एक वो और एक यह
एक वो और एक यह
बस दुःख इस बात का है कि दुःख संसार का देखा नहीं जाता, शायद भगवान ने जन्म इस गलत दुनिया में दे दिया, बचपन में सोचता था कि जल्दी से बड़ा हो जाऊँ और भगवान ने सुन ली और हो गया पर अब आज बड़ा हूं तो सोचता हूं बचपन मिल जाए भगवान से रोज रो रो कर गुहार लगाता हूं पर भगवान सुनता ही नहीं हैं, हां ख़ुश होने कि कोशिश करता हूं कि बहुत कुछ तो मिला हैं , आज मेरे पास सब कुछ है , धन दौलत और मैंने सभी वी.आई.पी फैसिलिटीज का अनुभव लिया पर मुझे दिल से खुशी शायद कहीं नहीं मिलीं इसलिए जो मैंने खोया हैं उसे ज्यादा तो नहीं मिला ना , मुझे लोग कहते हैं कि आप इतना माडर्न हो फिर भी माडर्न बनकर क्यों नहीं रहते ? बस मैं हूं, बस दुःख इस बात भी है कि मैं देशी बनकर रहता हूं फिर भी देशी बन नहीं पाता, शायद यह तो विडम्बना ही है समय की, क्योंकि आजकल तो गांव भी शहरों कि चपेट में हैं, मैं इसलिए भी ज्यादा चिंतित रहता हूं कि मेरी मिट्टी भी रोती, उसका भी तो शोषण हो रहा है जो यह वेस्टर्नाइजेशन के क्रुर मानव अपनी लालसा के लिए मेरी मिट्टी पर यूरिया जैसे ज़हर डालता हैं, और अगर रही बात मित्रता की तो उस समय उसमें भी कोई स्वार्थ न था , कमबख़्त पता ही नहीं था कि स्वार्थ होता क्या है, बस होती थी तो छोटी मोटी नोक झोक, पल भर की कट्टी , और दूसरे दिन भूल जाना, पता ही नहीं था कि भविष्य नाम से भी कुछ होता है, वैसे क्या ही करना था हमें जानकार हम तो समझते थे कि हमें तो प्रकृति के ही आंचल में रहना है, हां आज धागे सड़कों पर बिखरे रहते हैं, और संक्रांति पर बे जुबान पक्षियों को धागों से काटा जाता हैं, किंतु हम तो धागों के टुकड़ों को इकट्ठा कर डंठल बनाते थे और पतंग उड़ाते थे, बड़ा मज़ा आता था जब पतंग टूटतीं थी, हम पीछे और पतंग आगे जब तक पकड़ते नहीं थे मानते नहीं थे, क्योंकि वही तो लक्ष्य था ,पर शायद ग़लत समझता था क्योंकि अब लक्ष्य का अर्थ अलग है पर जो भी हो जो उस लक्ष्य में मज़ा आता था वो इस तो बिल्कुल नहीं क्योंकि यह अस्तित्व और अस्मिता का लक्ष्य है, माना जाता है कि इसके बिना इस शहरीकरण और अनैतिक माडर्नाइजेशन में जीना मुश्किल है, पर वो लक्ष्य तो आनंद का था , होली के रंगों में भी तो आजकल बहुत विषमता है ना, पहले दो रुपए के रंग से दोसो कमा लेते थे पर आज भी अजीब है ना दोसो का गुलाल लेकर दो पैसे भी नहीं कमा पाते, शायद उस गुलाल में गहरा प्रेम का रंग था वैसे वो होली भी तो खुशबू और एकता व आनंद की होती थी गांवों में वो संस्कृति नृत्य तथा औरतों द्वारा अश्लील देशी गीत पर ,नहीं अश्लील का अर्थ आज के नजरिए से मत देखो, उस समय तो मधुर सी संस्कृति थी जैसे वृन्दावन, हां! याद आया आजकल तो वृन्दावन में भी 'वन' कहां है? और नहीं वृन्द हैं, आजकल तो शहरों के बच्चों को बीस साल तक तो मां बाप ढंग से बोलना सिखाते हैं, और हम तो एक साल के अन्दर ही अपनी मिट्टी को अपने शरीर पर लेप लिया था, वहीं भोजन था , और मिट्टी ही शायद सबसे अच्छा बिस्तर थी बार बार लोटते थे, नहीं जी हम तो पक्के चोर भी हुआ करते थे, घर से पैसे चुराना और सामान बेचना तो हमारा पेशा था, जनाब पता न था ना अपना और पराया क्या होता है, और देखो आज कितना समझदार हो गए हैं, ये भी मेरा वो भी मेरा करते हैं, पहले सौ रुपए चुराने पर अपने आपको करोड़पति समझते थे आज जब हज़ार दे दिए गए अब वो सौ कैसे चुराएं? पता है मुझे गांव क्यों पसंद है जबकि मैं बड़ा होकर शहरों में ज्यादा रहा हूं ऐसा इसलिए क्योंकि जो अकेलापन हैं उसकी नदी शहरों से आती हैं, थोड़ा सा ही सही पर गांवों में तो आज भी अकेलापन महसूस शायद नहीं होता जितना कि शहरों में ,शहर हमें हर बहारी सुविधाएं तो उपलब्ध करा सकते हैं किन्तु दिल कि आंतरिक सुरक्षा और शांति नहीं। वैसे गांवों की भी बात करें तो, पेले शायद लोगों में तमीज नहीं थी साथ साथ गांवों में झुंड में बैठना, बिन बुलाए मेहमान कि तरह घरों में घुस जाना ,आज पता चला कि पागल थे क्योंकि समझदारी तो अब हैं कोई किसी से मिलना ही नहीं चाहता और क्या ही बताएं शहरों का तो आस पास कौन रहता है कौन जाने क्या पता, पर भले ही वो पागल थे पर दुःख में साथ जरूर देते माना गांवों के वो लोग करोड़ पती तो न थे किन्तु दुःख में प्यार और सांत्वना ज़रूर देते थे और सम्मान भी शायद ही कोई अकेला तनहा, दुःख और डिप्रेशन में मरता था, पर आज तो डिप्रेशन तो घर घर की कहानी है, आज कितने ही सक्षम हो जाए, उस दौर की बराबरी शाय़द ही कभी होगी, हर रंगों, त्योहारों में आत्मियता और गहराइयां थी, बंधुत्व, सहिष्णुता, प्रेमतत्व, लोकनाट्य लौकिकता व इलोकिकता का सामंजस्य व समन्वय, सहजता, सौंदर्य, प्रकृति, आनंद, अपनत्व, परहितकारिता जो उस समय थी वो अद्भुत थी , और चलो देखते हैं यह जो संस्कारों से भरा तालाब हैं कब तक टूटता है, और जो कहते हैं कि परिवार के संस्कार है वो भी देखते हैं कि कब तक आपके पारिवारिक संस्कार माडर्नाइजेशन और शहरीकरण की बाजारों में नंगे बिकते हैं या नहीं ।
✍🏻 Author ✍🏻
K. Yuvraj Singh Rathore
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