धर्म
धर्म
"आप क्यों नहीं खाना चाहते हैं? मैं अच्छा खाना नहीं बनाती, इसलिए?”
सोफिया की ये बात मुझे निरुत्तर कर गई। सोच में पड़
गया कि आखिर क्या कहूँ उससे? नहीं खाऊंगा तो पता
नहीं क्या-क्या सोचेगी? और खाऊँ तो कैसे? उसका दोष ही क्या है? गलत समय पर तो मैं आया था। आया भी तो हाल–समाचार जानने के बाद उसके दफ्तर में रुकने की जरुरत ही क्या थी?
उस समय वहां मात्र तीन जन ही थे – सोफिया, तरुण और मैं। अचानक अखबार झटक सोफिया पिछले टेबुल पर बैठे तरुण से पूछी – "लंच कीजिएगा?"
“हाँ , अब करेंगे।"– अखबार को टेबुल पर रखते हुए तरुण ने कहा।
सोफिया अपनी कुर्सी से उठी और बेसिन की ओर चली गयी। मैं अखबार पढ़ते हुए सारी गतिविधियों को देख रहा था। हाथ धोकर लौटी तो मुझसे बोली – "आइये खाइये।”
थोड़ी देर के लिए चौंका, फिर मेरे मुँह से निकला – "आप खाइये।”
"आप क्यों नहीं खाइएगा?”
"अभी इच्छा नहीं है।"
"कब खाइएगा?”
"थोड़ी देर बाद, घर जाकर खाऊंगा।”
"चुपचाप कुर्सी इधर खींचिए और बेसिन में हाथ धोइए।" थोड़े सख्त लहजे में बोली।
उसकी बात को टालते हुए– "ओह! आप खाइये न।"
“आखिर, आप खाना क्यों नहीं चाहते हैं? मैं अच्छा खाना नहीं बनाती, इसलिए?” मासूम-सा उसका सवाल मेरे कान से टकराया और मैं चौंक गया।
शायद यह उसके तुणीर के घातक तीरों में से एक था। मुस्कुराते हुए उसे देखने के सिवाय कोई चारा नहीं बचा। सोचने लगा आखिर खाऊँ तो कैसे? उसे तो मालूम भी न था कि मैं आ रहा हूँ। व्यावहारिकता के नाते पूछना उसका धर्म है। उसमें भी तब जब उसे ज्ञात हो कि मैं उसे किस नज़र से देखता हूँ? पर मेरा धर्म क्या कहता है?
अधिक जिद्द करने पर भी न खाया तो क्या सोचेगी? पता नहीं क्या–क्या उल्टा-सीधा उसके दिमाग में बैठ जाय। पर मैं करूँ क्या? उसके हाथ के बने नास्ते को खाऊँ? एक वैसे हिंदू परिवार से हूँ जहाँ छुआछूत को अधिक तवज्जो दी जाती है। बचपन के दिन को कैसे भूल जाऊँ? – सलीम के देह में सटने के कारण मुँह में लिया हुआ भुजा उगलना पड़ा था। सुल्तान के हाथ छुए लोटे में दादी ने फिर कभी पानी नहीं पी। अक्सर खैनी खाने वाले दादा जी चीनी मिल या यात्रा के दरम्यान सप्ताहों इसे छूते नहीं थे कि मालूम नहीं किससे सफेदी (चूना) मांगनी पड़ जाय। परदादा ने दादा जी को ज्वाइनिंग के दो ही दिन बाद असम के सेना कैम्प से वापस ले आये थे सिर्फ इसलिए कि पता नहीं किसके -किसके हाथ का छुआ खाना खाएगा? मुस्लिम के होटल में मांस खाने के कारण चाचा आज वर्षों बीतने के बाद भी घर आने की हिम्मत नहीं जुटा पाए। हाँ, पिता जी समय के साथ थोडा बदलें हैं। वे मौलवी के दुकान से अंडा–मांस या कोई सामान खरीदने से परहेज नहीं करते हैं, पर आजतक कभी किसी मुस्लिम के हाथों बने भोजन या पानी को हाथ नहीं लगाया।
"क्या सोच रहें हैं? हाथ धोइए न” – अचानक सोफिया की आवाज आई।
भूख तो वाकई में जोरों की लगी है। रात का खाया हुआ अब दोपहर के एक बज चूका। सुबह से कुछ खाने का मौका ही नहीं मिला। बाहर चिलचिलाती हुई गर्मी इतनी तेज है कि घर जाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा। इधर तरुण भी अब अपना नाश्ता निकाल चुके। ऐसी स्थिति में वहां से उठकर चल देना व्यावहारिक कदम तो बिल्कुल ही न होगा, पर धर्म का क्या करूँ?
धर्म आखिर है क्या? सबका अपना–अपना धर्म है। सोफिया का धर्म– अतिथि-सत्कार का धर्म। मेरा धर्म भूख लगी है भूख मिटाने और प्राण रक्षा का धर्म। यदि इस लालच को छोड़ भी दूँ तो मित्रता का धर्म। उसमें भी पहली बार किसी लड़की से इतना प्रभावित हुआ ,जिसके साथ गुजरे एक–एक पल को यादगार बनाने और उन पलों को सहेजने की तमन्ना दिल में है। अब ऐसे पलों में जब वो अपनत्व के भाव से खाने को कह रही है तो धर्म के बारें में सोचने लगा?
मुझसे तो अच्छी शायद वही है जो पिछली बार कह रही थी "थोड़ी देर पहले आते तो हमलोग साथ में ही खाते।" सुनकर सिर्फ मुस्कुराया था। आश्चर्य भी हुआ कि क्या बोल रही है? दिमाग में एक ही बात गूंजा "आखिर वो सोच क्या रही है? मैं तो यूँ ही कभी–कभी मिल-जुल लेता हूँ। कभी कोई काम पड़ गया तो बातें और मुलाकातें हो जाती हैं। हाँ, एक दिन ये भी पूछ रही थी कि मैं मांस –मछली खाता हूँ कि नहीं? मैं तो सामान्य बात समझ रहा था। पर ये कहीं कुछ ज्यादे तो नहीं सोच रही? उसने कैसे मान लिया कि – मैं उसके साथ खा भी सकता हूँ?"
लेकिन समय के साथ मैं उन बातों को व्यावहारिकता का हिस्सा मान भूल गया था। सच तो ये है कि आज तक अपने परिवार से अलग किसी लड़की के साथ अलग-अलग प्लेट में तो खाया ही नहीं, फिर मैं उसके साथ खाने की बात कैसे सोच सकता हूँ? फिर क्योंकर तो मैं कुर्सी से उठकर सीधे बेसिन की तरफ हाथ धोने चला गया। सोचने लगा चलो कोई बात नहीं, तरुण के साथ बैठ जाऊंगा। वो भी उसके सामने मेरे साथ खाने की जिद्द थोड़े ही न पकड़ेगी? वो भी खुश रहेगी और फिर उसे कभी कुछ कहने का मौका भी नहीं मिलेगा? वर्ना पता नहीं...
हाथ धोकर वापस आया तो अंदर तक हिल गया। तरुण चुपचाप खाने में मशगूल था। जबकि सोफिया टेबुल पर नाश्ता एक ही प्लेट में सजा चुकी थी। मेरी कुर्सी अपने सामने खींचकर मेरी ओर देख रही थी। सधे हुए क़दमों में जाकर उसके सामने कुर्सी पर बैठ गया।
कुछ सोच पाता उसके पहले ही उसकी आवाज आयी"अब खाइएगा कि मुँह में खिलाना पड़ेगा? …… मैं उसके लिए भी तैयार हूँ।"
मैं शर्म से निरुत्तर हो गया। सिर्फ उसकी आँखों में देखता रह गया। जब उसका हाथ मेरे मुँह की तरफ बढने लगा तो संभला और उसके हाथ से खाना का टुकड़ा लेकर स्वयं खाने लगा। उसके चेहरे पर एक अजीब–सी खुशी थी और मैं सिर्फ खाता रहा। भूल गया सारी बातों को। पीछे छूट गए सारे धर्म। याद रहा तो सिर्फ प्रेम धर्म। दोस्ती का धर्म। सद्भाव का धर्म। मानवता का धर्म। खुशी थी। एक यादगार पल गुजर रहा था। उस सोफिया के साथ खा रहा था जिसके लिए दिल में सम्मान और प्यार है। प्यार से बढ़ कर भी कोई धर्म होता है क्या ?

