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Pratiman Uniyal

Tragedy

4.2  

Pratiman Uniyal

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धुआँ

धुआँ

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यह कैसा धुआँ है। कसैला, काला, गाढ़ा, जिस्म पिघल के गिर रहा है। नहीं यह तो टायर है, टप टप पिघल रहा है। नहीं, पक्का यह जिस्म ही है, पानी की तरह पिघल रहा है, गाढे, काले पानी की तरह। भक्क से लपटे उसे लपेटे हुए राख कर रही है, पर नीचे जिस्म पिघल रहा है गाढ़े, काले पानी की तरह।

ऐ सूरज, क्या बड़बड़ा रहा है, कैसा धुआँ, कौन पिघल रहा है, मनोज ने सूरज को झंझोड़ते हुए कहा।

वो दिख नहीं रहा, धुआँ, कसैला, काला, गाढ़ा, जिस्म पिघल के गिर रहा है, सूरज बड़बड़ा रहा था।

सामने कुछ नहीं है मेरे भाई, किसी ने बेकार टायर पर आग लगाई है, वहीं जल रहा है, मनोज ने कहा।

बेकार टायर नहीं। बेकार, बेबस, चीखते जिस्म है, सूरज ने धीरे से कहा

क्या हो गया है सूरज तुझे, मनोज ने सूरज को जोर से हिलाकर कहा।

सूरज एकाएक जैसे वापस अपने में आ गया हो, कुछ नहीं यार, जब भी जलता टायर देखता हूं तो वहीं मंजर याद आ जाता है।

कौन सा मंजर मेरे भाई, मनोज ने हैरत से पूछा

वहीं 84 का दंगा, जब बलवाईयों ने मेरे आंखों के सामने एक असहाय बूढे पर जलता टायर डालकर जला दिया।

पर यह तो 35 साल पुरानी बात है, तब तो तुम बहुत छोटे होंगे, मनोज ने कहा

हां, छह साल का, पर यह दृश्य लगता है 35 साल पुराना नहीं, बल्कि कल ही घटा हो। और यह तब और भी सामने आता है जब भी मैं जलता टायर देखता हूं।

मनोजः कौन था वह सरदार

सूरजः पता नहीं, 6 साल के बच्चे को तो यह भी नहीं पता होता कि सरदार कौन होते है। हमें तो हमेशा कौतुहल होता था कि पगड़ी के अंदर क्या होता है। मुझे 6 साल में पता चल गया था। जब उसकी पगड़ी खुल कर लंबे कपड़े जैसी सड़क पर बिछ गई थी और उसके खुले बाल, उसका रंग, पता नहीं नारंगी था या वह आग का रंग था। मैं बैडरूम की खिड़की पर बैठ यह सब कुछ देख रहा था।

बस यह पता था कि इंदिरा गांधी को गोली मार दी थी। कौन थी इंदिरा गांधी, छह साल के बच्चे को बस इतना पता था कि रोज टीवी पर, समाचार में जिसकी तस्वीर सबसे ज्यादा आती है वहीं इंदिरा गांधी है। दिन में रेडियो में सुना था कि इंदिरा गांधी को गोली मार दी, उन्हें मेडिकल इंस्टीटयूट एम्स में ले जाया गया और रात को खबर आ गई कि इंदिरा गांधी की मृत्यु हो गई।

हम बच्चे लोगों को इससे ज्यादा तसल्ली मिली कि स्कूल सात दिन के लिए बंद घोषित हो गए थे।

रात होते होते पापा बहुत चिंतित दिखने लगे। मां को बता रहे थे कि बगल की बस्ती त्रिलोक पुरी में आगजनी होनी शुरू हो गई है। हो सकता है कि दूसरा समुदाय भी बदला लेने के लिए हमारी कॉलोनी में घुस जाएं। इसलिए कॉलोनी के सभी बड़ों ने निर्णय लिया था कि हर सड़क और हर बिल्डिंग के बाहर पहरा देंगें। पूरी रात सभी बड़े लोग लाठी डंडे लेकर कॉलोनी के चक्कर काटना शुरू कर दिए ।

अगले दिन से कर्फ्यू लग गया था। इसका मतलब मुझे ऐसे लगा कि हम घर से बाहर खेलने भी नहीं जा सकते थे। मेरी मां जो कि 8 माह की प्रेग्नेंट थी, चैक अप के लिए अपने नर्सिंग होम जो कि त्रिलोक पुरी में था, नहीं जा सकती थी।


हवा में हल्की ठंडक सी हो गई थी। गुनगुनी धूप जब खिड़की से अंदर आती तो बहुत अच्छा लगता। इंदिरा गांधी के समाचार से सारे अखबार भरे पड़े थे। शहर में कर्फ्यू लग गया था इसलिए कॉलोनी के सारे लोग अपने अपने घर की खिड़कियों, सीढ़ियों, मुंडेर आदि से खड़े होकर बातें कर रहे थे। सुबह की आरती, मंदिर में जो आधे घंटे चलती थी, वह पता नहीं क्यों 5 मिनट में खत्म हो गई थी।


खिड़की से मंदिर के मोटे बाबा को देखने का अपना अलग ही आनंद होता था इतना मोटा पेट, उस पर भी ना कोई कमीज़, कुर्ता या दुशाला। जब चलते तो पेट भी उनसे एक कदम आगे थल थल हो रहा होता। पर आज तो वह मंदिर के दूसरी तरफ बने अपने घर के आंगन में ही तेज तेज चल रहे थे। उनका गोद लिया बेटा श्यामा ही आज मंदिर में बैठा था।


रेडियो में निरंतर समाचार बज रहे थे, यह आकाशवाणी है, श्रीमती इंदिरा गांधी का आज अंतिम संस्कार किया जाएगा। श्री राजीव गांधी को राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाई। 

राजीव गांधी कौन थी मुझे नहीं पता था, बस यह पता था कि वह इंदिरा गांधी के बेटे थे।


मंदिर से दूसरी तरफ डीडीए बिल्डिंग का समूह था। उसके पास एक सड़क थी जिसकी दूसरी तरफ त्रिलोकपुरी नाम की बस्ती थी। गरीब लोगों की बस्ती जिसमें ज्यादातर लोग कच्चे मकान या छोटे बेढ़ंगे पक्के मकानों में रहते थे। वहीं के ब्लॉक 27 में सब्जी मंडी और राशन की सरकारी दुकान थी, तो अमूमन हफ्ते में दो एक बार तो वहां जाना होता ही था। पर आज कर्फ्यू लगा था तो वहां जाना ना मुमकिन था ना मुनासिब। विशेष अंतर कुछ जान नहीं पड़ रहा था पर उस तरफ से रह-रहकर धुआँ उठता जरूर दिखता। गहरे काले रंग का धुआँ, कभी इकट्ठा खूब सारा, कभी थोड़ा थोड़ा।


मंदिर के सामने वाली सड़क पर कोलाहल सा मच रहा था। एक आदमी तेजी से भागकर मंदिर के अंदर घुसा। घुसते ही ठोकर लग कर नीचे गिर गया। पगड़ी सर से उतर कर नीचे गिर गई थी, बाल आधे काले, आधे सलेटी, कंधे तक झूल रहे थे। सलवार कमीज पहने वह बूढ़ा सरदार उठकर बाबा के कमरे की तरफ घुसा। पीछे पीछे 8-10 लोगों का हुजूम जिनके हर एक के हाथ में डंडे। 

श्यामा ने हुजूम को मंदिर के गेट पर ही रोका और कहा यह मंदिर है, यहां लड़ाई झगड़ा नहीं कर सकते। भीड़, श्यामा को ढकेलती हुई अंदर तक घुस आई, बाबा भी तब तक अपने कमरे से बाहर निकले।


भीड़ ने ललकारते हुए कहा: बाबे, उस सरदार को हमारे हवाले कर दो।

बाबा ने सीधे कहा कि वह मेरी शरण में आया है।

भीड़ में एक ने श्यामा के ऊपर लाठी चलाते हुए कहा: बाबा या तो सरदार दे दे या हम इस लड़के को यहीं मार देंगे।


बाबा, जिसकी एक पुकार से हजारों भक्त हर साल भंडारे में आते थे, मंदिर में तीन तीन दिनों के जगराते होते थे, दिन और रात जयकारे की गूँज होती थी. क्या अमीर क्या गरीब सब लंगर में खाना खाते थे. आज उसी मंदिर में, वही बाबा, 8 -10 लोगों की भीड़ के सामने भयाक्रांत हो उठा। 

बाबा ने सरदार के सामने हाथ जोड़ दिए और कहा: भाई हो सके तो माफ़ी देना।


हुजूम उस बूढ़े सरदार को धकियाते हुए मंदिर के सामने वाली सड़क पर ले आए। पहले तो लाठियों से पीटा फिर भीड़ में से एक ने स्कूटर का टायर उसके गले में डाल दिया दूसरे ने मिट्टी का तेल, थोड़ा  सरदार पर डाला, थोड़ा टायर पर।


एक ने जलती लकड़ी उसे छुआ दी। वह सरदार आग का गोला बनकर कुछ देर तो इधर उधर भागा, सड़क पर लोटा, टायर उसके बदन पर ऐसा चिपक गया था कि वह सड़क और टायर के बीच में झूल रहा था। 

तेज गाढ़ा धुआँ, पिघलता धुआँ, चीख में डूबा, दम घोटने वाला धुआँ । कब चीख और धुआँ एक हो जाए, पता ही नहीं चलता।


आधे घंटे तक धुआँ उठता रहा। दिन में, कालिमा का भभका, जहाँ नजर जाती धुआँ दिखता। शाम को भी धुआँ दिखता। रात को लाइट चली गई थी, घनघोर अंधेरे में काला गाढ़ा धुआँ दिख रहा था, उसकी बदबू पूरे घर में फैली थी। घर में पापा मम्मी को ना धुआँ दिख रहा था, न कोई बदबू आ रही थी। पर मुझे साफ महसूस हो रही थी। दम घुट रहा था। मुंह में कपड़ा बांध कर भी बदबू दूर नहीं हो रही थी। अगले दिन आँख खुलते ही खिड़की पर उसी सरदार को देखने की कोशिश करने लगा पर नाक में, सर में धुआँ महसूस हो रहा था, काला गाढ़ा धुआँ ।


एक हफ्ते कर्फ्यू रहा, फिर उसमें सुबह शाम की ढील मिली। मम्मी के साथ सब्जी मंडी जाने का मौका था, मंदिर पार करके उसी सड़क पर पहुंचा, सरदार को ढूंढने की कोशिश की, काली राख को देखने की कोशिश की, पर सिर्फ धुआँ ही महसूस हो रहा था। 

मम्मी से पूछा भी कि जलने की बदबू आ रही है। मम्मी को समझ नहीं आया कि धुआँ कहाँ है पर फिर भी कहा कि सर्दी का टाइम है, लोग लकड़ी टायर जलाते हैं ताकि ठंड दूर हो सके। मैंने कहा पर टायर के साथ तो सरदार भी जलाते हैं।


त्रिलोकपुरी 27 ब्लॉक जाते-जाते रास्ते में कई काली राख के ढेर देखने को मिले।

4,5,6,7 मैं उँगलियों में गिन रहा था।

क्या गिन रहा है बेटा, मां ने पूछा

कुछ नहीं, सरदारों को गिन रहा हूं, यहां थे वह, वहां थे

अभी भी मेरी नाक में काला काला धुआँ महसूस हो रहा था, फिर सांस लेने में दिक्कत आ रही थी।


15 दिन बाद स्कूल भी खुल गए थे। राजीव गांधी अब टीवी पर अपनी मां से ज्यादा नजर आने लगे थे। वह 21वीं सदी का सपना दिखाते। वह कंप्यूटर का सपना दिखाते। देश तरक्की की राह पर था, 21वीं सदी की राह पर था।


अच्छा वह सब तो ठीक है, पर मनोज यह तो बताया नहीं कि यह धुआँ अभी तक तुझे परेशान क्यों करता है।


पता नहीं, शायद यह मुझे याद दिलाता है तब मैं बच्चा था, इसलिए कुछ नहीं कर पाया। पर तब से जिंदगी में सरदारों ने मेरी जिंदगी में इतना असर किया है, लगता है उनकी सेवा करना ही मेरा प्रायश्चित है। किया मैंने कुछ नहीं था, पर फिर भी एक प्रायश्चित मन में था कि मैं उस समय उनको बचाने के लिए कुछ कर नहीं पाया।

जब भी मैं किसी गुरुद्वारा जाता हूं तो आंखों में आँसू आ जाते हैं।


हर सरदार से इतने अपनेपन से बात करता हूं कि जैसे यह वही सरदार हैं जो उस दिन अपने आपको बचाने आया था और आज मैं उसका साथ देता हूं। हो सकता है ऐसे ही मुझे उस धुएँ के श्राप से छुटकारा मिल सके।



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