द्वंद्व युद्ध - 14.2

द्वंद्व युद्ध - 14.2

18 mins
483



रमाशोव मानो ऊँघ रहा था। असाद्ची और बेग-अगामालव की आवाज़ें उस तक, जैसे कहीं दूर से, किसी काल्पनिक कोहरे से आ रही थीं और वे समझ में तो आ रही थीं, मगर ख़ाली ख़ाली थी “असाद्ची।।।वह निर्दयी आदमी है, वह मुझे पसन्द नहीं करता,” रमाशोव सोच रहा था और वह, जिसके बारे में वह सोच रहा था, अब पहले वाला असाद्ची नहीं था, बल्कि एक नया, ख़तरनाक तौर से दूर, और वह वास्तविक भी नहीं था, बल्कि सिनेमा के परदे पर चलती फिरती कोई ज़िन्दा तस्वीर था। “असाद्ची की बीबी छोटी सी है, दुबली पतली, दयनीय, हमेशा गर्भवती, वह उसे अपने साथ कहीं भी नहीं ले जाता, उसकी रेजिमेंट में पिछले साल एक जवान सिपाही ने फाँसी लगा ली थी, असाद्ची...हाँ, क्या चीज़ है ये असाद्ची? अब, ये बेग चीख रहा है, ये आदमी कौन है? क्या मैं इसे जानता हूँ? हाँ, मैं उसे जानता हूँ, मगर फिर यह इतना अजीब सा, पराया सा, मेरी समझ से परे क्यों है? और, ये मेरे पास कोई बैठा है, कौन हो तुम? तुमसे ख़ुशी प्रवाहित हो रही है और मैं इस खुशी के सुरूर में हूँ। नीली नीली ख़ुशी! ये, मेरे सामने निकोलाएव बैठा है। वह अप्रसन्न है। उसने चुप्पी साध ली है। यूँ ही इधर देख लेता है, जैसे आँखें फिसल रही हों, आह, होने दो उसे ग़ुस्सा – कोई फर्क नहीं पड़ता। ओह, नीली नीली ख़ुशी!

अंधेरा होने लगा। पेड़ों की गहरी बैंगनी, ख़ामोश छाया मैदान पर पड़ रही थी। छोटी मीखिना ने अचानक कहा:

 “महाशय, बनफ़्शा का क्या? कहते हैं कि यहाँ ढेर सारे बनफ़्शा के फूल हैं? चलें, उन्हें इकट्ठा करें।”

 “देर हो गई है,” किसी ने कहा। “अब तो घास पर कुछ भी दिखाई नहीं देगा।”

 “अब तो घास में कुछ ढूढ़ने के बदले खो देना आसान है,” दीत्स ने दुष्ट मुस्कुराहट से कहा।

 “तो फिर, चलिए, अलाव जलाएँ।”

सूखी टहनियों और पिछले साल के सूखे पत्तों का एक बड़ा ढेर घसीट कर लाया गया और अलाव जलाया गया। ख़ुशनुमा आग का चौड़ा स्तंभ आसमान की ओर उठा।दिन के बचे खुचे अवशेष, मानो भयभीत होकर ग़ायब हो गए, अंधेरे को जगह देते हुए, जो बगीचे से बाहर निकलकर अलाव पर चढ़ा चला आ रहा था। गहरे लाल किरमिजी धब्बे घबराते हुए कंपकंपा रहे थे, शाहबलूत के सिरों पर फड़फड़ा रहे थे, और ऐसा प्रतीत हो रहा था कि पेड़ हौले से हिल रहे हैं, डोल रहे हैं, कभी प्रकाश की लाली में दिखाई देते हुए, कभी वापस अंधेरे में छिप रहे हैं।

सभी दस्तरख़ान से उठ पड़े। अर्दलियों ने काँच के शेड्स में मोमबत्तियाँ जला दीं। नौजवान अफ़सर स्कूली बच्चों के समान शरारतें करने लगे।अलिज़ार मीखिन से कुश्ती लड़ने लगा, और, सबको चकित करते हुए, छोटे से फूहड़ मीखिन ने लगातार दो बार अपने लंबे-तड़ंगे, सुदृढ़ प्रतिद्वन्द्वी को चित कर दिया। फिर आग के ऊपर से कूदने लगे। अन्द्रूसेविच नकल करने लगा कि कैसे मक्खी खिड़की के शीशे से टकराती है; और वह, झाड़ियों के पीछे छिपकर दिखा रहा था कि कैसे मुर्ग़ीख़ाने की बूढ़ी नौकरानी मुर्गी पकड़ती है; धार बनाने वाले पत्थर पर चाकू और आरी की आवाज़ निकाल रहा था – वह इस कला में बहुत प्रवीण था। दीत्स भी ख़ाली बोतलों से बड़ी फुर्ती से बाज़ीगरी दिखा रहा था।

 “इजाज़त दीजिए, महाशय, अब मैं आपको एक बेहतरीन कलाबाज़ी दिखाता हूँ!” अचानक तल्मान चीख़ा। “इसमें न तो कोई जादू है और न ही हाथ की सफ़ाई, बल्कि हाथ की फुर्ती है। आदरणीय पब्लिक से गुज़ारिश करता हूँ कि ध्यान दें: मेरी आस्तीनों में कोई चीज़ छिपी हुई नहीं है। शुरू करता हूँ। एक, दो, तीन...और हुप्!”

उसने फुर्ती से, सबके ठहाकों के बीच जेब से ताश की दो नई गड्डियाँ निकाली। विन्त (विन्त: ताश का एक खेल – अनु।) हो जाए, महाशय?” उसने प्रस्ताव रखा।“ताज़ी हवा में, हाँ?”

असाद्ची, निकोलाएव और अन्द्रूसेविच ताश खेलने बैठ गए। लेशेन्का गहरी साँस लेकर उनके पीछे बैठ गया। निकोलाएव बड़ी देर तक भुनभुनाते हुए, अप्रसन्नता से इन्कार करता रहा, मगर उसे किसी तरह मना लिया गया। बैठते हुए, उसने कई बार परेशानी से पीछे की ओर देखा, आँखों से शूरच्का को तलाशते हुए, मगर चूँकि अलाव की रोशनी में उसे बारीक़ी से देखने में कठिनाई हो रही थी, इसलिए हर बार तनाव से उसके चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ जाती थीं और उस पर दयनीय, पीड़ित और बुरा सा भाव छा जाता।

बाकी के लोग धीरे धीरे अलाव से कुछ दूर मैदान में घूमने लगे। लुका-छिपी का खेल शुरू किया गया, मगर यह मनोरंजन जल्दी ख़त्म हो गया, जब मीख़िन की बहनों में से बड़ी वाली, जिसे दीत्स ने पकड़ लिया था, अचानक इतनी लाल हो गई कि उसकी आँखों से आँसू बहने लगे और उसने खेलने से दो टूक इनकार कर दिया। जब वह यह कह रही थी, तो ग़ुस्से और अपमान से उसकी आवाज़ थरथरा रही थी, मगर वजह उसने नहीं बताई।

रमाशोव पतली पगडंड़ी से बगीचे के भीतर, गहराई में जाने लगा। वह समझ नहीं पा रहा था कि उसे किस चीज़ का इंतज़ार है, मगर एक अस्पष्ट, सुखद पूर्वानुभूति से उसके दिल में एक मीठा मीठा शिथिल दर्द हो रहा था। वह रुक गया। उसे अपने पीछे टहनियों की हल्की चरचराहट, फिर

तेज़ क़दमों की आहट और रेशमी स्कर्ट की सरसराहट सुनाई दी। शूरच्का तेज़ी से उसके नज़दीक आई – फुर्तीली और सुडौल जैसे कोई चमकीली वनपरी हो, अपनी सफ़ेद ड्रेस में, वृक्षों के अंधेरे तनों के बीच कभी उसकी झलक दिखाई देती, कभी वह लुप्त हो जाती। रमाशोव उसके पास आया और बिना कुछ कहे उसे अपनी बाँहों में ले लिया। तेज़ चाल के कारण शूरच्का की साँस जल्दी जल्दी चल रही थी। उसकी गर्म साँसें बारबार रमाशोव के गालों और होठों को छू रही थीं, और वह अपने हाथ के नीचे उसके धड़कते दिल को महसूस कर रहा था।

 “बैठेंगे,” शूरच्का ने कहा।

वह घास पर बैठ गई और दोनों हाथों से सिर के बाल ठीक करने लगी। रमाशोव उसके पैरों के पास लेट गया, और चूंकि इस जगह ज़मीन ढलवाँ थी, अत: वह सिर्फ उसकी गर्दन और ठोढ़ी की रूपरेखा ही देख सकता था।

अचानक उसने धीमी, कंपकंपाती आवाज़ में पूछा:

 “रोमच्का, तुम ठीक तो हो?”

”अच्छा हूँ,” उसने जवाब दिया। फिर एक पल सोचकर, आज के पूरे दिन को याद किया और जोश से दोहराया, “ओह, हाँ, आज मुझे इतना अच्छा लग रहा है, इतना अच्छा लग रहा है! बताइए, आज आप ऐसी क्यों हैं?”

 “कैसी?”

नज़दीक आकर वह उसकी ओर झुकी, उसकी आँखों में देखते हुए, और अचानक उसका पूरा चेहरा रमाशोव को दिखाई देने लगा।

 “आप आश्चर्यजनक हैं, असाधारण हैं। इतनी ख़ूबसूरत आप पहले कभी नहीं थीं। आपके भीतर कोई चीज़ गा रही है और चमक रही है। आपके अन्दर कुछ नया सा, पहेली जैसा, मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि क्या, मगर..आप मुझ पर गुस्सा न करें, अलेक्सान्द्रा पेत्रोव्ना, क्या आपको डर नहीं लगता कि हम पकड़े जाएँगे?”

वह हौले से हँसी, और यह हल्की सी, प्यारी हँसी रमाशोव के सीने में एक ख़ुशनुमा कँपकँपाहट के रूप में गूंज उठी। “प्यारे रोमच्का! प्यारे, भले, डरपोक, प्यारे रोमच्का। मैंने तो आपसे पहले ही कहा था कि ये दिन हमारा है। किसी और चीज़ के बारे में सोचिए भी नहीं। जानते हैं मैं आज इतनी निडर क्यों हूँ? नहीं? नहीं जानते? आज मैं आपके प्यार में गिरफ़्तार हो गई हूँ। नहीं, नहीं, आप कोई ख़याली पुलाव न पकाईये, यह कल ख़त्म भी हो जाएगा..”

रमाशोव ने उसकी ओर हाथ बढ़ाए, उसके जिस्म को ढूँढ़ते हुए।

 “अलेक्सान्द्रा पेत्रोव्ना, शूरच्का ..साशा!” उसने मनाते हुए स्वर में कहा।

 “मुझे शूरच्का कहकर न बुलाईये, मुझे यह अच्छा नहीं लगता। बाकी कुछ भी चलेगा, सिर्फ यह नहीं,और हाँ,” जैसे अचानक उसे याद आया, “कितना अच्छा नाम है आपका – जॉर्जी (गिओर्गी)।यूरी से कहीं ज़्यादा अच्छा है, जॉ-र-जी!” उसने धीरे धीरे खींचते हुए कहा, मानो इस शब्द की ध्वनि को ध्यान से सुन रही हो।“ यह बड़ा शानदार है।”

 “ओह, प्यारी!” रमाशोव ने लालसापूर्वक कहा।

 “रुकिए..ओह, सुनिए भी। ये सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण है। मैंने आज आपको सपने में देखा। ये आश्चर्यजनक रूप से ख़ूबसूरत था। मुझे सपना आया, जैसे हम-तुम किसी विशेष कमरे में वाल्ट्ज़ कर रहे हैं। ओह, मैं फ़ौरन उस कमरे को पहचान जाऊँगी, सभी बारिकियों समेत। बहुत सारे कालीन थे, मगर सिर्फ एक लाल रंग की लालटेन जल रही थी, नया पियानो चमक रहा था, दो खिड़कियाँ लाल परदों वाली, - हर चीज़ लाल थी। कहीं से म्युज़िक की आवाज़ आ रही थी, दिखाई नहीं दे रहा था कि कहाँ से, और मैं और आप नृत्य कर रहे थे। नहीं, नहीं, सिर्फ सपने में ही इतनी मीठी, इतनी भावपूर्ण नज़दीकियाँ हो सकती हैं। हम जल्दी जल्दी राऊंड ले रहे थे, मगर हमारे पैर फर्श को छू नहीं रहे थे, मानो हम हवा में तैर रहे थे और गोल घूम रहे थे, घूम रहे थे।आह, यह इतनी देर तक चलता रहा और इतना प्यारा – आश्चर्यजनक रूप से इतना प्यारा, कि वर्णन नहीं किया जा सकता..सुनिए, रोमच्का, क्या आप सपने में उड़ते हैं?”

रमाशोव ने फ़ौरन जवाब नहीं दिया। मानो वह एक विचित्र, आकर्षक, एक ही साथ सजीव और जादुई परी-कथा में चला गया। हाँ, इस बसंती रात की गर्माहट और अंधेरा परी-कथा जैसे ही तो थे, और चारों ओर एकाग्र चित्त, ख़ामोश वृक्ष, और विचित्र, प्यारी औरत, सफ़ेद लिबास में, बगल में बैठी हुई, उसके इतने निकट। और इस तिलिस्म से जागने के लिए, उसे कोशिश करनी होगी।

 “बेशक, उड़ता हूँ,” उसने जवाब दिया। “मगर हर साल नीचे, और नीचे। पहले, बचपन में, मैं छत के नीचे उड़ता था। बड़ा हास्यास्पद लगता था ऊपर से लोगों को देखना: जैसे वे पैर ऊपर किए चल रहे हों। वे मुझे फर्श साफ़ करने के ब्रश से पकड़ने की कोशिश करते, मगर पकड़ नहीं पाते। और मैं, बस उड़ रहा हूँ और हँस रहा हूँ, अब यह नहीं होता, अब मैं सिर्फ उछलता हूँ,” रमाशोव ने गहरी साँस लेकर कहा।“पैरों से अपने आप को धकेलता हूँ और धरती पर उड़ता हूँ।यही, क़रीब बीस कदम – और वह भी नीचे, एक आर्शिन से ऊँचे नहीं।”

शूरच्का कोहनियाँ टिकाकर हथेलियों में अपना चेहरा रखे, ज़मीन पर एकदम झुक गई। कुछ देर ख़ामोश रही, वह ख़यालों में खोये खोये अपनी बात कहती रही:

 “और, फिर इस सपने के बाद, सुबह, तुम्हें देखने की बड़ी इच्छा हुई, ज़बर्दस्त, तीव्र इच्छा हुई। अगर आप नहीं आते तो मालूम नहीं, मैं क्या कर बैठती।शायद, मैं ख़ुद आपके पास भाग कर आ जाती। इसीलिए तो मैंने आपको चार बजे के बाद ही आने को कहा था।मुझे अपने आप से डर लग रहा था। मेरे प्यारे, क्या आप मुझे समझ रहे हैं?”

रमाशोव के चेहरे से आधे आर्शिन की दूरी पर उसके पैर थे, एक दूसरे पर क्रॉस बनाते हुए, दो छोटे छोटे पैर, सपाट जूतों और सफ़ेद तीरों जैसे डिज़ाइन वाले काले स्टॉकिंग्स में। बोझिल दिमाग़ से, कानों में सनसनाहट महसूस करते हुए रमाशोव अचानक दाँतों से इस ज़िन्दा, लचीले, स्टॉकिंग्ज़ में छिपे इस ठंडे जिस्म से सट गया।

 “रोमच्का, नहीं, नहीं,” उसने अपने ऊपर उसकी कमज़ोर, खींचती हुई और अलसाई हुई आवाज़ सुनी।

उसने सिर उठाया, और उसे इस पल हर चीज़ फिर से आश्चर्यजनक, रहस्यमय जंगल की परी-कथा सी लगी। बगीचा ढलान से ऊपर की ओर जा रहा था – काली घास और काले, विरल, ख़ामोश पेड़ों सहित जो इस उनींदेपन में निश्चलता से और बारीकी से कोई चीज़ सुन रहे थे; और बिल्कुल ऊपर, उनके सिरों और दूर के तनों के घने झुरमुट से होकर क्षितिज की ऊँची, समांतर रेखा पर संध्या की लाली का पतला पट्टा चमक रहा था – न तो लाल और न ही किरमिजी, बल्कि गहरे-बैंगनी रंग का, असाधारण रंग का, बुझते हुए कोयले जैसा या उस लपट की तरह जो गहरी लाल शराब के आरपार देखी जा रही हो।और काले पेड़ों के बीच की इस पहाड़ी पर, काली ख़ुशबूदार घास पर लेटी थी, विश्राम करती हुई वन-परी की तरह, अबूझ, ख़ूबसूरत, सफ़ेद औरत।

रमाशोव उसके और नज़दीक सरका। उसे ऐसा प्रतीत उसे ऐसा प्रतीत हुआ कि उसके चेहरे से एक फ़ीकी सी आभा निकल रही है।उसकी आँखें नज़र नहीं आ रही थीं – उनके स्थान पर दो बड़े बड़े काले धब्बे थे, मगर रमाशोव को महसूस हुआ कि वह उसकी ओर देख रही है।

 “यह परी-कथा है!” सिर्फ होठों को हिलाते हुए वह फुसफुसाया।

 “हाँ, प्यारे, परी-कथा है।”

वह उसकी ड्रेस को चूमने लगा, उसका हाथ ढूँढ़ा और पतली, गर्माहट भरी हथेली में अपना चेहरा छुपा लिया, साथ ही वह गहरी गहरी साँसे लेते हुए बोलता भी जा रहा था, टूटती हुई आवाज़ में।

 “साशा, मैं आपसे प्यार करता हूँ, प्यार करता हूँ।”

अब, कुछ ऊपर उठकर, उसने स्पष्ट रूप से उसकी आँखों को देखा, जो बड़ी बड़ी, काली हो गई थीं, कभी वे सिकुड़तीं, कभी फैल जातीं, और इस वजह से अंधेरे में उसका जाना-अनजाना चेहरा बड़े चमत्कारिक ढंग से बदलता जा रहा था।वह ललचाए हुए सूखे होठों से उसका मुँह ढूँढ रहा था, मगर वह उससे दूर हट गई, हौले से सिर हिलाया और हौले हौले फुसफुसाकर दुहराने लगी, “नहीं, नहीं, नहीं, मेरे प्यारे, नहीं”

 “मेरी प्यारी, कैसा सुख है! मैं तुमसे प्यार करता हूँ।” रमाशोव ने एक सुखद उन्माद से ज़ोर देकर कहा।“मैं तुमसे प्यार करता हूँ। देखो: ये रात और ख़ामोशी, और हमारे अलावा कोई भी नहीं है। ओह, मेरा सुख, कितना प्यार है मुझे तुमसे!”

मगर वह फुसफुसाकर बोली, “नहीं, नहीं,” भारी भारी साँसे लेते हुए, ज़मीन पर लेटते हुए। आख़िरकार वह मुश्किल से सुनी जाने वाली आवाज़ में, जैसे बड़ी कोशिश करते हुए, बोली,

  “ रोमच्का, आप ऐसे, कमज़ोर, क्यों हैं! मैं छुपाना नहीं चाहती, मैं आपकी ओर खिंची जाती हूँ, मुझे आपकी हर चीज़ अच्छी लगती है: आपका बेढंगापन, आपका साफ़-सुथरापन, आपकी कोमलता। मैं आपसे यह नहीं कहूँगी कि आपसे प्यार करती हूँ, मगर मैं हमेशा आपके बारे में सोचती रहती हूँ, आपको सपने में देखती हूँ, मैं..आपको महसूस करती हूँ, आपकी नज़दीकी और हमारा एक दूसरे को स्पर्श करना मुझे उत्तेजित करता है। मगर आप ऐसे दयनीय क्यों हैं! दयनीयता, बेचारगी – घृणा की ही बहनें हैं। सोचिए, मैं आपकी इज़्ज़त नहीं कर सकती। ओह, अगर आप ताक़तवर होते!” उसने रमाशोव के सिर से कैप हटा दी और हौले से उसके नरम बालों को सहलाने लगी। “अगर आप बड़ा नाम कमा पाते, ऊँचा ओहदा प्राप्त करते!”

 “मैं करूँगा, मैं ऐसा करूँगा!” हौले से रमाशोव चहका। “बस, आप सिर्फ मेरी रहिए। मेरे पास आ जाईये। मैं पूरी ज़िन्दगी।”

उसने प्यारी और दुखभरी मुस्कुराहट से, जो रमाशोव ने उसके लहज़े में सुनी, उसकी बात काटी, “मैं यक़ीन करती हूँ कि तुम ऐसा चाहते हो, प्यारे, यक़ीन करती हूँ, मगर आप कुछ भी तो नहीं करते। मैं जानती हूँ कि नहीं करते। ओह, अगर मुझे ज़रा भी यक़ीन होता तो मैं सब कुछ छोड़ छाड़ कर आपके पीछे आ जाती।आह, रोमच्का, मेरे अच्छे रोमच्का। मैंने सुना है, किसी एक लोक कथा में कहा है, कि भगवान ने पहले सब लोगों को परिपूर्ण बनाया, और फिर न जाने क्यों हरेक को दो हिस्सों में बाँट दिया और उन्हें दुनिया में फेंक दिया।और, सदियों से एक हिस्सा दूसरे को ढूँढ रहा है – मगर फिर भी ढूँढ नहीं पाता है।मेरे प्यारे, हम और तुम – ये ही दो आधे हिस्से हैं; हमारे बीच हर चीज़ एक जैसी है: पसन्द, नापसन्द, और ख़यालात, और सपने और इच्छाएँ। हम एक दूसरे को आधे इशारे से समझ जाते हैं, आधे शब्द से, यहाँ तक कि बिना शब्दों के भी, सिर्फ आत्मा से ही। मगर मुझे तुमसे इनकार करना होगा। आह, यह मेरी ज़िन्दगी में दूसरी बार हो रहा है।”

 “हाँ, मुझे मालूम है!”

 “क्या उसने तुम्हें बताया?” शूरच्का ने जल्दी से पूछा।

 “नहीं, यह बातों बातों में पता चला। मुझे मालूम है।”

वे ख़ामोश हो गए। आसमान में थरथराते हरे बिन्दुओं की तरह पहले सितारे जल उठे। बाईं ओर से मुश्किल से उन तक पहुँच रही थी, कुछ आवाज़ें, हँसी और किसी का गाना।बगीचे का बाक़ी हिस्सा नर्म अंधेरे में डूबा हुआ, पवित्र, ध्यानमग्न ख़ामोशी से सराबोर था। यहाँ से अलाव नज़र नहीं आ रहा था, मगर पास के बलूत के पेड़ों के शिखरों पर दूर गर्मियों की चमकती बिजली के क्षणिक प्रकाश के समान एक पल को लाल फड़फड़ाती रोशनी दौड़ जाती।शूरच्का ख़ामोशी से रमाशोव के सिर और चेहरे को सहला रही थी; जब वह अपने होठों से उसका साथ पाता, वह ख़ुद ही उसके मुँह पर अपनी हथेली सटा देती।

 “मैं अपने पति से प्यार नहीं करती,” उसने धीरे धीरे कहा, जैसे कि ख़यालों में खोए खोए बोल रही हो। “वह बदतमीज़, असभ्य, संवेदनारहित है। आह, - मुझे कहते हुए शर्म आती है, - मगर हम, औरतें, कभी भी हमारे ऊपर हुए पहले अत्याचार को नहीं भूल पाती हैं। फिर ऊपर से वह इतना जंगलियों की तरह ईर्ष्यालु है। वह अभी तक मुझे इस अभागे नज़ान्स्की के कारण पीड़ा पहुँचाता है।हर छोटी छोटी बात जानना चाहता है, ऐसे अजीब अजीब प्रस्ताव रखता है, छि:..इतने नीचता भरे सवाल पूछता है। हे भगवान! ये एक मासूम, किशोरावस्था का प्यार था! मगर वह सिर्फ़ उसके नाम से ही तैश में आ जाता है।

जब वह बात कर रही थी, तो उसकी आवाज़ हर पल कँपकँपा रही थी, रमाशोव के सिर को सहला रहा हाथ थरथरा रहा था।

 “क्या तुम्हें सर्दी लग रही है?” रमाशोव ने पूछा।

 “नहीं प्यारे, मैं ठीक हूँ,” उसने हौले से जवाब दिया।

और अचानक, उच्छृंखल लालसा से वह चहकी, “आह, तुम्हारे साथ मुझे कितना अच्छा लग रहा है, मेरे प्यार!”

तब उसने नम्रता से, अविश्वासपूर्ण लहज़े में, उसका हाथ अपने हाथ में लेकर हौले से उसकी पतली पतली उँगलियों को छूते हुए कहा, “मुझे बताओ..विनती करता हूँ।तुम तो खुद ही कह रही हो कि उससे प्यार नहीं करतीं, तो तुम लोग साथ में क्यों हो?”

मगर वह झटके से ज़मीन से थोड़ा उठी, बैठ गई और घबराते हुए अपने माथे और गालों पर हाथ फेरने लगी, जैसे अभी अभी जागी हो।

”ख़ैर, देर हो गई है।चलेंगे। हमें ढूँढ़ने लगेंगे, शायद,” उसने एक अलग ही, पूरी तरह शांत आवाज़ में कहा।

वे घास से उठ गए और ख़ामोश एक दूसरे के सामने खड़े रहे, एक दूसरे की साँसों को सुनते हुए, आँखों में झाँकते हुए और उन्हें न देखते हुए।

 “अलविदा!” अचानक उसने खनखनाती आवाज़ में कहा।“अलविदा, मेरे सुख, थोड़ी सी देर को आए मेरे सुख!”

वह उसकी गर्दन से लिपट गई और अपना गर्म, नम मुँह उसके होठों और भिंचे हुए दाँतों से सटा लिया, वासना से कराहते हुए उसके जिस्म से लिपट गई, पैरों से लेकर सीने तक। रमाशोव को ऐसा लगा, कि बलूत के पेड़ों के काले शिखर एक ओर को झुक गए हैं और ज़मीन दूसरी ओर को तैर गई है, और वक़्त रुक गया है।

फिर उसने प्रयत्नपूर्वक स्वयँ को उसके हाथों से छुड़ाया और कठोरता से बोली, “अलविदा। बहुत हुआ। अब जाएँगे।”

रमाशोव उसके सामने घास पर गिर पड़ा, करीब करीब लेट गया, उसके पैरों को अपनी बाँहों में ले लिया और घुटनों को कस कर बेतहाशा चूमने लगा।

 “साशा, साशेन्का!” उसने बेमतलब फुसफुसाते हुए कहा, “तुम अपने आप को मुझे क्यों नहीं देना चाहती हो? किसलिए? मेरी हो जाओ!।”

 “चलो, चलो,” वह जल्दी मचाने लगी।“अब उठो भी, गिओर्गी अलेक्सेयेविच। हमें पकड़ लेंगे। चलिए!”

वे आवाज़ों की दिशा में चलने लगे। रमाशोव की टाँगें मुड़ रही थीं और थरथरा रही थीं और कनपटियों में हथौड़े बज रहे थे। चलते हुए वह लड़खड़ा रहा था।

 “मैं धोखा देना नहीं चाहती,” शूरच्का ने जल्दी जल्दी और अभी तक हाँफते हुए कहा, “मगर, नहीं, मैं धोखे से ऊपर हूँ, मगर मैं कायरता दिखाना नहीं चाहती। धोखे में – हमेशा कायरता होती है। मैं तुम्हें सच बताती हूँ: मैंने अपने पति को कभी भी धोखा नहीं दिया और तब तक धोखा नहीं दूँगी, जब तक उसे किसी कारण से छोड़ नहीं देती। मगर उसके चुंबन और उसका प्यार मेरे लिए भयानक है, वे मुझ में घिन भर देते हैं। सुनो, मैंने अभी अभी, - नहीं, बल्कि और भी पहले, जब तुम्हारे बारे में मैं सोचती थी, तुम्हारे होठों के बारे में सोचती थी, - मगर मैं अभी समझी हूँ कि कितना आश्चर्यजनक आनन्द, कितनी ख़ुशी मिलती है स्वयँ को अपने प्रिय व्यक्ति को सौंपने में, मगर मुझे कायरता पसन्द नहीं है, छुप छुप कर चोरी करना अच्छा नहीं लगता।और फिर, रुको, मेरी ओर झुको, मेरे प्यारे, मैं तुम्हारे कान में कहती हूँ, शर्म आती है, फिर – मुझे बच्चा नहीं चाहिए। छि:, कितना घिनौनापन! अंडर-ऑफिसर की बीबी, अड़तालीस रुबल्स तनख़्वाह, छह बच्चे, लंगोट, गरीबी, ओह कितना भयानक है!”

रमाशोव ने अविश्वास से उसकी ओर देखा।

 “मगर तुम्हारे पास तो पति है, ये तो अनिवार्य है,” उसने अनिर्णय से कहा।

शूरच्का ज़ोर से हँस पड़ी। इस हँसी में कोई सहज-अप्रियता थी, जिससे रमाशोव की आत्मा में ठंडी लहर दौड़ गई।

 “रोमच्का – ओय, ओय, ओय, कितने बे-व-कू-फ़ हो तुम!”

उसने रमाशोव की परिचित, अपनी पतली, बच्चों जैसी आवाज़ को खींचते हुए कहा। “क्या सचमुच ये चीज़ें नहीं समझते?”

उसने अनमनेपन से कंधे उचका दिए। अपनी नासमझी पर उसे अटपटा लग रहा था।

 “माफ़ कीजिए, मगर मुझे स्वीकार करना होगा, ईमानदारी से”

 “ठीक है, ख़ुदा बचाए, ज़रूरी भी नहीं है। कितने साफ़-सुथरे, कितने प्यारे हैं आप रोमच्का! तो, जब आप बड़े हो जाएँगे, तब शायद आपको मेरे शब्द याद आएँ: जो पति के साथ करना संभव है, वह प्रियतम के साथ असंभव है। आह, हाँ, इस बारे में सोचिए मत।ये घिनौनी चीज़ है – मगर कर क्या सकते हो?”

वे पिकनिक वाली जगह की ओर चल पड़े। पेड़ों के पीछे से अलाव की लपटें दिखाई दे रही थीं। खुरदुरे तने जो आग को घेरे हुए थे, काली धातु में ढले प्रतीत हो रहे थे, और उनके किनारों पर लाल अस्थिर प्रकाश टिमटिमा रहा था।

 “अच्छा, अगर मैं अपने आप को सुधार लूँ तो?” रमाशोव ने पूछा, “अगर मैं वह सब हासिल कर लूँ, या उससे भी कहीं ज़्यादा, जो तुम्हारा पति चाहता है, तब?”

 “तब – हाँ, हाँ, हाँ, हाँ”

वे बाहर मैदान में निकल आए थे। अब पूरा अलाव नज़र आ रहा था, और उसके चारों तरफ़ लोगों की काली-काली, छोटी-छोटी आकृतियाँ।

 “रोमच्का, अब आख़िरी बात,” अलेक्सान्द्रा पेत्रोव्ना ने जल्दी जल्दी, उत्तेजना और दुख भरी आवाज़ में कहा।“मैं आपकी शाम बरबाद नहीं करना चाहती थी, इसलिए मैंने कहा नहीं। सुनिए, अब आप कभी हमारे घर नहीं आएँगे।

अचरज और हकबकाहट से वह रुक गया।

"आख़िर क्यों? ओह, साशा!"

"चलिए, चलिए, मुझे नहीं मालूम कि ये कौन कर रहा है , मगर पति को गुमनाम ख़तों से बेज़ार कर रहे हैं। उसने मुझे दिखाए तो नहीं, मगर बातों बातों में ज़िक्र ज़रूर किया। कोई सड़क-छाप, घिनौनी बातें लिखते हैं आपके और मेरे बारे में। संक्षेप में, मैं प्रार्थना करती हूँ कि आप हमारे यहाँ न आएँ।”

 “साशा!” उसकी ओर हाथ बढ़ाते हुए प्रार्थना के स्वर में रमाशोव कराहा।

 “आह, मुझे स्वयँ को इससे बहुत तकलीफ़ होती है, मेरे प्यारे, मेरी जान, मेरे नाज़ुक रोमच्का! मगर यह ज़रूरी है। और, सुनिए: मुझे डर है कि वह ख़ुद आपसे इस बारे में बात करेगा, मैं मिन्नत करती हूँ, ख़ुदा के लिए, अपने आप पर काबू रखिए।मुझसे वादा कीजिए।”

 “अच्छा,” रमाशोव ने अफ़सोस से कहा।

 “तो, बस, सब ख़त्म हो गया। अलविदा, मेरे ग़रीब रोमच्का। ग़रीब बेचारा! आप हाथ दीजिए। इतनी ज़ोर से दबाईये कि मुझे दर्द होने लगे।हाँ, ऐसे, ओय!अब जाईये। अलविदा, मेरी ख़ुशी!”

अलाव तक पहुँचने से पहले वे जुदा हो गए। शूरच्का सीधे ऊपर की ओर चली गई और रमाशोव नीचे की ओर, चक्कर लगाते हुए, नदी के किनारे किनारे।ताश का खेल अभी ख़त्म नहीं हुआ था, मगर उनकी अनुपस्थिति को सबने भाँप लिया था।कम से कम दीत्स ने तो ऐसी बेशर्मी से अलाव की ओर आते हुए रमाशोव की ओर देखा और इतने कृत्रिम-भद्दे ढंग से खाँसा कि रमाशोव का दिल हुआ कि उस पर गरम गरम कोयले डाल दे।

फिर उसने देखा कि कैसे निकोलाएव ताश खेलते खेलते उठ गया और शूरच्का को एक किनारे ले जाकर ग़ुस्साए चेहरे से बड़ी देर तक तैश में उससे कुछ कहता रहा। वह अचानक तन गई और गुस्से तथा तिरस्कार से उससे कुछ शब्द कहे। और यह बड़ा, ताक़तवर आदमी अचानक नम्रता से सिकुड़ गया और उससे दूर हट गया – चेहरे पर पालतू, मगर अपने क्रोध को छिपाने वाले जंगली जानवर जैसा भाव लिए।

शीघ्र ही पिकनिक समाप्त हो गई। रात ठंडी हो गई थी और नदी से नमी आ रही थी। प्रसन्नता का ख़ज़ाना कब का ख़त्म हो चुका था, और सभी लोग, थके माँदे, बिखर गए, अप्रसन्न, अपनी अपनी ऊब को न छिपाते हुए। रमाशोव फिर से गाड़ी में बैठा मीखिन बहनों के सामने और पूरे रास्ते वह ख़ामोश रहा।उसकी स्मृति में बस गए थे काले ख़ामोश पेड़, और अंधेरी पहाड़ी, और उसकी चोटी पर धुंधलके का ख़ूनी लाल पट्टा, और महिला की सफ़ेद आकृति, जो अंधेरी, काली ख़ुशबूदार घास में लेटी थी। मगर फिर भी इस सचमुच के, गहरे और चुभते हुए अफ़सोस के बीच रुक रुक कर वह स्वयँ के बारे में उसका ख़ूबसूरत चेहरा ग़म के बादलों से ढक गया था।




Rate this content
Log in

Similar hindi story from Romance