दीवार
दीवार
वैसे मेरे जैसी बहुत है यहां, आखिर पूरी हवेली जो है, लेकिन जो मैंने देखा है वह शायद ही किसी ने देखा होगा।
70 साल पहले रखी गई नींव का एक हिस्सा हूँ मैं, जो अब कमजोर पड़ गई है हालांकि फिर भी सबसे मज़बूत। मुझ पर लगी हुई कुछ तस्वीरें भी अब मुझे बोझ लगने लगी थी, शायद मेरा बुड्ढा शरीर अब उन्हें नहीं ले पा रहा था।
एक प्लास्टिक की अलमारी जिसका आगे का हिस्सा मैं बस तभी देख पाई थी जब वह लाई गई थी और तब से लेकर आज तक वह ठीक मेरे साथ सटाकर रखी है, जिसके पीछे मेरा कुछ हिस्सा छुपा का छुपा ही रह गया।
इन 70 सालों में मैंने तीन पीढ़ियाॅं देख ली, खैर अब तीसरी पीढ़ी के बच्चे मुझे गंदा नहीं करेंगे। अब वह लोग विदेश में जो रहने लगे है।
हर रोज मुझे देखने, या शायद मुझ पर लगी तस्वीरों को देखने, दादाजी कमरे का दरवाजा दिन में एक बार खोलते थे और फिर सारा दिन में बंद कमरे का हिस्सा बनकर रहती थी।
हाॅं यह सच है कि जब कमरा खुला होता था तब भी बात एक ही थी, तब भी मुझे अपने सामने वही मेरी दोस्त के ऊपर लगा एक टेलीविजन दिखाई देता, था बस फर्क इतना था कि मैं टेलीविजन देख पाती थी और उससे रेडियो में ही खुश रहना पड़ता था।
लेकिन अब वह टेलीविजन को चालू हुए भी सालों हो गए। उस पर लगी धूल की परत भी एक-एक इंच मोटी हो चुकी है। क्या करें आखिर दादाजी का शरीर घर की सफाई करने के काबिल था नहीं, और राजू तो सिर्फ दादाजी के कमरे की सफाई कर देता था।
जब राजू मेरे दरवाजे के बाहर से गुजरता था, तो कुछ ना कुछ बातें कहता रहता था। यह सब मैं देख तो नहीं पाती थी लेकिन सुन लेती थी। एक दिन ऐसे ही राजू कहते जा रहा था कि, "सब तो अमेरिका चले गए और इस बुड्ढे को मेरे लिए छोड़ गए", उस वक्त मेरे जेहन में यही था कि, खड़े-खड़े अब थक तो गई हूँ, मन करता है इसके ऊपर ही गिर जाऊॅं, लेकिन वह कमरे के अंदर कभी आया नहीं और मैं बाहर जा नहीं सकती।
अब मुझे रंगे भी 20 साल हो गए। वह अमेरिका वालों के कलर से मुझ पर बनाए गए चित्र और लिखे गए शब्द भी वैसे के वैसे पड़े हैं। हर एक चित्र को बारीकियों से देखा है मैंने, हर एक शब्द को ध्यान से पढ़ा है मैंने, लेकिन फिर भी हर रोज उन सब पर एक बार फ़िर से नजर घुमा लेती हूॅं, क्या करूं समय ही इतना होता था मेरे पास। दिन भर सोते नहीं थी मैं, क्या पता दादाजी कब मुझसे मिलने आ जाए और मेरी ऑंख लगी हो तो मैं उनको देख ना पाऊॅं।
एक दिन ऐसे ही दादाजी मुझसे मिलने आए और उन तस्वीरों को देख कर मुस्कुराने लगे। मैं हैरान हो गई, दादा जी हर रोज तो ऑंखों से आंसू बहाते थे आज हंस क्यों रहे हैं? देखते-देखते वह फर्श पर गिर पड़े। फिर ना कुछ आवाज आई और ना ही कोई बाहर से आया। 2 घंटे ऐसे ही बीत गए।
दादा जी मेरे ऑंखों के सामने थे। मैं आवाज देना चाहती थी लेकिन मेरे शब्द नहीं थे आखिर निर्जीव जो हूँ।
और 2 घंटे बाद जब राजू दादाजी-दादाजी चिल्लाते हुए सारा घर देख रहा था, तब उसने पहली बार मेरे कमरे का दरवाजा खोला और दादा जी को ऐसी हालत में देख, दौड़ के उनके पास आया और बोला, "लो बुड्ढा तो गया"। उस वक्त भी मेरा मन कर रहा था कि, गिर जाऊॅं और राजू को भी वही भेज दूॅं, लेकिन फ़िर दादाजी के मृत शरीर को और कितना तकलीफ देती मैं।
राजू बाहर गया और थोड़ी देर बाद कुछ लोग आए और दादा जी को अपने साथ ले गए। उसके बाद मैंने दादाजी को कभी नहीं देखा। दादा जी के मरने के 2 दिन बाद, घर में बहुत चहल-पहल होने लगी बहुत सारी आवाज आ रही थी बाहर से लेकिन कुछ साफ नहीं थी। कुछ देर बाद दो बच्चे मेरे कमरे में आए। मैं बहुत खुश हो गई, आखिर 20 सालों बाद बच्चों जो देख रही थी।
लेकिन बदलाव बहुत आ गया था। वह क्या बोल रहे थे मेरे समझ में तो कुछ नहीं आ रहा था। शायद यह अमेरिका वाली भाषा थी, और मैं तो जब से बनी हूँ तब से सिर्फ हिंदी सुनती आ रही हूँ।
वह टीवी भी कभी खुला ही नहीं। दोनों हाथ में मोबाइल और लैपटॉप लेकर बैठ जाते थे। मुझे ना तो कुछ पहले जैसा लगा, और ना ही कोई नयापन नजर आया, मैं अब हर रोज की तरह दादाजी का इंतजार करती थी, और करते ही रह जाती थी। कुछ दिनों बाद वह सब भी चले गए।
मैं दादाजी की बातों को याद करने लगी, "बच्चों का भविष्य उज्ज्वल हो यही प्रार्थना की थी, इतना उज्ज्वल हो गया कि गोरे लोगों के......"
वह खुदाई के कांटे मुझ पर पड़े और मैं ढह गई। हवेली ढहा दी गई।
शायद दादा जी का ही इंतजार था। उन्हें भी मुझे भी।
फर्क बस इतना था कि, उन्हें दादा जी के होते हुए और मुझे दादाजी के बाद।
