द्वंद्व युद्ध - 22.1

द्वंद्व युद्ध - 22.1

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अपने घर के पास आते हुए रमाशोव ने अचरज से देखा कि उसके कमरे की छोटी खिड़की में गर्मियों की रात के गर्माहट भरे अंधेरे के बीच, मुश्किल से दिखाई दे रही लौ फड़फड़ा रही है। ‘इसका क्या मतलब है ?’ उसने उत्तेजनापूर्वक सोचा और अनचाहे अपनी चाल तेज़ कर दी। ‘हो सकता है, मेरे गवाह लौटे हैं द्वन्द्व-युद्ध की शर्तें निश्चित करके ?’ ड्योढ़ी में वह गैनान से टकरा गया; उसे देखा नहीं, डर गया; थरथर काँपने लगा और गुस्से से चिल्लाया, “क्या शैतानियत है ! ये तू है, गैनान ? वहाँ कौन है ?”

अंधेरे के बावजूद वह महसूस कर रहा था कि गैनान, अपनी आदत के मुताबिक, एक ही जगह पर नाच रहा था।

“तुम्हारे लिए मालकिन आई है, बैठी है।”

रमाशोव ने दरवाज़ा खोला। लैम्प का कैरोसीन कब का ख़त्म हो चुका था, और अब, चटचटाते हुए, वह आख़िरी लपटें फेंक रहा था। पलंग पर किसी औरत की निश्चल आकृति बैठी थी, जो आधे अँधेरे में अस्पष्टता से दिखाई दे रही थी।

“शूरच्का !” रमाशोव ने गहरी साँस लेते हुए कहा और, न जाने क्यों, पंजों के बल सावधानी से पलंग की ओर आया। “शूरच्का, ये आप हैं ?”

“धीरे; बैठिए,” उसने जल्दी से, फुसफुसाहट से जवाब दिया। “लैम्प बुझा दीजिए।”

उसने काँच में ऊपर से फूँक मारी। भयभीत नीली लौ मर गई, और फ़ौरन कमरे में अँधेरा और ख़ामोशी छा गए; और उसी समय शीघ्रता से और ज़ोर से मेज़ पर रखी हुई अलार्मघड़ी बज उठी, जिस पर अब तक किसी की ध्यान नहीं गया था। रमाशोव अलेक्सान्द्रा पेत्रोव्ना की बगल में बैठ गया – झुक कर, और उसकी ओर न देखते हुए। भय का, परेशानी का, दिल में एक जम जाने का अजीब एहसास उस पर हावी हो गया, जो उसके बोलने में बाधा डाल रहा था।।

“तुम्हारे यहाँ, बगल में कौन है, इस दीवार के पीछे ?” शूरच्का ने पूछा, “वहाँ सुनाई देता है ?”

“नहीं, वहाँ ख़ाली कमरा है, पुराना फर्नीचर, मालिक – बढ़ई है। ज़ोर से बोल सकते हैं।”

मगर फिर भी वे दोनों फुसफुसाकर ही बोलते रहे, और इन ख़ामोश, टूटे-टूटे शब्दों में, बोझिल, घने अँधेरे के बीच काफ़ी कुछ डरावना सा, सकुचाहटभरा और रहस्यमय ढंग से छिपा हुआ सा था। वे लगभग एक दूसरे से सटे हुए बैठे थे। रमाशोव के कानों में ख़ून नि:शब्दता से हिलोरें मार रहा था।

“क्यों, आपने ऐसा क्यों किया ?” अचानक वह हौले से मगर उदासीनतापूर्ण भर्त्सना से बोली।

उसने उसके घुटने पर अपना हाथ रखा। रमाशोव ने अपने वस्त्रों से होते हुए उसकी सजीव, तनावपूर्ण गर्माहट का अनुभव किया; और गहरी साँस लेकर आँखें सिकोड़ लीं। मगर इससे अँधेरा गहराया नहीं, बस आँखों के सामने तैरने लगे परीलोक के तालाबों जैसे नीली चमक से घिरे हुए वक्राकार घेरे।

“याद है, मैंने आपसे विनती की थी कि उसके साथ संयम बरतना। नहीं, नहीं; मैं उलाहना नहीं दे रही हूँ। आपने जानबूझकर झगड़े की वजह पैदा नहीं की – मुझे ये बात मालूम है। मगर उस समय, जब आपके भीतर जंगली जानवर जाग उठा, क्या एक मिनट के लिए भी आप मुझे याद करके रुक नहीं सकते थे ? आपने मुझसे कभी प्यार ही नहीं किया !”

‘मैं आपसे प्यार करता हूँ,” हौले से रमाशोव ने कहा और हौले से सकुचाहटभरी, थरथराती उँगलियों से उसका हाथ छू लिया।

शूरच्का ने उसे छुड़ा लिया, मगर फ़ौरन नहीं, धीरे धीरे, जैसे कि उस पर तरस खा रही हो और उसे अपमानित करने से डर रही हो।

“हाँ, मुझे मालूम है कि न तो आपने, न ही उसने मेरा नाम लिया, मगर आपका शिष्टतापूर्ण व्यवहार बेकार गया: शहर में तो अफ़वाह फैल ही रही है।”

“माफ़ कीजिए, मुझे अपने आप पर काबू न रहा।।।ईर्ष्या ने मुझे अंधा कर दिया था,” मुश्किल से रमाशोव कह पाया।

वह कटुता से देर तक हँसती रही।

“ईर्ष्या ? कहीं आप ये तो नहीं सोच रहे हैं कि मेरा पति इतना उदार दिल वाला है कि आप से हाथापाई होने के बाद उसने स्वयँ को मुझे यह बताने की ख़ुशी से महरूम रखा होगा कि आप कहाँ से मेस में आए थे ? उसने नज़ान्स्की के बारे में भी मुझे बताया।”

“माफ़ कीजिए,” रमाशोव ने दुहराया, “मैंने वहाँ कोई बेहूदगी नहीं की। माफ़ कीजिए।”

वह अचानक ज़ोर से, निर्णयात्मक और संजीदा फुसफुसाहट से बोल पड़ी, “ सुनिए, गिओर्गी अलेक्सेयेविच, मेरे लिए हर पल क़ीमती है। मैं घंटे भर से आपका इंतज़ार भी कर रही हूँ। इसलिए संक्षेप में, और केवल काम के बारे में बातें करेंगे। आप जानते हैं कि वोलोद्या की मेरी ज़िन्दगी में क्या जगह है। मैं उसे प्यार नहीं करती, मगर उस पर मैंने अपनी रूह का एक हिस्सा निछावर कर दिया है। मेरे पास अधिक आत्मसम्मान है उसके मुक़ाबले में। दो बार वह अकादमी की प्रवेश परीक्षा में फेल हो गया। इससे मुझे उससे कहीं ज़्यादा दुख पहुँचा है, अपमान का अनुभव हुआ है। जनरल-स्टाफ़ का ये पूरा ख़याल सिर्फ मेरा है; मेरे अकेले का। मैंने अपने पति को पूरी ताक़त से इसमें घसीटा; उसे उकसाती रही; उसके साथ साथ रटती रही, दुहराती रही, उसके आत्मसम्मान को कसती रही। ये – मेरा अपना, सर्वाधिक प्रिय उद्देश्य है; मेरी कमज़ोरी है। अपने दिल की इस ख़्वाहिश को मैं निकाल कर फेंक नहीं सकती। चाहे कुछ भी क्यों न हो जाए; मगर वह अकादमी में प्रवेश ज़रूर पाएगा।”

रमाशोव हथेली पर सिर टिकाए झुक कर बैठा था। उसे अचानक महसूस हुआ कि शूरच्का ख़ामोशी से, धीरे धीरे उसके बालों पर हाथ फेर रही है। उसने विषादयुक्त अविश्वास से पूछा: “मैं क्या कर सकता हूँ ?”

उसने गले में बाँहें डालकर उसका आलिंगन किया और प्यार से उसका सिर अपने सीने पर रख लिया। उसने चोली नहीं पहनी थी। रमाशोव अपने गाल से उसके शरीर की लोच को महसूस करता रहा और उसकी गर्म, तीखी, मीठी मीठी ख़ुशबू को सूँघता रहा। जब वह बोलती तो अपने बालों पर वह उसकी रुकी रुकी साँस महसूस करता।

“तुम्हें याद है, तब शाम को पिकनिक पर, मैंने तुम्हें पूरा सच बताया था। मैं उसे प्यार नहीं करती। मगर सोचो: तीन साल, पूरे तीन साल उम्मीद से भरे, कल्पना से भरे, जीवन की योजनाओं से भरपूर; और ऐसा घृणित काम ! तुम्हें तो मालूम है कि मुझे बेहद नफ़रत है भिखमंगे अफ़सरों के इस तंग दिमाग़, फूहड़, नीच समाज से। मुझे हमेशा बढ़िया कपड़े पहने; ख़ूबसूरत, सलीकापसन्द होना अच्छा लगता है; मैं चाहती हूँ लोगों के झुक झुक कर किए गए सलाम, सत्ता ! और अचानक – भद्दी, नशे में धुत होकर की गई मारपीट, अफ़सरों का स्कैण्डल; और सब ख़त्म, सब धूल में मिल गया ! ओह, कितना भयानक है ये ! मैं कभी भी माँ नहीं बनी, मगर मैं कल्पना करती हूँ: मेरा बच्चा बड़ा होगा – प्यारा, दुलारा; उस पर सारी उम्मीदें हैं, उसके लिए दी गई हैं चिंताएँ, आँसू, जागती रातें।।।और अचानक – फूहड़पन, एक घटना, जंगली, प्राकृतिक घटना: वह खिड़की में बैठा खेल रहा है; दाई पलटती है; वह नीचे गिरता है, पत्थरों पर। मेरे प्यारे, सिर्फ इसी मातृत्व की बदहवासी से मैं तुलना कर सकती हूँ अपने दुर्भाग्य की और कटुता की। मगर मैं तुम्हें दोष नहीं देती।”

झुककर बैठना रमाशोव को असुविधाजनक लग रहा था, और उसे डर लग रहा था कि शूरच्का को भार न महसूस हो। मगर वह ख़ुश था इसी तरह घंटों बैठने और एक विचित्र, उमस भरे नशे में उसके छोटे से दिल की धड़कनें सुनने में।

“तुम मेरी बात सुन रहे हो ?” उसने उसकी ओर झुकते हुए पूछा।

“हाँ, हाँ बोलो, अगर मेरे बस में हो तो मैं वह सब करूँगा जो तुम चाहती हो।”

“नहीं, नहीं। पहले मेरी पूरी बात सुनो। अगर तुम उसे मार डालोगे; या उसे इम्तिहान देने से रोका जाता है – सब ख़त्म हो जाएगा ! मैं उसी दिन, जब इस बारे में सुनूँगी, उसे छोड़कर चली जाऊँगी – कहीं भी – पीटर्सबर्ग या ओडेसा, या कीएव। ये न सोचना कि ये किसी अख़बारी उपन्यास का झूठा वाक्य है। मैं ऐसे सस्ते प्रभाव डालकर तुम्हें डराना नहीं चाहती। मगर मुझे मालूम है कि मैं जवान हूँ, ज़हीन हूँ, पढ़ी लिखी हूँ। ख़ूबसूरत नहीं हूँ, मगर मैं अन्य कई सुन्दरियों से ज़्यादा दिलचस्प होना जानती हूँ, जिन्हें बाल-नृत्यों में पुरस्कार के तौर पर अपनी ख़ूबसूरती के लिए कोई जर्मन-सिल्वर की ट्रे या संगीत वाली अलार्म घड़ी मिलती है। मैं अपने आप पर अन्याय करती हूँ, मगर मैं एक पल में जल जाती हूँ – पूरी चमक से, आतिशबाज़ी की तरह !”

रमाशोव ने खिड़की से बाहर देखा। अब उसकी आँखें, जो अंधेरे की आदी हो गई थीं, खिड़की की अस्पष्ट, मुश्किल से दिखाई देने वाली फ्रेम की चौखट देख सकती थीं।

“ऐसा न कहो, ऐसा नहीं कहना चाहिए, मुझे तकलीफ़ होती है,” उसने दयनीयता से कहा। “ठीक है, क्या तुम चाहती हो कि मैं कल द्वन्द्व युद्ध से इनकार कर उससे माफ़ी माँग लूँ ? ऐसा करूँ ?”


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