"दूध का वो एक गिलास"

"दूध का वो एक गिलास"

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इन छुट्टियों में जब मैं घर गया हुआ था तो एक दिन सुबह सुबह लॉन में बैठा पेपर पढ़ रहा था, तभी एक बीस बाईस साल का नौजवान आया और मेरे पैर छूकर खड़ा हो गया। मैंने सिर उठा कर पहचानने की कोशिश की, मुझे एकदम से वो पहचान नहीं आया। "भैया मैं सुनील, माया मेरी मम्मी, आपके घर काम करती थीं।"

सुनील के इतना कहते ही मुझे सारी बातें याद आ गईं, पापा का कुछ ही दिन पहले लखनऊ से बनारस ट्रांसफर हुआ था और हम नए नए ही बनारस पहुंचे थे। मैं 15 साल का था और मेरा नवीं कक्षा में एडमिशन हुआ था। घर का काम करने के लिए जल्दी ही माँ को माया मिल गई थी। माया अपने साथ चार-पाँच साल के सुनील को भी ले आती थी, वो बहुत ही दुबला पतला और बीमार सा दिखता था, बिलकुल चुपचाप रहता और रसोई के दरवाज़े के पास जहाँ उसकी माँ बैठा देती बैठा रहता था।

मम्मी मुझे रोज़ सुबह नाश्ते के साथ एक गिलास दूध का भी देती थीं, नाश्ता तो मैं कर लेता लेकिन दूध नहीं पीता था। मम्मी को कहता तो डाँट पड़ती इसलिए मैं चुपचाप दूध के गिलास को किचन के सिंक में डाल देता था, ऐसा करते हुए सुनील मुझे एकटक देखता रहता था। यहाँ तक तो ठीक था लेकिन एक दिन मैं जब दूध को सिंक में डाल रहा था माया ने देख लिया, मैं डर गया कि आज तो मम्मी से जमकर डाँट पड़ेगी अगर माया ने मेरी शिकायत कर दी।

माया ने कहा "भैया जी आपको मिल रहा है तो कदर नहीं, यहाँ मुझ ग़रीब के बेटे को दूध का एक गिलास मिलना मुश्किल है।"

पता नहीं मेरे मन में क्या आया मैने बहुत सोचा और अगले दिन से दूध का गिलास सिंक में डालने की जगह सुनील को देने लगा, अब उसका स्वास्थ्य भी धीरे धीरे सुधारने लगा। वो बोलता अब भी कुछ नहीं था लेकिन ऐसा लगता था जैसे वो आँखों ही आँखों मे धन्यवाद कह रहा हो।

पता नहीं मैंने लड़कपन में जो किया वो सही था या नहीं, लेकिन आज सामने सुनील को देखकर खुशी ज़रुर हुई। वो बीमार सा लड़का आज मेरे सामने एकदम स्वस्थ खड़ा था।


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