तीर्थयात्रा
तीर्थयात्रा
सोचता हूँ, कहाँ से शुरू करूँ ? मेरे अम्मा और पापा, दोनों बिल्कुल एक दूसरे के विपरीत आचार विचार के व्यक्तित्व थे। अम्मा बिल्कुल धार्मिक प्रवृत्ति की थीं तो पापा को धर्म कर्म में बस इतनी ही आस्था थी कि वो अम्मा के किसी भी धार्मिक क्रिया कलाप का विरोध नहीं करते थे, जैसा और जो भी अम्मा कह देतीं वैसा बिना किसी लाग लपेट के कर देते थे। पापा की छोटी सी सरकारी नौकरी थी और वो पूरी निष्ठा और ईमानदारी से अपनी नौकरी करते थे। कोई फालतू शौक नहीं थे।अपना पूरा समय और पैसा अपने परिवार पे ख़र्च करते थे।
जीवन सामान्य तौर पर चल रहा था, बस अम्मा को कभी कभी लगता कि हमें कभी कभार करके कुछ धार्मिक यात्रायें भी कर लेनी चाहिए। लोगों से और पड़ोसियों से सुन सुन कर अम्मा का मन भी चार धाम यात्रा का करता था। तो एक दिन अम्मा ने पापा से कह ही दिया कि 'देखिए हम इतना कुछ करते हैं, मेरी इच्छा है कि हम चार धाम यात्रा करें।' पापा ने कहा 'देखो जानकी,मुझे तो कोई शौक नहीं, लेकिन तुम्हारी इच्छा पूरी करना मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ, लेकिन मेरी छोटी सी नौकरी है परिवार के खर्चे और दोनों बेटों की डॉक्टरी और इंजीनियरिंग की पढ़ाई है उसके बाद कुछ बचता ही कहाँ है ?' अम्मा बोलीं 'आप तो बस इज़ाजत दीजिये, मैंने पिछले कई सालों से थोड़े-थोड़े करके पैसे जोड़ रखे हैं और हिसाब भी लगा रखा कि यात्रा पे कितना खर्च आएगा ?'
बस फिर क्या,अम्मा की समझदारी काम आई और इस प्रकार अम्मा और पापा ने चार धाम की यात्रा की।
तो इस वृतांत को बताने की वजह यह थी कि यदि घर को चलाने वाली महिला समझदार हो तो जीवन कितनाआनन्द मय हो जाता है।
