घड़ी

घड़ी

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"मेरी घड़ी मुझे वापस चाहिए !"

"ओके बाबा मिल जाएगी तुम्हारी घड़ी "

"नहीं मुझे चाहिए! चाहिए! चाहिए !"

रिया और रमन में बहस हो रही थी।

"तुम जानते हो कितने अरमानों से वो घड़ी मैने खरीदी थी तुम्हारे लिए?भईया और भाभी की नजरों से छुपाकर किस तरह शापर्स में बिल भरा था और तुमसे मिलने तक कितनी निगाहों से बचाकर रखा था उसे?मेरे पूरे महीने का खर्च चला गया था ताकि तुम मंहगी घड़ी पहन सको"रिया अब भी गुस्से में थी।

"सब जानता हूँ।पर क्या करता।मेरे भईया को वह पसंद आ गई तो मैं ना नही कर सका।रिया! मेरे लिए मेरे भईया सबकुछ हैं।वह मेरी सब इच्छाओं का मान रखते आए हैं तो क्या मैं उनकी एक छोटी सी ख्वाहिश पूरी नहीं कर सकता!"रमन ने अपनी बात रखनी चाही।

"तो क्या मेरा प्रेम तुम्हारे लिए कुछ भी नहीं ?"बोलो क्या मैं देख पाऊँगी तुम्हारी कलाई की खुशबू में डूबी और मेरे प्रेम की यादों से लिपटी वह घड़ी किसी और के हाथों में?"रिया रो पड़ी।

रमन को वह दिन याद आ रहा था जब भाई की घड़ी टूट गई थी और उसने रिया की दी हुई घड़ी उनको पहना दी थी लेकिन ऐसा करते समय उसने सोचा था कि जल्द ही भाई के लिए एक अच्छी घड़ी ला दूँगा पर ले नही पाया था और मुंबई आते समय वह घडी भाई के पास ही रह गई थी क्योंकि वह अपने भईया से माँग नहीं पाया था।इतनी हिम्मत नही पड़ी थी उसे कि भाई के हाथ को सूना करके वह अपनी कलाई सजा ले।

रिया को समझा सकता था पर भाई को किसी अभाव में नही देख सकता था।

रिया रो रही थी और वह कशमकश में पड़ा उस समय का इंतजार कर रहा था कि रिया का दुख और गुस्सा थोड़ा कम हो तो उसे अपने प्रेम से उसपर मरहम लगाए.....


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