AJAY AMITABH SUMAN

Abstract

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AJAY AMITABH SUMAN

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दफ्तर का धार्मिक भेड़िया

दफ्तर का धार्मिक भेड़िया

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कोरोना के दुसरे दौर का प्रकोप कम हो चला था। दिल्ली सरकार ने थोड़ी और ढील दे दी थी। डिस्ट्रिक्ट कोर्ट थोड़े थोड़े करके खोले जा रहे थे। मित्तल साहब का एक मैटर तीस हजारी कोर्ट में लगा हुआ था। 

जज साहब छुट्टी पे थे। उनके कोर्ट मास्टर को कोरोना हो गया था। लिहाजा कोर्ट से तारीख लेकर टी कैंटीन में चले गए। सोचा चाय के साथ साथ मित्रों से भी मुलाकात हो जाएगी। 

वहाँ पे उनके मित्र चावला साहब भी मिल गए। दोनों मित्र चाय की चुस्की लेने लगे। बातों बातों में बातों बातों का सिलसिला शुरु हो गया।

चावला साहब ने कहा, अब तो ऐसा महसूस हो रहा है, जैसे कि वो जीभ हैं और चारों तरफ दातों से घिरे हुए हैं। बड़ा संभल के रहना पड़ रहा है। थोड़ा सा बेफिक्र हुए कि नहीं कि दांतों से कुचल दिए जाओगे।

मित्तल साहब को बड़ा आश्चर्य हुआ। इतने मजबूत और दृढ निश्चयी व्यक्ति के मुख से ऐसी निराशाजनक बातें। उम्मीद के बिल्कुल प्रतिकूल। कम से कम चावला साहब के मुख से ऐसी बातों की उम्मीद तो बिल्कुल नहीं थी।

मित्तल साहब ने थोड़ा आश्चर्य चकित होकर पूछा ; क्या हो गया चावला साहब, ऐसी नाउम्मीदी की बातें क्यों ? बुरे वक्त का दौर चल रहा है। बुरे वक्त की एक अच्छी बात ये है कि इसको भी एक दिन गुजर जाना होता है। बस थोड़े से वक्त की बात है।

चावला साहब ने बताया : ये जो डॉक्टर की कौम होती है ना, जिसे हम भगवान का दूसरा रूप कहते हैं, दरअसल इन्सान की शक्ल में भेड़िये होते हैं। उन्होंने आगे कहा, उन्हें कोरोना हो गया था। उनका ओक्सिजन लेवल 70 चला गया था। फेफड़े की भी कंडीशन 16/25 थी जो की काफी खराब थी। 

हॉस्पिटल को रोगी से कोई मतलब नहीं था। उन्हें तो लेवल नोट गिनने से मतलब था। रोज के रोज लोग मरते चले जा रहे थे। पर डॉक्टर केवल ऑनलाइन हीं सलाह दे रहे थे। किसी को भी खांसी हो तो काफी मोटे मोटे पैसे वसूले जा रहे थे।आखिर किस मुंह से हम इन्हें ईश्वर का दूसरा रूप कहें ?

मित्तल साहब ने कहा : देखिए चावला साहब, यदि आपका अनुभव किसी एक हॉस्पिटल या किसी एक डॉक्टर के साथ खराब है, इसका ये तो मतलब नहीं कि सारी की सारी डॉक्टर की कौम हीं खराब है। 

अभी देखिए, हमारे सामने डॉ. अग्रवाल का उदाहरण है। जब तक जिन्दा रहे, तब तक लोगो की सेवा करते रहे, यहाँ तक मरते मरते भी लोगो को कोरोना से चेताते हीं रहे।

चावला साहब ने आगे कहा : भाई होस्पिटल तो हास्पिटल, हमारे दफ्तर में भी सब भेड़िये हीं बैठे हैं। किसी को ये फ़िक्र नहीं कि चावला साहब मौत के मुंह से लड़कर आये हैं, थोड़ी सहायता कर लें। 

चाहे जूनियर हो, स्टेनो ग्राफर हो, क्लर्क हो या क्लाइंट हो, मुंह पर तो सब मीठी मीठी बातें करते हैं, पर सबको अपनी अपनी पड़ी हैं। सबको अपने मतलब से मतलब है। कभी कभी तो मुझे मौत से भय लगने लगता है।

मित्तल साहब बोले : भाई हम वकीलों की जमात भी कौन सी अच्छी है ? हमारे सामने जो भी क्लाइंट आता है, वो अपनी परेशानी लेकर हीं आता है। उसके लिए परेशानी का मौका हमारे लिए मौका है। हम कौन सा संत जैसा व्यवहार करते हैं ?

चावला साहब ने बीच में टोकते हुए कहा ; लेकिन हम तो मौत के बाद भी सौदा तो नहीं करते। हमारे केस में यदि कोई क्लाइंट लूट भी जाता है, फिर भी वो जिन्दा तो रहता है। कम से कम वो फिर से कमा तो सकता है।

मित्तल साहब ने कहा : भाई यदि किसी क्लाइंट का खून चूस चूस के छोड़ दिया भी तो क्या बचा ? इससे तो अच्छा यही कि जिन्दा लाश न बनकर कोई मर हीं जाये। और रोज रोज मुर्दा लाशें देखकर डॉक्टर तो ऐसे हीं निर्दयी हो जाते हैं। आप हीं बताइये अगर डॉक्टर मरीज से प्यार करने लगे तो शरीर की चिर फाड़ कैसे कर पाएंगे ?

शमशान घाट का कर्मचारी लाशों को जलाकर हीं अपनी जीविका चलाता है। किसी की मृत्यु उसके लिए मौका प्रदान करती है पैसे कमाने का। एक शेर गाय के दोस्ती तो नहीं कर सकता। गाय और घास में कोई मित्रता का तो समंध नहीं हो सकता ? एक की मृत्यु दिसरे के लिए जीवन है। हमें इस तथ्य को स्वीकार कर लेना चाहिए। 

चावला साहब ने आगे कहा ; ठीक है डाक्टरों की बात छोड़िये, कोर्ट को हीं देख लीजिए, एक स्टाफ को कोरोना हो जाये तो पुरे कोर्ट की छुट्टी, पर यदि वकील साहब को कोरोना हुआ है तो एक सप्ताह की डेट ऐसे देते हैं जैसे कि एहसान कर रहे हों। 

और तो और दफ्तर से सारे कर्मचारी को अपनी पड़ी है, चावला साहब कैसे हैं, इसकी चिंता किसी को नहीं ? अपने भी पराये हो गए। जिन्हें मैं अपना समझता था, सबने दुरी बना ली, जैसे कि मैं कोई अछूत हूँ। कभी कभी तो मुझे जीवन से भय लगने लगता है। 

मित्तल साहब समझ गए, कोरोना के समय अपने व्यक्तिगत बुरे अनुभवों के कारण चावला साहब काफी हताश हो गए हैं। 

उन्होंने चावला साहब को समझाते हुए कहा : देखिए चावला साहब जीवन तो संघर्ष का हीं नाम है। जो चले गए वो चले गए। हम तो जंगल में हीं जी रहे हैं। जीवन जंगल के नियमों के अनुसार हीं चलता है। जो समर्थवान है वो जीता है। 

चावला साहब ने कहा : लेकिन नैतिकता भी तो किसी चिड़िया का नाम है। 

मित्तल साहब ने कहा : भाई साहब नैतिकता तो हमें तभी दिखाई पड़ती है जब हम विपत्ति में पड़ते हैं। जब औरों पे दुःख आता है तो हम कौन सा नैतिकता का पालन कर लेते हैं ? कौन सा व्यक्ति है जो ज्यादा से ज्यादा पैसा नहीं कमाना चाहता है ? पैसा कमाने में हम कौन सा नैतिक रह पाते हैं। 

जब ट्रैफिक सिग्नल पर भरी गर्मी में कोई लंगड़ा आकर पैसा मांगता है, तो हम कौन सा पैसा दे देते हैं। हमारे दफ्तर में यदि कोई स्टाफ बीमार पड़ जाता है तो हमें कौन सी दया आती है उनपर ? क्या हम उनका पैसा नहीं काट लेते ? कम से कम इस तरह की हरकत डॉक्टर तो नहीं करते होंगे। 

चावला साहब : पर कुछ डॉक्टर तो किडनी भी निकला लेते हैं ?

मित्तल साहब : हाँ पर कुछ हीं। पकडे जाने पर सजा भी तो होती है। जो क्राइम करते हैं सजा तो भुगतते हीं हैं, चाहे डॉक्टर हो, वकील हो या कि दफ्तर का कोई कर्मचारी। 

यदि ये दुनिया जंगल है तो जीने के लिए भेड़िया बनना हीं पड़ता है। ये जो कोर्ट, स्टाफ, डॉक्टर, दफ्तर के लोग आपको भेड़िये दिखाई पड़ है, केवल वो हीं नहीं, अपितु आप और मैं भी भेड़िये हैं। ये भेड़िया पन जीने के लिए जरुरी है। हाँ अब ये स्वयं पर निर्भर करता है कि आप एक अच्छा भेड़िया बनकर रहते है, या कि सिर्फ भेड़िया।

चावला साहब के होठों पर व्ययन्गात्मक मुस्कान खेलने लगी। 

उन्होंने उसी लहजे में मित्तल साहब से कहा : अच्छा मित्तल साहब कोई धर्मिक भेड़िया को जानते हैं तो जरा बताइए ?

मित्तल साहब सोचने की मुद्रा में आ गए। उत्तर नहीं मिल रहा था।

चावला साहब ने कहा : अच्छा भाई चाय तो ख़त्म हो गई, अब चला जाया। और हाँ उत्तर मिले तो जरुर बताइएगा, कोई धार्मिक भेड़िया, किसी एक दफ्तर का।


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