दिखावे के कंबल
दिखावे के कंबल
'भाभी एक सूटर दई दो' गीता को किचन में देखकर कामवाली बोली।
"अभी तो दीवाली में कपड़े दिए थे। तुम लोगों को चीजें मांगते जरा भी शर्म नहीं आती।"
गीता भनभनाने लगी।
दूसरे दिन कामवाली नहीं आई।
"देखो तेवर महारानी के,स्वेटर नहीं दिया तो आज गायब। अब मरी के काम भी मैं करूं। मतलबी होती हैं सब !"
गीता का पारा सातवें आसमान पर था।
"सुनो ! वो जो कंबल लाकर रखे थे चैरिटी के लिए, उनको गाड़ी में रखवा दो।"
गीता के पति नाश्ता खत्म करते बोले।
गीता कुछ सामान्य हुई।
पति के पास जाकर मीठे स्वर मे बोली-"ऐ जी ! इस बार कंबल बाँटते खूब फोटो खिंचा लेना और वीडियो भी बनवा लेना। सारे सोशल मीडिया अकांउंट पर तुरंत अपलोड कर दूंगी मैं। देखना इस बार टिकट तुम्हें ही मिलेगा।"
हां भई वो सब इंतजाम है। केवल इसके प्रचार के लिए मैने हजारों रूपये दिए हैं। पांच सौ कंबल बंटा नहीं कि जयजयकार हुआ समझो। गीता के पति ने गर्वित मुस्कान से कहा।
सुबह के अखबारों में कंबल बांटने की तस्वीरों की फोटो खींचकर फेसबुक पर अपलोड करने में लगी गीता के फोन पर कामवाली के पति का फोन आया है।
"हैलो दीदी ! कल हमरी घरवाली खतम हो गई। दीदी !अब उ नाही आएगी कभी काम पर दीदी। ओकर क्रिया कर्म के लिए कुछ पैसे दे दो दीदी। उधार नहीं दीदी। उकरे तनखाह दे दो दीदी। परसों उका ठंडी लाग गई रहे दीदी। उका लगे सूटर नाही रहे दीदी !"
सुबकते हुए कामवाली का पति बोलता जा रहा था।
गीता भावशून्य थी।
दिखावे के कंबल बँट चुके थे।असल की ठंडी ने प्राण ले लिए थे।