द्वंद्व युद्ध - 19

द्वंद्व युद्ध - 19

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अभी अभी जिस हादसे को सबने झेला था, उसका असर सबकी मानसिकता में और फूहड़ जोश में प्रकट हो रहा था। मेस की तरफ़ जाते हुए रास्ते में अफ़सर बड़ी बेहूदगियाँ करते रहे। वे क़रीब से जाते हुए यहूदी को रोकते, उसे अपने पास बुलाते और उसकी टोपी निकाल कर गाड़ीवान को आगे बढ़ने के लिए धकियाते; फिर इस टोपी को किसी बागड़ के पीछे, पेड़ पर फेंक देते। बबेतिन्स्की ने गाड़ीवान को पीट दिया। बाक़ी के लोग ज़ोर ज़ोर से गाते रहे और पागल की तरह चिल्लाते रहे। सिर्फ बेग-अगामालव, जो रमाशोव की बगल में बैठा था, पूरे रास्ते ख़ामोश रहा, गुस्से और संयम से खर्राटे लेते हुए।

देर होने के बावजूद मेस में तेज़ रोशनी हो रही थी और वह लोगों से भरी थी। कार्ड-रूम में, डाइनिंग रूम में, अल्पाहार गृह में और बिलियार्ड रूम में लोग झुंड बनाए, शराब के नशे में, तंबाकू के नशे में; अपनी ट्यूनिक के बटन खोले; निश्चल, चिड़चिड़ाहट भरी आँखों से और अलसाई गतिविधियों से एक दूसरे से टकराते; व्यर्थ की बकवास किए जा रहे थे। रमाशोव ने कुछ अफ़सरों का अभिवादन करते हुए अचानक आश्चर्य से उनके बीच निकोलाएव को देखा। वह असाद्ची के साथ बैठा था और नशे में धुत, लाल-लाल हो रहा था, मगर दृढ़ता से स्वयँ पर क़ाबू किए था। जब रमाशोव , मेज़ का चक्कर लगाते हुए, उसके क़रीब आया तो निकोलाएव ने जल्दी से उसकी ओर देखा और फ़ौरन मुड़ गया, जिससे उसकी ओर हाथ न बढ़ाना पड़े; और बड़े जोश में अपने पड़ोसी से बातें करने लगा।

 “वेत्किन, गाने के लिए चलो !” असाद्ची ने साथियों के सिरों के ऊपर से कहा।

 “गा-एं-गे कु-छ-तो !” वेत्किन ने चर्च की प्रार्थना की धुन में कहा।

“गा-एं-गे कु-छ-तो ! गा-एं-गे कु-छ-तो !” बाकी लोगों ने ज़ोर से दुहराया।

 “पोप के कठघरे के पीछे लड़ पड़े तीन,” वेत्किन ने चर्च के द्रुत कथन की तर्ज़ में कहा, “सेक्स्टन, पार्सन और उसका क्लर्क। जाओ, निकिफोर, जा-ओ।”

 “ जाओ, निकोफोर, जा-आ-आ-ओ,” हौले से कोरस ने उसे जवाब दिया, पूरी तरह संयमित और मानो असाद्ची के मुलायम, गहरे सुर से गर्माए कोरस ने।

वेत्किन कोरस का संचालन कर रहा था, मेज़ पर बीचोंबीच खड़ा होकर और गाने वालों की ओर हाथ बढ़ाए हुए। वह कभी डरावनी तो कभी प्यार भरी, प्रशंसा भरी आँखें बनाता, जो ठीक से नहीं गा रहे थे उन पर चिल्लाता, और फैली हुई हथेली की मुश्किल से नज़र आने वाली थरथराहट से ध्यान न देने वालों को संभालता।

 “स्टाफ-कैप्टेन लेशेन्का , आप बेसुरा गा रहे हैं ! आपके कान पर भालू चढ़ गया है ! चुप हो जाईये ! असाद्ची चिल्लाया। “महाशय, चुप हो जाईये, सब तरफ़ ! भिनभिनाईये नहीं, जब लोग गाते हैं।”

 “जैसे अमी-मी-र किसान पीता है रम दे—ख--- !” वेत्किन कहता रहा।

तंबाकू के धुँए से आँखों में जलन हो रही थी। मेज़ का मेकेन्टोश चिपचिपा था, और रमाशोव को याद आया कि उसने आज शाम को अपने हाथ नहीं धोए हैं। वह आँगन से होता हुआ उस कमरे में पहुँचा जिसे ‘ अफ़सरों का कमरा’ कहते थे, - वहाँ हमेशा एक बेसिन रखा रहता था। यह एक खिड़की वाली, ख़ाली, छोटी सी, ठंडी कोठरी थी। एक छोटी अलमारी द्वारा बनाए गए पार्टीशन के दोनों ओर, जैसा अस्पतालों में होता है, दीवारों से लगे दो पलंग थे। उनके ऊपर की चादरें-गिलाफ़ कभी भी नहीं बदले जाते थे; इस कमरे का फर्श भी कभी झाड़ा नहीं जाता था, खिड़की कभी खोली नहीं जाती थी। इस कारण इन कमरों में पुरानी चादरों की, तंबाकू के पुराने धुँए की और गंदे जूतों की दमघोंटू, बासी, सड़ी हुई बदबू आया करती थी। यह कमरा उन अफ़सरों के अस्थाई आवास के लिए प्रयुक्त होता था जो दूर दूर के ठिकानों से कम्पनी के स्टाफ़ में आया करते थे। मगर आम तौर से उसमें पार्टियों के दौरान कभी कभी दो, तो कभी कभी तीन, विशेषकर नशे में धुत अफ़सरों को एक एक पलंग पर पटक दिया जाता था। इसलिए इसे ‘मुर्दों का कमरा’, ‘लाश-घर’ और ‘मुर्दा-घर’ भी कहते थे। इन नामों में एक सहज, मगर जीवन का ख़ौफ़नाक व्यंग्य छिपा था, क्योंकि जब से कम्पनी इस शहर में आई थी, -अफ़सरों के कमरे में, ख़ास कर इन्हीं दो पलंगों पर कई अफ़सरों ने और एक अर्दली ने स्वयँ को गोली मार ली थी; और ऐसा कोई भी साल नहीं होता था, जब N कम्पनी में किसी अफ़सर ने स्वयँ को गोली न मार ली हो।

जब रमाशोव मुर्दों के कमरे में पहुँचा, दो व्यक्ति पलंगों पर सिरहाने की ओर, खिड़की के पास बैठे थे। वे बिना रोशनी के, अंधेरे में बैठे थे और सिर्फ हल्की सी हलचल से ही रमाशोव को उनकी उपस्थिति का आभास हुआ। उनके बिल्कुल नज़दीक जाकर और उनके ऊपर झुकने के बाद ही उसने मुश्किल से उन्हें पहचाना। ये थे स्टाफ-कैप्टेन कोद्त, पियक्कड़ और चोर, जिसे रेजिमेंट की कमांड से निकाल दिया गया था; और ज़लातूखिन, लंबा और दुबला-पतला, अधेड़ उम्र का, गंदा जुआरी, लफ़ड़ों वाला, बुरी ज़ुबान वाला और सदाबहार सब-एनसाईन जैसा पियक्कड़। इन दोनों के बीच मेज़ पर वोद्का की क्वार्टर बोतल टिमटिमा रही थी; एक ख़ाली प्लेट, किसी गाढ़े द्रव के निशानों वाली, और दो भरे हुए गिलास रखे थे। खाने पीने की चीज़ों का नामोनिशान नहीं था। हमप्याला चुप थे, जैसे भीतर आते हुए साथी से छिप रहे हों; और जब वह उन पर झुका तो वे चालाकी से अंधेरे में हँस पड़े; कहीं नीचे की ओर देखने लगे।

 “हे, भगवान ! आप लोग यहाँ क्या कर रहे हैं ?” रमाशोव ने भयभीत होकर पूछा।

 “श् श् श् !” ज़लातूखिन ने रहस्यमय ढंग से, चेतावनी देते हुए ऊंगली ऊपर को उठाई। “रुको, इंतज़ार करो। डिस्टर्ब मत करो !”

 “धीरे !” क्लोद्त ने फुसफुसाकर कहा।

अचानक दूर कहीं गाड़ी के खड़खड़ाने की आवाज़ आई। तब उन दोनों ने जल्दी से अपने जाम उठाए, टकराए और एक साथ पी गए।

 “ये आख़िर है क्या ? !” रमाशोव उत्तेजना से चहका।

 “ये, मेरे प्यारे,” अर्थपूर्ण फुसफुसाहट से क्लोद्त ने जवाब दिया, “ये हमारा ऐसा टिट्-बिट् है। गाड़ी की खटखटाहट के साथ। हुज़ूर,” वह ज़लातूखिन से मुख़ातिब हुआ, “तो अब किस के साथ पिएँगे ? चाँद की रोशनी में पीना चाहते हो ?”

 “ वो तो पी चुके,” ज़लातूखिन ने संजीदगी से प्रतिवाद किया और खिड़की से चाँद की पतली कोर को देखा, जो शहर के ऊपर काफ़ी नीचे और उकताते हुए स्थित था, “इंतज़ार करते हैं। हो सकता है, कुत्ता भौंकने लगे। ख़ामोश रहो।”

इस तरह नशीली मतिहीनता के उदास मसखरेपन के प्रभाव में एक दूसरे की ओर झुकते हुए, वे फुसफुसाते रहे। डाइनिंग रूम से इस समय आ रही थीं, दीवारों के कारण हल्की हो गईं गहराई आवाज़ें, और इस कारण ये एकसार उदास आवाज़ें कहीं दूर से आती चर्च में दफ़न विधि के समय की जाने वाली प्रार्थनाओं जैसी प्रतीत हो रही थीं।

रमाशोव ने हाथ नचाए और अपने सिर को पकड़ लिया।

 “महाशय, ख़ुदा के लिए, छोड़ो: ये ख़ौफ़नाक है,” उसने पीड़ा से कहा।

 “शैतान के पास जाओ !” अचानक ज़लातूखिन गरजा। “नहीं, रुक,भाई ! कहाँ चले ? पहले आप शरीफ़ लोगों के साथ पीजिए। न-हीं, नहीं, भाई। इसे पकड़ो, स्टाफ़-कैप्टेन, और मैं दरवाज़ा बन्द करता हूँ।”

वे दोनों पलंग से उछले और वहशियतभरी शरारती हँसी से रमाशोव को पकड़ने लगे। और ये सब एक साथ –ये अंधेरा कमरा, आधी रात को बिना रोशनी के हो रहा यह रहस्यमय, अजीब, शराब का दौर, ये दो मतिहीन हो चुके व्यक्ति – ये सब मौत के और पागलपन के असहनीय ख़ौफ़ से रमाशोव पर अचानक टूट पड़ा। उसने एक कर्कश चीख़ मारते हुए ज़लातूखिन को दूर धकेला और पूरी तरह थरथराते हुए मुर्दा-घर से बाहर कूदा।

अपनी बुद्धि से वह समझ रहा था कि उसे घर जाना चाहिए, मगर न जाने किस अज्ञात शक्ति द्वारा वह डाइनिंग रूम की ओर खिंच गया। वहाँ अब कुर्सियों और खिड़कियों की सिल पर बैठे बैठे काफ़ी लोग ऊँघ रहे थे। असहनीय गर्मी थी, और, खिड़कियाँ खुली होने के बावजूद, मोमबत्तियाँ और लैम्प बिना झपके जल रहे थे। थकान से चूर, लड़खड़ाते पैरों से बेयरे और अल्पाहारगृह के सिपाही खड़े खड़े ऊँघ रहे थे और हर मिनट उबासी ले रहे थे, बिना जबड़े खोले, सिर्फ नाक से। मगर आम, बोझिल, सब पर छाया नशा रुक नहीं रहा था।

वेत्किन मेज़ पर खड़ा हो गया था और ऊँचे भावुकतापूर्ण सुर में गा रहा था :

“ ते-ए-ज़, जैसे लह-रें-एँ,

दिन-न ज़िन-न्द-गी के।”     

कम्पनी में चर्च से आए अनेक अफ़सर थे और इसलिए नशे में धुत होने के बावजूद वे अच्छा ख़ासा गा लेते थे। सीधी सादी, दुखभरी, दिल को छू लेनेवाली धुन निकृष्ट शब्दों को भी भला बना रही थी। और सभी को एक मिनट के लिए इस नीची छत वाले दमघोंटू कमरे में, संकुचित, गूँगी और अँधी ज़िन्दगी के बीच बड़ी और विवशता महसूस होने लगी: “ मरोगे, दफ़ना देंगे

जैसे तू था ही नहीं दुनिया में।”

वेत्किन भाव विह्वल होकर गा रहा था, और अपनी ऊँची और कँपकँपाती आवाज़ से निकले शब्दों के कारण और कोरस की पूरी समन्वयता के कारण उसकी दयालु, भोली आँखों में आँसू तैर गए। अर्चाकोव्स्की सावधानी से उसे दुहरा रहा था। अपनी आवाज़ कम्पित करने के लिए वह दो उँगलियों से अपने टेंटुए को छू लेता था। असाद्ची भारी-भरकम, लंबे खिंचते हुए सुरों से कोरस का साथ दे रहा था, और ऐसा लग रहा था जैसे अंधेरी लहरों पर इन नीची ऑर्गन जैसी आवाज़ों पर अन्य सभी आवाज़ें तैर रही थीं।

इस गीत को पूरा गाया गया, कुछ देर सब चुप रहे। नशे में धुत अवस्था में सब पर एक शांत, संजीदा लमहा छा गया। अचानक असाद्ची मेज़ पर नीचे की ओर देखते हुए, पलकें झुकाए दबी आवाज़ में गाने ल गा : “तंग राह पर चलने वाले सभी – ज़िंदगी धरती पर जीने वाले।। "

 “बस हो गया !” किसी ने उकताई आवाज़ में कहा, “आप तो बस इसी ‘अंत्य-यात्रा’ गीत पर जम गए। ये दसवीं बार है।”

मगर बाकी सब ने इस दफ़न गीत को गाना शुरू कर दिया था, और प्रदूषित, थूक से गंदे, सिगरेट के धुँए से भरे डाइनिंग हॉल में जॉन दमास्कीन के दफ़न गीत के स्पष्ट सुर घूम गए, जो ऐसे भावपूर्ण, ऐसे अतीव शोक में डूबे हुए थे, गुज़र चुके जीवन के प्रति ऐसी भीषण पीड़ा से भरे थे:

“और मेरे धर्म के अनुयायियों,

मेरे पीछे चलो,

 ख़ुशी मनाओ, सम्मान दर्शक,

 स्वर्गीय पुष्पचक्रों के साथ।”

और तभी अर्चाकोव्स्की, जो चर्च की सर्विस को किसी डीकन से कम नहीं जानता था, गाने लगा,

 “तहे दिल से।।।”

इस तरह उन्होंने पूरा दफ़न गीत गाया। और जब अंतिम पुकार का समय आया तो असाद्ची ने सिर झुकाकर, गर्दन तानते हुए, विचित्र और भयानक, दुखी और कटु आँखों से नीची आवाज़ में गाते हुए बोलना शुरु किया, जैसे गरजते हुए तंतु वाद्य के तार झंकार कर रहे हों,“ऐ ख़ुदा, अपने सेवक निकिफोर को ख़ुशनुमा ज़िन्दगी और चिर शांति दे।" असाद्ची ने अचानक एक डरावनी, सनकभरी गाली निकाली, और उसे दे चि-ई-ई-र।”

रमाशोव उछल पड़ा और वहशियत से उसने पूरी ताक़त से मेज़ पर मुक्का मारा।

 “नहीं दूँगा इजाज़त ! चुप रहिए !” वह तीखी, पीड़ा भरी आवाज़ में चीखा। “क्यों मज़ाक उड़ाते हैं ? कैप्टेन असाद्ची, आप को बिल्कुल भी मज़ाहिया नहीं लग रहा है; बल्कि आप को दुख हो रहा है और ख़ौफ़नाक लग रहा है ! मैं देख रहा हूँ ! मैं जानता हूँ कि आप अपने दिल में कैसा महसूस कर रहे हैं !”

चारों ओर छा गई ख़ामोशी के बीच सिर्फ किसी एक की आवाज़ परेशानी से मनाने लगी, “क्या वह नशे में है ?”

मगर तभी, जैसा कि कुछ देर पहले श्लेफेर्षा के यहाँ हुआ था, सब कुछ चिल्लाने लगा, कराहने लगा, अपनी जगह से उछलने लगा और एक तीखे, गतिमान, चिल्लाहट भरे गोल में बदल गया। वेत्किन ने मेज़ से कूदते हुए ऊपर से लटकते लैम्प को धक्का दे दिया; वह बड़े बड़े आड़े तिरछे आयाम बनाते हुए झूलने लगा, और तैश में आए लोगों की परछाईयाँ, जो कभी दैत्यों के समान बड़ी हो जातीं, तो कभी फर्श के नीचे छिप जातीं, दुष्टता से उलझतीं और सफ़ेद दीवारों और छत पर डोलतीं।

 वह सब जो इस समय मेस में घटित हो रहा था, इन बेकाबू, उत्तेजित, नशे में धुत और अभागे लोगों के बीच, वह जल्दी ही समाप्त हो गया।।।बेहूदगी से और फिर कभी न सुधारे जाने के लिए। जैसे कि किसी दुष्ट, उलझे दिमाग़ वाले, बेवकूफ़, वहशी – हास्यास्पद शैतान ने लोगों को दबोच लिया और उन्हें मजबूर कर दिया गालियाँ देने के लिए और फूहड़, असंतुलित गतिविधियाँ करने के लिए।

इस गहमा-गहमी में रमाशोव ने अचानक अपने बिल्कुल क़रीब देखा किसी का चेहरा – टेढ़े, चीख़ते हुए मुँह वाला, जिसे उसने फ़ौरन पहचाना भी नहीं, - इतना विद्रूप और भद्दा हो गया था वह दुष्टता के कारण। ये निकोलाएव उस पर चिल्ला रहा था, थूक उड़ाते हुए और नर्वस होकर बाएँ गाल के स्नायुओं को आँखों के नीचे खींचते हुए।

 “ख़ुद ही शर्मिन्दा करते हैं कम्पनी को ! आगे कुछ बोलने की हिम्मत न करना। आप – और अन्य दूसरे नज़ान्स्की ! जुम्मा जुम्मा आठ दिन !।।।”

किसी ने सावधानीपूर्वक रमाशोव को पीछे खींचा। वह मुड़ा और उसने बेग-अगामालव को पहचान लिया, मगर, तभी, फ़ौरन वापस मुड़ कर, उसके बारे में भूल गया। इस समय जो होने वाला था उससे विवर्ण होकर, उसने हौले से, भर्राई आवाज़ में, पीड़ा भरी, दयनीय मुस्कुराहट से कहा, “यहाँ नज़ान्स्की किसलिए ? या आपके पास कोई विशिष्ठ, गुप्त कारण है उससे नाराज़ होने के लिए ?”

 “मैं तुम्हारे सिर पर दूँगा ! नीच, सुअर !” निकोलाएव ने ऊँची, भौंकती सी आवाज़ में कहा। “बदमाश !”

उसने तेज़ी से रमाशोव की ओर मुक्का ताना और डरावनी आँखें बनाईं, मगर मारने का निश्चय न कर पाया। रमाशोव के सीने और पेट में पीड़ाजनक, घिनौनी बेहोशी धुँधलाती जा रही थी। इस समय तक उसने ज़रा भी ध्यान नहीं दिया था, जैसे भूल गया था कि उसके दाहिने हाथ में हमेशा कोई चीज़ पकड़ी रहती थी। और अचानक शीघ्र, संक्षिप्त चाल से उसने निकोलाएव के मुँह पर अपने ग्लास की बची हुई शराब उछाल दी।

उसी समय एक क्षणिक, कुंद पीड़ा से उसकी बाँई आँख से सफ़ेद, प्रखर बिजलियाँ चमकने लगीं। एक लंबी, जानवरों जैसी चीख से वह निकोलाएव पर टूट पड़ा, और वे दोनों नीचे गिर पड़े; हाथ पैर एक दूसरे से उलझाए, कुर्सियों को गिराते हुए और गंदी, दुर्गंधित धूल निगलते फ़र्श पर लोटने लगे। गुर्राते हुए और गहरी गहरी साँसे लेते हुए वे एक दूसरे को नोच रहे थे, काट रहे थे, दबोच रहे थे। रमाशोव को याद आया कि कैसे, संयोगवश, उसकी उँगलियाँ निकोलाएव के मुँह में घुस गईं, गाल के पीछे, और कैसे उसने इस चिपचिपे। घिनौने, गर्म मुँह को चीरने की कोशिश की।।।और इस पागलपन भरे संघर्ष में जब वह सिर और कोहनियों के बल फ़र्श से टकराया तो उसे ज़रा सा भी दर्द महसूस नहीं हुआ।

उसे यह भी मालूम नहीं हुआ कि यह सब ख़त्म कैसे हुआ। उसने अपने आप को कोने में खड़ा पाया, जहाँ उसे खींच कर ले गए थे, निकोलाएव से छुड़ाकर। बेग-अगामालव उसे पानी पिला रहा था, मगर रमाशोव के दाँत गिलास की किनार से अभी भी किटकिटा रहे थे; और वह डर रहा था कि काँच का तुकड़ा न निगल जाए। उसकी ट्यूनिक बगल से और पीठ पर फट चुकी थी, और एक शोल्डर-स्ट्रैप, जो उधड़ चुकी थी, डोरी से लटक रही थी। रमाशोव की आवाज़ नहीं निकल रही थी, मगर वह बेआवाज़ चिल्लाए जा रहा था, सिर्फ होठों से, “मैं उसे और दिखाऊँगा ! बुलाऊँगा उसे !”

बूढ़ा लेख, जो अब तक मेज़ के कोने पर बैठा बैठा मीठी नींद ले रहा था, मगर इस समय पूरी तरह जाग चुका था, संतुलित और गंभीर; अप्रत्याशित कठोरता से आज्ञा देते हुए बोला, “एक सीनियर अफ़सर की हैसियत से मैं तुम दोनों को हुक्म देता हूँ, महोदय, फ़ौरन जुदा हो जाओ।।।सुनिए, फ़ौरन, इसी समय। इस सब के बारे में कल सुबह मेरे द्वारा कम्पनी कमांडर को रिपोर्ट पेश की जाएगी।

और सब बिखर गए। परेशान, दबाव में; एक दूसरे की नज़रों को टालते हुए। हरेक डर रहा था दूसरों की आँखों में अपने भय को पढ़ने से; अपनी दासताभरी, गुनाहभरी पीड़ा को पढ़ने से, - भय और पीड़ा, छोटे छोटे, दुष्ट और गंदे जानवरों की, जिनकी बुद्धि का अंधेरा मानो अचानक प्रकाशित हो गया था तीव्र मानवीय संज्ञा से।   

सुबह हो चुकी थी, स्पष्ट, बच्चों जैसे स्वच्छ आकाशयुक्त और स्थिर ठंडी हवा भरी। पेड़ नम, मुश्किल से नज़र आने वाली वाष्प से ढँके, अपने अंधेरे, रहस्यमय रात के सपनों से ख़ामोशी से जाग रहे थे। और जब रमाशोव ने, घर जाते हुए, उनकी ओर देखा; और आसमान की ओर देखा; और गीली ओस से भूरी पड़ गई घास की ओर देखा तो उसने सुबह के इस मासूम लुभावनेपन में, जो आधी नींद में मुस्कुरा रही थी, स्वयँ को ओछा, घृणित, विद्रूप और अत्यंत पराया पाया।


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