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Hargovind Wadhwani

Tragedy

3  

Hargovind Wadhwani

Tragedy

दोगले मुॅंह

दोगले मुॅंह

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आज उस घर में ग़मगिनी छाई हुई थी....! 


घर के सभी सदस्य ख़ामोश एक दूसरे की सिर्फ़ शक्लें देख रहे थे.....! 

अचानक खामोशी को तोड़ते हुए मोहनलाल ने अपनी पत्नी को सवाल किया, शीला आज कल की लड़कियों को क्या हो गया है, बला इतनी हद तक भी कोई गिर सकता है.... मोहनलाल कुछ आगे बोलना चाह रहे थे मगर आगे बोल नहीं पाए और सिर्फ़ सिसकते ही रह गए........ और फिर कुछ देर और खामोशी छा गई.....! 


मोहनलाल का एक सुखी एवम् छोटा सा परिवार था, पति-पत्नी, तथा एक बेटा और एक बेटी. बडें नाजों से पाला था अपने बच्चों को, एक छोटे से गाँव में रहते हुए भी अपने छोटे से मगर साफ़ सुधरे घर में रहते तथा अपना धंधा रोज़गार चलाते थे. अपने गाँव में सबसे इज्जतदार कहलाने वाले मोहनलाल आज अपनी बहू की हरकतों से टूट चुके थे.....

अचानक शीलादेवी बोल उठी, इतना झुठ भी भला इंसान कैसे बोल सकता है...? क्या यह अपने माता-पिता से मिले संस्कार हैं या किसी और से संचार की जा रही हरकत....? और एक पढ़ी लिखी लड़की क्या अपनी ही ज़िंदगी इस तरह तबाह कर सकती है....?


कुछ साल पूर्व ही शीलादेवी और मोहनलाल ने अपने किसी रिश्तेदार के कहने पर अपने बेटे की शादी किसी और जाति में करवाई थी, यह मानते हुए यह रिश्ता हुआ था कि जाति पाती तो इंसान की देन है, भगवान ने तो सिर्फ़ मनुष्य बनाया है....! 


बढ़े धाम धुम से शादी की गई....! कुछ महीने तो सब कुछ अच्छा चलता रहा मगर बीच बीच में बहू की तरफ़ से अलग होने का दुआं उठता रहता......! 


इस दौरान मोहनलाल को अपनी बेटी के लिए एक बहुत अच्छा रिश्ता आया, मोहनलाल ने वहाँ अपनी बेटी का ब्याह करवा दिया....! अपनी पुत्री के सुखी दाम्पत्य जीवन के लिए आज मोहनलाल तथा शीलादेवी अत्यंत प्रसन्न हैं....! जितना जमाई गुणी ज्ञानी है, उतनी ही पुत्री भी.....! प्रेम प्यार से अपना दाम्पत्य जीवन गुज़ार रहे है ! कहा जाता है कि यह संस्कार बच्चों में अपने माता-पिता से ही आते हैं.....!


चुपकी को तोड़ते हुए अचानक महेश बोल पड़ा.... पापा सुरेखा इतनी ज़्यादा गिरी हुई हरकत बिलकुल नहीं कर सकती थी, आप मानो या ना मानो उसके दिमाग़ में कचरा डालने वाला कोई और था..... 


अपने बेटे महेश को उसकी बीवी सुरेखा के बारे बोलते मोहनलाल सुनते रहे...... महेश आगे बोला, पापा सुरेखा को पैसे की भूख और वह सब फिर अपने नाम होने की लालसा पिछले कुछ समय से बढ़ती चली जा रही थी. मैं समझाने की कोशिश करता था तो वह समझ भी जाती और कुछ दिन फिर शांति से सब कुछ चलता......! हाँ मगर उसको मन में कहीं ना कहीं अलग होने का कीड़ा चलता रहता था एवम् उसके लिए जाने अनजाने कोई ना कोई बहाना निकाल भी लेती जिस से घर में कलेश पैदा होता रहता था....! 


मगर बेटा इस बार तो बहू ने सारी हदें पार कर दी, जिस तरह का चिल्लाना-चीखना और इल्ज़ामात हम पर डाले...... आगे बोलना चाह ही रहे थे तो घर के खुले दरवाज़े से पड़ोस के दादा-दादी को घर के भीतर आता देख कर ख़ामोश हो गए एवम् बोल पड़े..... दादा जी आइए आइए.. तशरीफ़ रखिए.....


दादा जी बोल पड़े, बेटा किसने किस पर इल्ज़ाम लगा दिए फिर..... मैंने आते आते इतना तो सुन ही लिया था......!


कुछ नहीं कुछ नहीं, दादाजी यह तो ऐसे ही कोई बात चल रही थी..... मोहनलाल बोले..!


बेटा, मगर तेरी रोयी आँखें और उदास चेहरा तो कुछ और ही बता रहा है..... कहीं बहू वाली बातों को याद करके तो दुखी नहीं हो रहे.... दादाजी बोल पड़े.....!


और नहीं को क्या, इनको और कौन से दुःख तकलीफ़ आ गए, एक वही थी जो हस्ते खेलते घर को छिनब्बिन करके चली गई.... दादी बोल पड़ी.....!


आप सही कह रहे हैं दादीजी.... शीला देवी बोल पड़ी....एक लड़की घर को स्वर्ग भी बना सकती है, अगर गुणी और संस्कारी है वर्ना घर का नरक बनना तय ही है अगर लड़की सिरफिरी और ऊपर से माँ-बाप का हस्तक्षेप उसकी ज़िंदगी में हो फिर तो बस भगवान ही बचाए.....!


दादाजी बोले, बेटा जो करेगा सो भरेगा, किसी के झुठ बोलने से या इल्ज़ाम लगाने से आप गुनहगार साबित नहीं हो जाते.... भगवान के घर देर है अंधेर नहीं, और फिर इतने बढ़े गुनाह का हिसाब तो देना पड़ेगा, कोई झुठ की बुनियाद पर भला अपनी दुनिया कैसे बसा सकता है और कैसे सुखी रह सकता है.......! बस अब अपने मन को खुश रखो और बाक़ी बची ज़िंदगी शांति से और सुखमय बनाओ, यह मान लो कि भगवान ने बचा लिया आप सबको...! 


दादाजी, आपकी बात बिलकुल ठीक है, मोहनलाल जी बोले..... मगर वो सारी बातें, वो सारे लगाए इल्ज़ाम मानो आँखों के सामने आ जाते हैं..... और फिर हमारी पोती सायरा, उसको भला दिल से कैसे निकालें, सारा सारा दिन पीछे पीछे..... दादू दादू करती चिपकती रहती......

और अचानक शीला देवी ने सिसकना शुरू कर दिया...सिसकते हुए बोली.... हमारी प्यारी बच्ची सायरा, हमारे ज़िगर का टुकड़ा..... बहु ने इतनी शैतानियत की, कि उस बच्ची के दिल में भी हम सब के लिए ज़हर बर दिया...... इतना ही नहीं हमसे बहुत दूर ले गई.....! 


बीती बातों को याद करते हुए मोहनलाल बोलने लगे.... उस दिन शाम हम सब साथ बैठ कर बातें कर रहे थे, इत्तफ़ाक़न किशनचंद भी उस शाम हमारे साथ बैठे थे, हम सब नीचे कमरे में थे, बहू सुरेखा ऊपर अपने कमरे में थी.... और अचानक ऐसा लगा मानो सुरेखा मोबाइल फ़ोन पर बातें कर रही थी..... और यह क्या, वो बातें नहीं कर रही थी वो चीख रही थी.... फिर जो कानों पर बातें पड़ी उस से तो पाँव तले ज़मीन निकल गई....... वो चीखते चीखते बोलने लगी, पापा मुझे बचाओ, मुझे ये लोग मार रहे हैं, मेरे कपड़े फाड़ रहे हैं.... आगे आगे जो बोलती गई वो तो बताने लायक़ भी नहीं.......! 

हम आगे कुछ समझ पाएँ उस से पहले महेश ऊपर की तरफ़ भागा और उसके पीछे पीछे भागे किशनचंद......!

किसी तरह से उसे शांत करके, नीचे कमरे में ले आए.... भला हो किशनचंद का कि वो उस समय मौजूद था, उसने इस साज़िश को भलीभाँति समझते हुए, और बात को सम्भालते हुए, बहू को अपने साथ अपने घर ले गया.......! 


बीच में ही शीलादेवी बोल पड़ी, कहानी यहाँ खतम नहीं हो जाती..... अगले कुछ दिनों में तो बहू के पिता और शायद कोई रिश्तेदार साथ आ दमके.....वो रिश्तेदार कम गुंडा ज़्यादा लग रहा था....! हद तो तब हो गई की चीख चीख कर अड़ोस पड़ोस को इकट्ठा करने की मंशा के साथ वही बातें दोहराना शुरू कर दी जो बहू ने फ़ोन पर की थी...... इतना ही नहीं पुलिस भुलाने की दमकियाँ, गुंडे बुलाने की धमकियाँ दी जाने लगी......

बीच में महेश बोल पड़ा कि पापा मुझे समझ में नहीं आया, कि अगर हमने कोई गुनाह ही नहीं किया फिर डरने की क्या बात थी.....? हम क्यों चुप रहे...?


बेटा....इज़्ज़तदार आदमी अपनी इज़्ज़त बचाने के लिए किसी तरह का ज़हर भी पीने को तैयार होते हैं.....! बाज़ार में खड़े होकर नंगा नाच करना तो सिर्फ़ उन लोगों का काम होता है जिनकी खुद की कोई इज़्ज़त नहीं होती और भला वो दूसरे की इज़्ज़त का क्या लिहाज़ करेगा जिनकी खुद की कोई इज़्ज़त ना हो... मोहनलाल अपने बेटे को समझाने लगे....बीच में ही शीलादेवी बोल पड़ी, मुझे भी एक बात समझ में नहीं आयी की हम अगले की बेहूदी हरकतों की वजह से, जल्दबाज़ी में अपना सारा घर ख़ाली करके बैठ गए....... ना बाबा ना वह कोई जल्दबाज़ी नहीं थी, मोहनलाल बोल पड़े..... फिर वही बात आ जाती है ना... हमने कोई ऐसी कार्यवाही तों करनी नहीं थी और फिर हमें अगलों की मंशा का भी तो पता नहीं था की वो चाहते क्या थे....उनकी चिल्ला चीखी के सामने अपनी इज़्ज़त तो बचानी ही थी..... और ऊपर फिर भगवान भला करे उस किशन चंद का जिसने हमें तकरारों से बचाने के लिए हमें अपने घर से निकालकर खुद के घर भेज़ दिया......!


देखो बेशर्मी कितनी बढ़ गई है दुनिया में, घर से सारी ज़रूरी वस्तुएँ निकाल कर ले गए मानो उन्होंने दी हुई थी..... बेशर्मी की तो हद यह हो गयी की बहू ने सारा सामान तो ले लिया मगर अपने बाप के लिए भी सामान उठाकर ले गयी.......अचानक बीच में शीलादेवी बोल पड़ी.... हद तों तब हो गई जब बहू ने, उसके माँ-बाप द्वारा हमारी बेटी की शादी पर दिए गिफ़्ट तक माँग कर वापिस ले लिए.....!

माँ मगर हमें भी सुरेखा के भाई की शादी पर दी गिफ़्ट् वापस माँग लेनी चाहिए थी..... महेश बीच में ही बोल पड़ा.....! 


ना बेटा ना, जैसे के साथ वैसा होना आसान है मगर यह काम इज़्ज़तदार लोगों के नहीं होते..... कितने दिन खाया जा सकता है किसी से ज़बरदस्ती निकलवाया धन......मोहनलाल बोल पड़े.....!


फिर शीलादेवी अफ़सोस ज़ाहिर करने की मुद्रा में बोलने लगी..... दादा जी अफ़सोस तो इस बात का है कि हर अपनी पसंद की चीज़ घर से अपने हाथों से उठा ले जाने के बाद भी, शहर मे डनडोरा तो यही पीटा कि मुझे तो ख़ाली हाथ घर से दक्के मारकर निकाल दिया....बीच में मोहनलाल फिर बोल पड़े.... दादाजी भगवान ने एक और बात में बचा लिया कि मैंने बहू के बाप के अकाउंट में रुपए ट्रान्स्फ़र किए थे उसकी रिसिपट मेरे पास है.... वरना शायद वो भी माँग लेते......! 

रुपए क्यों ट्रान्स्फ़र करने पड़े..... दादाजी ने मोहनलाल से पूछा.......

मोहनलाल बोले, दादाजी, कुछ वर्ष पूर्व बहू ज़िद पर अटकी कि उसने पार्लर खोलना है..... हमने खूब समझाया कि बेटा इस वक़्त हमारी कंडिशन ठीक नहीं है मगर वो इतना ज़्यादा हठ पर थी कि चुपचाप में अपने पिता से रुपए मँगवा लिए.......! बहू की इस हरकत से मुझे बहुत दुःख और आघात लगा मगर मैं कुछ बोलता तो जो अब किया गया हमारे साथ, वो उस वक़्त किया जाता.....ख़ैर रुपयों का इंतज़ाम होते ही मैंने बैंक द्वारा ही सारे रुपए उनको ट्रान्स्फ़र कर दिए........अरे देखा हम तो बातों में इतना आगे निकल गए कि दादा दादी को पानी तक नहीं पिलाया.......शीला उठो चाय पानी का इंतज़ाम कर लो........


दादी जो काफ़ी देर से चुप करके सुन रही थी, वो बोल पड़ी..... बेटा, अच्छे लोगों के साथ अच्छा ही होता है..... मैं तो कहूँगी जल्दी जान बच गई क्योंकी झुठे और मक्कार लोगों का क्या भरोसा...... मालिक का शूकर शूकर करो और बोलो जान बचाई लाखों पाया..... सामान का क्या है.... आज नहीं तो कल फिर बन जाएगा...... आप सुखी रहो और मालिक से उनके लिए भी प्रार्थना करो की वो भी सुखी रहें......!

दादीजी क्या बताऊँ.... ऐसी दुआ कैसे निकल सकती है..... पता है, इतनी ज़्यादा बदतमीज़ी के बीच एक और कारिस्तानी करके गए हैं वो तो आपको पापा ने बताया ही नहीं..... जब घर से उठाए सामान और बाक़ी सब बातों की लिखा पढ़ी हो रही थी तो फिर अड़ गए कि सुरेखा के अकाउंट में हर महीने रुपए डालने पड़ेंगे.....अब मेरी अपनी इतनी कम तनख़्वाह...पापा भी सब बेचबाच के यहाँ बैठे, जो पार्लर खोला था... वो भी अपने नाम करवा लिया सुरेखा ने, ऊपर से यह शर्त भी पापाने मान ली मानो नोट छापने की मशीन लगी हो......महेश बोलता ही चला गया मगर मोहनलाल ने महेश को इशारे से रोकते हुए टोका.... बेटा उस वक़्त मैं क्या करता..... भगवान पर बरोसा करो, सब ठीक हो जाएगा......अभी अभी तो दादी ने समझाया कि अच्छे लोगों के साथ अच्छा ही होता है.... चलो सब खोने के बाद ही सही, ज़िंदगी सुखमय और शांतिमय तो बनी वरना रोज़ का रोज़ कलेश कहाँ सहा जाता था.... आए दिन कुछ ना कुछ लगा रहता था...: एक और बात....... 

बस करो जी अब यह सारी बातें.... नाश्ते की प्लेटें कमरे में लाते हुए शीला देवी बोल पड़ी...... चलो अब इस बात को खतम करके कोई अच्छी बात करते है और साथ साथ चाय नास्ता करते हैं..... लीजिए दादाजी.... दादीजी आप भी लीजिए......

मगर एक बार फिर थोड़ी देर के लिए घर में खामोशी छा गई.......! 


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