गाँव - 1.9

गाँव - 1.9

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“कैसी उकताहट है!” तीखन इल्यिच ने सोचा और तैश में आकर घास का गट्ठर घसीटकर लाते हुए बूढ़े पर गुर्राया :

“क्या कीचड़ में घसीटेग,बुड्ढे खूसट?”

बूढ़े ने गट्ठर ज़मीन पर फेंक दिया, उसकी ओर देखा और अचानक बड़े इत्मीनान से बोला :

“बुड्ढे खूसट की बात सुन रहा हूँ!”

तीखन इल्यिच ने फ़ौरन इधर-उधर देखा , नौजवान बाहर निकल गया या नहीं, और यह यकीन कर लेने के बाद कि वह बाहर निकल गया है, तुरन्त और उतने ही इत्मीनान से बुड्ढे के पास गया, उसके दाँतों पर घूसा जमाया, ऐसे कि उसका सिर झनझना गया, उसे गरेबान से पकड़ा और पूरी ताकत से दरवाज़े की ओर धकेल दिया.

“दफ़ा हो जा!” हाँफ़ते हखड़िया की तरह सफ़ेद हो गया तीखन इल्यिच चीखा –“तेरी रूह की भी कभी बू न आए यहां फटीचर कहीं का!”

बूढ़ा दरवाज़े से भाग गया और पाँच मिनट बाद कन्धे पर थैला लटकाए हाथ में लाठी पकड़े, मुख्य मार्ग पर चलता नज़र आया, घर की ओर. तीखन इल्यिच ने थरथराते हाथों से घोड़े के बच्चे को पानी पिलाया, ताज़ा जई खिलाई, - कल की ज़ई को तो उसने बस मुँह लगाया और लार से गीला किया था और लम्बे-लम्बे कदम रखता हुआ, गोबर और कीचड़ में छप-छप करता हुआ झोंपड़े में गया.

“हो गया क्या?” दरवाज़ा खोलते हुए वह चीखा.

“अभी हुआ जाता है,” रसोइन गुर्रायी.

झोंपड़ा गर्म,सादी भाप से भर गया, जो आलुओं की नाँद से निकल रही थी. रसोइन नौजवान के साथ तैश से आटा मिलाते हुए मूसल से उन्हें कूट रही थी, और इस खटखट के कारण तीखन इल्यिच ने जवाब नहीं सुना. दरवाज़ा बन्द करके वह चाय पीने चला गय.

छोटे-से प्रवेश-कक्ष में उसने देहलीज़ के पास पड़े हुए गन्दे,भारी, घोड़े की पीठ पर डालने वाले कपड़े को ठोकर मारी और कोने की ओर चला जहाँ टीन का तसला रखे एक छोटे-से स्टूल के ऊपर ताँबे का बेसिन ठोंका गया था और छोटी-सी शेल्फ में घिसा हुआ नारियल का साबुन रखा था. बेसिन को खड़खड़ाते हुए उसने मुँह टेढ़ा किया, भौंहे नचाईं, नथुने फुफ़कारे, दुष्ट, नाचती हुई आँखों पर काबू न रख सका और ख़ास तरह से ज़ोर देते हुए बोला:

“ऐसे हैं मज़दूर! उससे एक लफ़्ज कहो, वह तुम्हें दस सुनाएगा! नहीं, बकवास करता है! हो सकता है, गर्मियों में कहीं तेरे जैसे शैतान बहुत मिल जाएँगे, ज़रूर मिल जाएँगे! सर्दियों में तो, भाई मेरे, पेट में ठूँसने का मन होगा, वापस आएगा, सुअर का बच्चा, आएSSगा, सिर झुकाSSSSगा!”

तौलिया सन्त मिखाइलोव-दिवस से ही बेसिन से टँगा था. वह इतना गन्दा था कि तीखन इल्यिच ने उसे देखकर जबड़े भींच लिए.

“उफ़!” उसने आँखें बन्द करके सिर हिलाते हुए क, “उफ़, ख़ुदा की माँ!”

प्रवेश-कक्ष से दो दरवाज़े निकलते थे. एक दायीं ओर, आगन्तुकों के लम्बे, अँधियारे कमरे में, जिसकी खिड़कियाँ अहाते में खुलती थीं; इसमें दो बड़े सोफ़े , पत्थर की तरह सख़्त, काले मोमजामे से ढँके हुए, ज़िन्दा और दब चुके चीपड़ खटमलों से भरे हुुुए, और खिड़कियों के बीच की दीवार पर बने-ठने, झबरीले, घने गलमुच्छों वाले जनरल की तस्वीर थी, तस्वीर के किनारों पर रूसी-तुर्की युद्ध के वीरों की छोटी-छोटी तस्वीरें थीं, और नीचे लिखा था, “लम्बे अर्से तक हमारे बच्चे और स्लाव भाई-बन्द उन महान कार्यों को याद करते रहेंगे, कैसे हमारे पिता, बहादुर योद्धा ने सुलेमान पाशा को हराया, धोखेबाज़ दुश्मनों को जीता और अपने बच्चों के साथ ऐसे दुर्गम रास्तों पर गयाा, जहाँ सिर्फ कोहरा और पंछियों का राजा ही जा सकता हैं.”

दूसरा दरवाज़ा मालिकों के कमरे में जाता था. वहाँ बायें,दरवाज़े के पास काँचवाली बर्तनों की अलमारी थी, दाहिनी ओर थी सफ़ेद भट्ठी,जिसके ऊपरी हिस्से में सोने की जगह थी, भट्ठी कभी चटक गई थी, उसे सफ़ेद मिट्टी से भर दिया गया था और इससे किसी लंगड़े-लूले, कमज़ोर आदमी का डिज़ाइन बन गया था, जिससे तीखन इल्यिच को सख़्त नफ़रत थी. भट्ठी के पीछे दो व्यक्तियों वाला, ऊँचा पलंग था, पलंग के ऊपर ठोंका गया था धुँधले हरे और लाल रंग से बना गालीचा, जिस पर मूँछवाले, बिल्लियों जैसे बाहर निकले कानों वाले शेर की तस्वीर थी. दरवाज़े के सामने, दीवार के पास, बुने हुए मेज़पोश से ढँकी छोटी-सी अलमारी थी, उस पर नस्तास्या पित्रोव्ना की शादी की सन्दूकची थी...

“दुकान पे!” दरवाज़ा थोड़ा-सा खोलकर रसोइन चिल्लाई.

दूर पनीला कोहरा तैर रहा , फिर से धुँधलके जैसा प्रतीत होने लगा, बारिश हो रही थी, मगर हवा ने रुख बदल दिया था, उत्तर से चल रही थी – और ताज़ी हो गई थी. स्टेशन पर जाती हुई मालगाड़ी पिछले दिनों की अपेक्षा और अधिक ख़ुशी और खनखनाहट से चीख़ रही थी.

“नमस्ते, इल्यिच,” गीली रोएँदार मंचूरियन टोपी झुकाते हुए, ड्योढ़ी के पास भीगा घोड़ा पकडे फटे होंठ वाले किसान ने कहा.

“नमस्ते,” तीखन इल्यिच ने सिर हिलाया, तिरछी नज़रों से सफ़ेद मज़बूत दाँत की ओर देखते , जो किसान के फटे होंठ के पीछे से चमक रहा था. “क्या चाहिए?”

और जल्दी से नमक और केरोसिन देकर फ़ौरन कमरे में लौट आया.

“माथे पर सलीब का निशान भी नहीं बनाने देते, कुत्ते!” चलते-चलते वह बड़बड़ाया.

खिड़कियों के बीच की दीवार के पास रखा हुआ समोवार गरज रहा ,खदखदा रहा था, मेज़ के ऊपर टँगा हुआ आईना सफ़ेद भाप से ढँक गया था. खिड़कियों और आईनों के नीचे बनी डिज़ाइन – एक भीमकाय पुरुष पीला कफ़्तान और चमड़े के लाल जूत, हाथों में रूसी डंण्डा लिए था, जिसके पीछे मॉस्को का क्रेमलिन अपने बुर्ज़ों और गुम्बदों से देख रहा था – पसीने में नहा गई थी. इस चित्र को घेरे हुए थीं सींपियों की चौखटों से जड़ी तस्वीरें. सबसे महत्वपूर्ण स्थान पर था सुप्रसिद्ध पादरी का फोटो, छितरी दाढ़ी, फूले गाल और छोटी-छोटी भेदक आँखें, बढ़िया रेशमी,लम्बा, तंग कुर्ता पहने हुए. उसकी ओर देखकर तीखन इल्यिच ने सच्चे दिल से कोने में रखे देवचित्र की ओर देखते हुए सलीब का निशान बनाया. फिर काली हो चुकी केतली समोवार से उतारी, एक गिलास में कड़क ख़ुशबू वाली चाय की पत्तियाँ डालीं.

“माथे पर सलीब का निशान नहीं बनाने देते,” उसने पीड़ा से माथे पर बल डालते हुए सोचा. “मारे डाल रहे है, उनका सत्यानाश हो!”

ऐसा लगा, मानो कुछ याद करना, किसी चीज़ की कल्पना करना या सिर्फ यूँ ही लेटकर सो जाना ज़रूरी थी. गर्माहट, सुकून, विचारों की स्पष्टता और दृढ़ता की चाहत महसूस हुई. वह उठा, अलमारी के पास गया, जो काँच और बर्तनों समेत खनखना रही थी, शेल्फ से रसभरी की बोतल निकाली, गोल-सा गिलास निकाला, जिस पर लिखा था, “इसे पादरी भी पीते हैं...”

“ओय, ज़रूरत नहीं है!”उसने ज़ोर से कहा.

और शराब डाली और पी गया, और डाली, और पी गया. और मोटी क्रेण्डेल खाते हुए मेज़ पर बैठ गया.

वह बड़े लालच के साथ तश्तरी से गर्म चाय पी रहा , जीभ पर शक्कर का टुकड़ा रखकर चूस रहा था. चाय पीते हुए वह अनमने भाव से,शक्की और तिरछी नज़रों से खिड़कियों के बीच की दीवार , पीले कफ़्तान वाले आदमी, सींपी की फ्रेमों वाली तस्वीरों और रेशमी पोशाक वाले पादरी की ओर देख रहा था.

“धलम-कलम हम जैसे सुअरों की चीज़ नहीं है!” उसने सोचा और न जाने किसके सामने सफ़ाई देते हुए गँवारू ढंग से बोला, “गाँव में आकर रहो और गोभी का सूप खाओ!”

पादरी की ओर देखते हुए उसे महसूस हुआ कि अब सन्देहास्पद है...शायद, ऐसा लगता है, कि इस पादरी के प्रति उसका हमेशा का आदर-भाव भी सन्देहास्पद और बेसोचा-समझा है. अगर अच्छी तरह से सोचा जाए...मगर तभी उसने फ़ौरन मॉस्को के क्रेमलिन पर नज़र जमा दी.

“कहते हुए शर्म आती ,” वह बड़बड़ाया,एक भी बार मॉस्को नहीं गया!”

हाँ, नहीं गया. मगर क्यों? सुअर इजाज़त नहीं देते! कभी कारोबार ने छुट्टी नहीं दी, कभी सराय ने, तो कभी शराब ने. अब तो घोड़े और सुअर नहीं जाने देते. वाह,क्या बात है – मॉस्को! बर्च के वन में भी, जो मुख्यमार्ग के पीछे ही है, बेकार ही में वह जाने की तैयारी कर रहा था. उम्मीद थी कि किसी तरह ख़ाली शाम लपक लेगा, अपने साथ कालीन, समोवार ले जाएगा, घास में बैठेगा, ठण्डक में, हरियाली में – मगर किसी तरह न लपक सका...दिन यूँ फिसल रहे हैं, जैसे उँगलियों के बीच से पानी, संभल ही नहीं सका – पचास पूरे हो गए, देखते-देखते सब चीज़ें ख़त्म हो जाएँगीऔर अभी हाल ही की तो बात लगती है, जब वह बगैर पतलून के घूमता था. जैसे कल की ही बात हो!

सींपियों वाली फ्रेम से चेहरे निश्चलता से देख रहे थे. ये यहाँ फ़र्श पर (घनी रई के बीच) दो लोग लेटे हैं – स्वयम् तीखन इल्यिच और नौजवान व्यापारी रस्तोव्त्सेव – हाथों में काली बिअर से आधे भरे गिलास पकड़े हुए...कैसी दोस्ती थी तीखन इल्यिच और रस्तोव्त्सेव के बीच! कितना याद आया था वह मास्लेन्नित्सा का दिन, जब फ़ोटो खिंचवाया था. मगर यह कौन से साल में हुआ था? कहाँ गायब हो गया है रस्तोव्त्सेव? अब तो भरोसा भी नहीं रहा कि वह ज़िन्दा है या मर गया...और ये, आगे निकलकर एक कतार में, बुत बने खड़े हैं तीन छोटे व्यापारी, सीधी चिपकी हुई माँग निकाले, खड़ी कॉलर का कढ़ा हुआ कुर्ता पहने, लम्बे फ्रॉक-कोट पहने, चमचमाते जूतों में – बूच्नेव, विस्ताव्किन और बगामोलव. विस्ताव्किन वह है, जो बीच में है, अपने सीने के सामने, पंछियों की डिज़ाइन काढ़े गए रूमाल से ढँकी हुई लकड़ी की तश्तरी में नमक-रोटी पकड़े है; बूच्नेव और बगामोलव के हाथों में एक-एक देव-चित्र है. यह फ़ोटो लिया गया था उस दिन जब तेज़ हवा और धूल उड़ रही थी जब एलिवेटर का उद्घाटन हो रहा था, जब आए थे बड़े पादरी और गवर्नर,जब तीखन इल्यिच इसलिए बहुत गर्व का अनुभव कर रहा था कि वह उन लोगों में शामिल था, जो अफ़सरों का स्वागत कर रहे थे. मगर उस दिन के बारे में अब कितना याद रहा ह? सिर्फ इतना ही, कि एलिवेटर के निकट करीब पाँच घण्टे तक इंतज़ार किया था, कि सफ़ेद धूल के बादल हवा के साथ उड़ रहे , कि गवर्नर ऊँचा और साफ़-सुथरा, मुर्दे जैसा, सुनहरी सिलाई वाली सफ़ेद पतलून, सुनहरा कोट और तिकोना टोप पहने, प्रतिनिधिमण्ड्ल के पास असाधारण रूप से धीरे-धीरे चलकर आया...कि बड़ा डरावना लगा जब उसने नमक-रोटी स्वीकार करते हुए बातें कीं, कि उसके असाधारण रूप से सफ़ेद हाथों और उनकी चमड़ी , जो साँप की केंचुल जैसी पतली और चमकीली थी, पारदर्शक, लम्बे नाखूनों वाली सूखी, पतली उँगलियों में चमचमाती हीरों की और दूसरी अँगूठियों ने सबको चौंका दिया...अब वह गवर्नर तो जीवित नहीं है, और न ही ज़िन्दा है विस्ताव्किन...और करीब पाँच दस सालों बाद इसी तरह लोग बातें करेंगे तीखन इल्यिच के बारे में :

“स्वर्गीय तीखन इल्यिच…”

जल रही भट्ठी के कारण कमरे में कुछ अधिक गर्माहट और आरामदेही हो गई, आईना साफ़ हो गया, मगर खिड़कियों के पीछे कुछ भी नज़र नहीं आ रहा , शीशे धुँधली भाप के कारण सफ़ेद दिखाई दे रहे थे – मतलब,आँगन में ठण्ड हो रही है. भूखे सुअरों की रिरियाती कराहें अधिकाधिक स्पष्ट सुनाई दे रही थीं, और अचानक कराहें दोस्ताना और शक्तिशाली गरज में बदल गईं. ज़ाहिर है, सुअरों ने रसोइन की और ओस्का की आवाज़ें सुन ली थीं, जो आलू और आटे के लगदे से भरी भारी नाँद घसीटते हुए ला रहे थे. मृत्यु के बारे में विचारों को समाप्त न करते हुए तीखन इल्यिच ने सिगरेट तसले में गिरा दी, कोट खींचा और मवेशीखाने की ओर लपका. गोबर में छप-छप करते हुए लम्बे और गहरे डग भरते हुए उसने स्वयम् ही बाड़े को खोला – और बड़ी देर तक ललचाई और पीड़ाभरी नज़रों से सुअरों को देखता, जो नाँद की ओर लपके जा रहे थे, जिसमें गर्म-गर्म आलुओं का लगदा उँडेला जा रहा था।




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