्कुल सिम पर डाला है उससे छेड़छाड़ करने की जरूरत नहीं है। मैं नहाने जा रही हूँ। चाय बनाकर पी लेना। मेरे लिए मत बनाना।

तारामणि चुपचाप सुनती रही और सुस्त कदमों से किचन की तरफ चल दी। तारा को देख कर सोनालिका की सारी सहेलियाँ रश्क किया करतीं

"ये कहाँ से मिल गयी सोना तुम्हें ? न पति का झंझट न बच्चों की चिंता। सारे दिन तेरी सेवा में लगी रहती है। किस्मत हो तो सोना जैसी। एक हमारी मैडम हैं आये दिन बच्चों की बीमारी का बहाना। "

ऊपर से तो सोनालिका कुछ नहीं कहती लेकिन अंदर से चिढ़ जाती। हजार पाँच सौ को पकड़ कर बैठोगी तो यही हाल होगा। वैसे लाखों रुपये जेवर कपड़ों में खर्च करती रहो लेकिन कामवाली सब्जीवाली इन सबसे मोलभाव नहींं किया तो क्या किया।

 इस मामले में विशाल ने उसे पूरी छूट दे रखी थी। अपने घर को वो जैसे चाहे चलाये। इन झंझटों में कभी नहीं पड़ता था।

 बाथरूम की तरफ मुड़ते हुए ध्यान आया कि रोज चपर-चपर करते घर मे घुसने वाली तारा आज इतनी खामोश क्यों है ?वैसे तो विशाल की अनुपस्थिति में उसकी जुबान भी उसके हाथों की तरह तेजी से चलती रहती थी। आस - पड़ोस की चटपटी कहानियाँ उसीके माध्यम से सोनालिका तक पहुँचती थी। हमेशा कहती " आप तो ना दीदी किताब लेकर ही बैठी रहो पता है कि सी ब्लॉक में क्या हुआ ?

आज क्या हुआ जो इतनी चुप चुप सी है। एकबारगी मन मे आया कि जाकर पूछ लें लेकिन घड़ी पर निगाह डालते ही इरादा बदल लिया। पूरे हफ्ते के ऑफिशियल टूर के बाद विशाल आ रहे थे और उसके आने से पहले सोनालिका को बहुत सारे काम निपटाने थे। बालों को शैम्पू करना था सुखाना था। विशाल के पसंद की चीजें बनानी थी और फिर तैयार भी होना था। पूरे हफ़्ते हीरामणि के हाथ का बना खाना खाकर और घर मे अकेले बैठे-बैठे बोर हो चुकी थी। वैसे तो विशाल की मार्केटिंग के जॉब में अक्सर उसे दो -चार-पाँच दिनों के लिए बाहर रहना पड़ता था लेकिन बच्चों में उलझी सोनालिका को उसे मिस करने का ज्यादा वक़्त नहींं मिलता था। विशाल की अनुपस्थिति में बच्चों की दोहरी जिम्मेदारी संभालने होते थे। अब जबकि दोनों बेटे कॉलेज चले गए थे विशाल के जाते ही उसके लौटने का इंतजार शुरू हो जाता।

नहाकर बाहर निकलते ही सामने तारामणि डस्टिंग करती दिखी- सूजी ऑंखें उदास चेहरा अपने मे गुम कहीं खोई सी।

"क्या बात है तारा ?चेहरा क्यों उतरा हुआ है ?

तबीयत तो ठीक है ? सुनते ही आँखों में सयत्न बाँधे हुए आंसू अनियंत्रित हो गए।

"दीदी जॉन की तबीयत बहुत खराब है। कल सुबह ही गाँव वापस आया है। रात को फ़ोन किया था आने को बोल रहा था। माई से उसकी देखभाल नहीं हो पा रही है। फिर डॉक्टर दवाई ये सब माई कैसे कर पायेगी।

सोनालिका से कुछ बोलते नहीं बना। चुपचाप कमरे में चली आयी। सोचती रही न पूछती तो ही अच्छा था। पूछ कर खामखाह की मुसीबत मोल ले ली। कामवाली बाई को छुट्टी देने का प्रश्न इतना टेढ़ा है कि दुनिया की सबसे सहृदय महिला भी विचित्र व्यवहार करने लगती है। एक तरफ उसका कोमल स्त्री मन तारा को लंबे अंतराल के बाद घर आये बीमार पति से मिलने जाने की छुट्टी देना चाहता था और दूसरी तरफ स्वार्थ से भरा दुनियादार मन तारा की निजी समस्याओं को इग्नोर करने की सलाह दे रहा था।

बुरी तरह झुंझला उठी थी" यही चोंचले हैं इन लोगों के पैसे भी चाहिए और छुट्टी भी। "

तारामणि का पति केरल के किसी पोर्ट पर मजदूरी किया करता था। साल में एक दो बार घर आया करता। दोनों बच्चे चर्च से जुड़े स्कूल के हॉस्टल में रहते थे। उनकी फीस और तमाम ख़र्चों के लिए दोनों का काम करना जरूरी था इसलिए पहले से शहर में काम कर रही उसकी बहनों ने तारा को भी यहाँं बुला लिया था।

 "दीदी साहब आज आ रहें हैं क्या ?"

आँखों मे काजल लगाते हुए सोनालिका हाँ कहते कहते रुक सी गयी। आईने से झांकती उसकी मोटी मोटी आँखों मे बहुत से प्रश्न तैर रहे थे।

 "हाँ क्यों नहीं बोल सकी" इतने दिनों बाद आये पति से मिलने जाने के लिए अगर बीमारी का झूठा बहाना भी कर रही है तो क्या गुनाह कर रही है ?"

 न जाने क्यों सोनालिका अपराधिनी सा महसूस कर रही थी। बस सात दिनों के बिछोह के बाद आज विशाल के आने में वो मिनट -मिनट का हिसाब रख रही थी। ईश्वर ना करे कभी

विशाल की तबियत खराब हो और वह उस तक न पहुँच पाए तो ? कल्पना करके ही सिहर उठी थी।

 व्हाट्सएप पर आए विशाल के मैसेज ने विचारों की श्रृंखला भंग कर दी थी।

  पहुँच रहा हूँ पाँच मिनट में। 5 बजे का टिकट ले लिया है "मंगलयान" मूवी का।

 दरवाजे की घंटी सुनकर दौड़ कर जाना चाहती थी लेकिन तारा को देख कर कह उठी

"देख लगता है साहब आ गए। जाकर दरवाजा खोल।

"आप ही जाओ न दीदी" कहते हुए तारा किचन में चली गयी थी। दरवाजा खोलते ही घर का मौसम बदल चुका था। विशाल सामने खड़ा था मुस्कुराता।

 अभी किचन की तरफ मुड़ती कि विशाल ने पकड़ कर बैठा लिया अपने पास। कितनी तो बातें थीं जो बताना चाहता था।

"चाय बनाकर लाऊं दीदी।

नहींं तू रहने दे में कर लूँगी। "

और सुनो ये लो पैसे और जाकर जॉन को मिल लो। किसी डॉक्टर से दिखा देना। अगर एक दो दिन में ठीक नहींं हुआ तो साथ ले आना। साहब बड़े डॉक्टर से दिखा देंगे।

 तारामणि की आँखें फिर से बरसने लगी थी।

"अब क्यों रो रही है पागल" ठीक हो जाएगा जल्दी। "

दरवाजा बंद करते ही विशाल ने बड़े ही रोमांटिक अंदाज में सोनालिका को देखते हुए कहा

"क्या बात है सोनू सबको छुट्टी दी जा रही है। पूरा मैदान साफ है अब ऐसे में "बर्तन तुम्हें ही धोने होंगे,

सोनालिका ने हँसते हुए बात पूरी कर दी थी। घर दोनों की सम्मिलित हँसी में डूब गया था।


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