धनु कोष्ठक - १
धनु कोष्ठक - १
लेखक: सिर्गेइ नोसव
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास
सन् दो हज़ार फलाँ-फलाँ की फ़रवरी (20** के बाद वाली संख्या कौन याद रख सकता है?) : ये उस साल की बात है जब भयानक बर्फबारी ने जनवरी में ही पिछले बीस-तीस सालों का रेकॉर्ड तोड़ दिया था.
कल शुक्रवार था, सप्ताह के दिन गुज़र गए, मगर ट्रेन चली जा रही है, और कपितोनव के दिमाग़ में प्रस्तुत घड़ी के हालात की तस्वीरें बन रही हैं.
ये है स्वयम् कपितोनव . एक मिनट पहले वह अपने ‘कुपे’ से बाहर निकला. “बोलेरो” का रिंगटोन बज उठा, और वह जेबों में मोबाइल ढूँढ़ता है.
ये रहा मॉस्को-टाइम.
16.07
ये है ऑर्गेनाइज़िंग कमिटी वाली ओल्या.
“नमस्ते, एव्गेनी गिन्नादेविच. हमारा आदमी आपको ढूँढ़ नहीं पा रहा है. आप, असल में, कहाँ हैं?”
“मैं, असल में, ट्रेन में हूँ.”
“तो फिर बाहर क्यों नहीं आ रहे हैं?”
“क्योंकि सफ़र कर रहा हूँ.”
कुछ पल के लिए उस ओर वाली ओल्या की बोलती बन्द हो जाती है. कपितोनव शांत है – वह ग़लतफ़हमियों के लिए तैयार है. कॉरीडॉर के अंत में लगे हुए इलेक्ट्रोनिक-बोर्ड पर अब समय नहीं, बल्कि तापमान दिखाया जा रहा है -110 . ठीक है. मॉस्को से ज़्यादा ठण्ड नहीं है.
कुपे को बेहद गर्म किया गया है.
“माफ़ कीजिए, आप कहाँ जा रहे हैं?”
अजीब बात है. वह जा कहाँ रहा है?
खिड़की के बाहर एक दुमंज़िला इमारत झांक रही थी, जो ज़मीन तक लटकती बर्फ की दीवार से ढंकी थी. और फिर से – पेड़, बर्फ, पेड़.
“पीटरबुर्ग, ओल्या. सेंट-पीटरबुर्ग.”
“मगर ट्रेन तो कब की आ चुकी है. आपसे मिलने रेल्वे-स्टेशन पे गए हैं.”
“ऐसे कैसे? मुझे तो लादोझ्स्की स्टेशन तक पहुँचने में अभी और आधा घण्टा लगेगा. अगर ट्रेन समय से चल रही है तो.”
“ठहरिए, मगर लादोझ्स्की स्टेशन पे क्यों?”
“तो फिर कौन से?”
“मॉस्को स्टेशन पे.”
“ओल्या, ग़ौर से सुनो! कल आपने ही फोन करके मुझसे कहा था कि “सप्सान”1 की टिकट्स उपलब्ध नहीं हैं, मगर यदि मैं दूसरे दिन पहुँचना चाहूँ, तो अद्लेर से आने वाली ट्रेन में टिकट बुक कर दूँ. आप भूल गईं? मैं कज़ान रेल्वे स्टेशन से ट्रेन में बैठा, न कि लेनिनग्राद स्टेशन से, और सारी बातों पर ग़ौर करते हुए, मैं लादोझ्स्की स्टेशन पर ही उतरूंगा, न कि मॉस्को स्टेशन पे! दमघोंटू कम्पार्टमेंट में मैं पूरे दिन परेशान होता रहा. ये सबसे बढ़िया ट्रेन नहीं है, और मॉस्को से पीटरबुर्ग आने के लिए ये सबसे बेहतरीन तरीक़ा भी नहीं है.”
“माफ़ कीजिए, एव्गेनी गिन्नादेविच, वो मैं नहीं बल्कि दूसरी ओल्या थी. वो आपको फ़ोन करेगी.”
कुपे का दरवाज़ा खुला है. हमसफ़र – एक महिला, जिसका नाम ज़िनाइदा है, और उसका ‘डाऊन’ (मन्दबुद्धि) बेटा झेन्या, जो बड़ा है, कपितोनव की ओर देख रहे हैं. ज़िनाइदा सहानुभूति से देख रही है, और ‘डाऊन’ झेन्या - ख़ुशी से.
हाथ में झाडू लिए कण्डक्टर उधर से गुज़रती है, उसने भी ये बातचीत सुनी:
“परेशान मत होइये, जल्दी ही ये ट्रेन कैन्सल होने वाली है, देखिए, कम्पार्टमेंट आधा खाली है.”
“मैं परेशान हो भी नहीं रहा हूँ.”
भीतर आया, बैठ गया. सब बैठे हैं. जा रहे हैं. अब जल्दी ही पहुँच जाएँगे.
“पहले मुझे ऐसा लगा कि आपकी बेटी ने फ़ोन किया है,” ज़िनाइदा ने कहा.
उसे अफ़सोस होने लगा कि बेटी के बारे में उसे क्यों बताया.
कपितोनव की आँखों के सामने सफ़ेद दीवार पर काले अक्षर भाग रहे थे – सशस्त्र क्रांति का आह्वान. इसके बाद – गैरेजेस, शायद. वह इस तरफ़ से कभी पीटरबर्ग की ओर नहीं आया था. लादोझ्स्की स्टेशन को उसके पीटरबर्ग से मॉस्को जाने के कुछ ही साल पहले शुरू किया गया था. वह सिर्फ एक बार लादोझ्स्की पर आया था – जब बीबी के साथ वह समर-कैम्प से वापस लौट रही बेटी को लेने आया था. तब उसकी उम्र थी ग्यारह साल.
ज़िनाइदा को अपने हमसफ़र पे दया आ रही थी:
“मुझे अफ़सोस है कि आप झपकी न ले सके.”
“कोई बात नहीं,” कपितोनव ने कहा.
सफ़र के दौरान काफ़ी देर तक कोई बातचीत नहीं हुई – मॉस्को से लेकर, जहाँ वह बैठा था, मतलब, पहले से सफ़र कर रहे उनके साथ – और लगभग अकूलव्का तक. कुपे में चौथा मुसाफ़िर नहीं था. उसका बेटा पूरे रास्ते छोटी सी मेज़ पर दमीनो के पांसों से खेलता रहा, और कपितोनव ऊपर वाली बर्थ पर लेटे-लेटे छत की ओर देखता रहा, जो उसके एकदम क़रीब थी, और ऐसा दिखाता रहा कि दुनिया परिमेय ‘कर्व्स’ के अनुसार ही बनी है. तीन घण्टे पहले, अकूलव्का से भी पहले, आवश्यकता के कारण नहीं, बल्कि उकताहट के मारे, वह अकेला ही ट्रेन के रेस्टॉरेंट में चला गया, जहाँ अपने आपको अकेला मेहमान पाकर बीफ़स्टेक खा गया और सौ ग्राम कोन्याक पी गया, जो वास्तव में कोन्याक थी ही नहीं, मगर, चलो, ठीक है. और जब वापस लौटा, तो इस मुस्कुराती, थके हुए चेहरे वाली कुपे की पड़ोसन ने घर का बना हुआ केक उसे पेश किया, वह ज़िद करने लगी कि उसके और उसके बेटे के साथ कुपे-डिनर खाए. और तब कपितोनव ने उसके सामने पहली स्वीकृति दी : उसने अभी-अभी खाना खाया है. तब उसने उससे कई बार पूछा: “और इस सब का हम क्या करें?” और उसने जवाब दिया: “अपने साथ ले जाइए”. मतलब, उन्होंने बातचीत की. – “ज़ीना”. – “एव्गेनी.” एव्गेनी गिन्नादेविच भी कह सकता था, जैसे कि वह अक्सर सेमेस्टर के आरंभ में विद्यार्थियों को अपना परिचय देता था (जो सही है), मगर उसने कहा “एव्गेनी” (झूठ तो नहीं बोला), और ज़िनाइदा ख़ुश हो गई: : “देखा, कैसे होता है,” उसने अपने मन्दबुद्धि बेटे से कहा. “हम और तुम जा रहे हैं, और ये भी नहीं जानते कि किसके साथ जा रहे हैं. अंकल झेन्या, तेरे हमनाम हैं”. उसके बेटे ने चहकते हुए अचानक अपना हाथ बढ़ाकर कपितोनव को चौंका दिया, मगर वह अपनी ऊँगलियाँ फैला कर ही रुक गया – बड़े मरियल तरीक़े से हस्तांदोलन हुआ, एक ही तरफ़ से, याने कपितोनव की तरफ़ से, मगर पर्याप्त गर्मजोशी भरा, जिससे ज़िनाइदा को ख़ुशी हो. जैसे उनके बीच कुछ घटित हो गया था. कपितोनव को पता चला कि वे लिपेत्स्क से आ रहे हैं ज़िनाइदा की बहन से मिलने, कि ज़िनाइदा अपने बेटे को सेंट पीटरबुर्ग दिखाना चाहती है और ये कि बेटे का सपना है – “छोटा सा जहाज़” देखना. उसने वाक़ई में कई बार ये शब्द दुहराया “जआज़”. “अंकल झेन्या ने जआज़ देखा?”
कपितोनव ने कई बार इस जहाज़ को देखा था – एडमिरैल्टी2 के शिखर पे.
ख़ुदा ने चाहा, तो और भी देखेगा.
ज़िनाइदा बता रही थी अपने बारे में, पति के बारे में, जिससे झेन्या के जन्म होने के बाद तलाक़ हो गया था, और जो मेटलर्जिकल प्लान्ट में काम करता था, और भी ऐसी कई बातें जिनसे कपितोनव को कोई मतलब नहीं था, और वह सुन भी नहीं रहा था, मगर किसी एक पल में उसे महसूस हुआ कि वह भी कुछ कहे, और तब उसने दूसरी स्वीकारोक्ति दी – इस बारे में कि वह अनिद्रा से ग्रस्त है और पिछली दो रातों से सोया नहीं है. “ओह, तो क्या हम डिस्टर्ब कर रहे हैं?” - “आपकी वजह से नहीं है”, - कपितोनव ने कहा, क्योंकि उसकी स्वीकारोक्ति में कोई उलाहना नहीं था (वैसे ही जैसे उसमें कोई अर्थ भी नहीं था). “तो फिर सोते क्यों नहीं हो?” उसने जवाब दिया: “नींद नहीं आती.” और, उसने इस पर कहा: “जभी, मैं देख रही हूँ कि आप कुछ परेशान-परेशान लग रहे हैं”.
और अब वह कह रही है:
“आपका रिंग टोन कितनी ज़ोर से बजता है!”
उँगली की हरकत से उसने “बोलेरो” को रोक दिया, जो छोटे से जहाज़ का ख़्वाब देख रहे झेन्या को बहुत पसन्द आ गया था.
ओल्या – “दूसरी”:
“येव्गेनी गिन्नादेविच, कल आपसे मैंने बात की थी, मैंने ही अद्लेर की ट्रेन में आपका रिज़र्वेशन करवाया था, और हमारे लोग कन्फ्यूज़ हो गए, कार को सही जगह पर नहीं भेजा, बल्कि मॉस्को स्टेशन पर भेज दिया, माफ़ कीजिए, मगर हम आपको रिसीव नहीं कर पायेंगे...क्या हमारे बग़ैर आ सकते हैं?”
सब ठीक ही हो रहा है. उसने कल ख़ुद ही कहा था कि उसे लेने न आएँ. ये उन्हीं का आइडिया था – हर हालत में प्लेटफॉर्म पर उसे रिसीव करेंगे. उसके पास कोई सामान नहीं है, सिर्फ पर्स है, और उसे पता है कि मेट्रो क्या होती है.
ओल्या-दूसरी जोश में कहे जा रही थी:
“सुनिए, आप इतने समझदार हैं, आपने सही किया कि उद्घाटन पे नहीं आए, यहाँ तो ऐसी-ऐसी घटनाएँ हो रही हैं, आप ख़ुद ही देखेंगे, और अब मैं आपको बताती हूँ कि होटल तक कैसे पहुँचना है, आपको...”
ज़रूरत नहीं है, वह जानता है.
ओल्या, मतलब, कल वाली ओल्या, “दूसरी” न जाने क्यों आज बेहद घबरा रही है, बड़ी जल्दी-जल्दी बोल रही है, बिल्कुल बिना रुके, और यहाँ ये पुल भी है – फिनलैण्ड-रेल्वे वाला – और उसके शब्द खड़खड़ाहट में डूब रहे हैं. मन्दबुद्धि झेन्या थोड़ा सा ऊपर उठता है जिससे सफ़ेद नदी को अच्छी तरह देख सके. चौड़ी है नीवा, और पूरी तरह बर्फ़ के नीचे है.
कपितोनव कुछ अलग-थलग शब्द सुन पाता है और उनके बीच “आर्किटेक्ट”. और इसके बाद ओल्या फिर से कहती है “आर्किटेक्ट”. वह समझ जाता है कि ये “आर्किटेक्ट” - उसीके लिए है.
ट्रेन धीरे धीरे पुल के ऊपर से गुज़रती है, खड़खड़ाते हुए. कपितोनव लगभग चिल्लाकर कहता है:
“मैं आर्किटेक्ट नहीं हूँ, मैं मैथेमेटिशियन हूँ!”
“कौन मैथेमेटिशियन है?”
(ये तो ग़ज़ब हो गया!)
“मैं – मैथेमेटिशियन हूँ!”
“जआज़! जआज़!” झेन्या परेशान हो रहा है, हालाँकि कोई जहाज़-वहाज़ नहीं है और वहाँ हो भी नहीं सकता.
फ़िनलैण्ड-ब्रिज की फर्मों के समूह दिखाई देते हैं.
“ओल्या, आपने किसे और कहाँ आमंत्रित किया है? सही आदमी को, सही कॉन्फ्रेन्स में?”
“ठहरिए, मैं दुबारा फ़ोन करती हूँ.”
”बहुत अच्छे,” कपितोनव ने कहा.
दाहिना किनारा. वेग कम हो जाता है – जल्दी ही पहुँच जाएँगे. इंतज़ार नहीं करना पड़ा.
“ येव्गेनी गिन्नादेविच, आप तो मुझे बेकार ही में डरा रहे हैं, सब कुछ ठीक है, आप मैथेमेटिशियन हैं, आर्किटेक्ट – आप नहीं हैं, वो दूसरे हैं, आज सिर्फ आप दोनों ही आ रहे हैं, और मैं थोड़ा कन्फ़्यूज़ हो गई, सिर्फ यही सोचती रही कि मैथेमेटिशियन वो है, और ये कि आप आर्किटेक्ट हैं, तो सब ठीक है, कुछ मत सोचिए, आ जाइए, हम मामला सुलझा लेंगे....”
मोबाइल को वापस रखकर वह तैयारी करने लगता है – स्वेटर पहन लेता है. खिड़की के बाहर इण्डस्ट्रियल ज़ोन नये निर्माणों से मिल रहा था. कपितोनव स्वयँ से अप्रसन्न था. दुनिया के सामने वह अपने आपको मैथेमेटिशियन कहने से बचता था. अपने आपके बारे में ये कहना कि “मैं मैथेमेटिशियन हूँ” वैसा ही है जैसा “मैं कवि हूँ” या “मैं दार्शनिक हूँ”. अपने बारे में ऐसा कहने के लिए मुख्यतः ख़ुद को कवि या दार्शनिक समझना ज़रूरी है. कपितोनव अपने आप को मुख्यत: मैथेमेटिशियन नहीं समझता. अगर कोई पूछे तो अपने बारे में कहता है, “मैथेमेटिक्स पढ़ाता हूँ” और इसके आगे अक्सर जोड़ देता है: “मानविकी” विभाग में. इस देश में कई लोग मैथेमेटिक्स को अनावश्यक विज्ञान समझते हैं. वह भी यही समझाने की कोशिश करता है कि कोई निरर्थक चीज़ करता है. है भी वैसा ही. मानविकी के विद्यार्थियों को इसकी ज़रा भी ज़रूरत नहीं है. उसे इसका यक़ीन है.
ज़िनाइदा झेन्या का सामान समेट रही है, दमीनो के पांसों को बक्से में रख रही है. कपितोनव की ओर न देखते हुए – मानो पूछना चाहती हो कि प्यारे, आपने, पहले ही ये बात क्यों न बताई?- पूछ ही लेती है.
“तो, आप मैथेमेटिशियन हैं?”
जैसे आप किसी इन्सान के साथ जा रहे हो, अपना दिल उसके सामने खोल कर रख देते हो, जो कुछ भी वह अपने बारे में बताता है उस पर यक़ीन कर लेते हो, और बाद में पता चलता है कि वह तो इन्सान ही नहीं है, बल्कि किसी दूसरे ग्रह का निवासी है.
“मतलब, मैथेमेटिक्स की कॉन्फ्रेंस में जा रहे हैं?”
(यह ऐसे गूंजता है जैसे “दूसरे ग्रह की”.)
कपितोनव को मैथेमेटिक्स की कॉन्फ्रेन्स में नहीं बुलाया गया है (और दूसरे ग्रह की कॉन्फ्रेन्स में भी नहीं). मगर, चलो, चलने दो.
“हाँ, मैथेमेटिक्स की” – उसने झूठ बोल देता है. “तो क्या?”
नहीं, कुछ नहीं. न तो डॉक्टर, न माइनर, न ही केमिकल इंजीनियर. ज़िनाइदा ने रास्ते में अपने बारे में सब कुछ बता दिया था, वह भी उसके साथ मानो खुल ही गया था, मगर अब ऐसा लगता है कि वह इतनी विशेष बात छुपा गया था – वह मैथेमेटिशियन है.
मगर, पहली बात, वह काफ़ी समय से मैथेमेटिशियन नहीं है – इस शब्द के वास्तविक अर्थ के संदर्भ में, और दूसरी बात, वह सब को क्यों बताता फिरे कि वह मैथेमेटिशियन है?
अपने बारे में वह वैसे भी काफ़ी कुछ बक गया था. अपने बारे में – जब क़रीब घंटा भर पहले मालाया विशेरा से गुज़र रहे थे (और ये कपितोनव की तीसरी स्वीकारोक्ति थी) : कैसे उसका बेटी से हमेशा के लिए झगड़ा हो गया था, कैसे पत्नी की मौत के बाद बेटी से हमेशा खटपट ही होती रहती है. उसने न जाने क्यों, ये भी बता दिया कि कल बेटी ने उसे, अपने सगे पिता को, कहाँ भेजा था (ज़िनाइदा ने हाथ नचाए). उसे ख़ुद से इस स्वीकारोक्ति की उम्मीद नहीं थी. अनजान लोगों के सामने दिल की बात कहना कपितोनव के नियमों में नहीं था. अपनों के भी सामने वह खुल कर दिल की बात नहीं कहता था. अपने आप से नहीं कहता था. ये सारी मानसिक स्थिति, ये सब अनिद्रा के कारण है. आख़िरी पल में वह इस अनावश्यक कॉन्फ्रेन्स के लिए तैयार ही इसलिए हुआ था कि घर से भाग सके, हालात कुछ बदल सकें. और, उसने ये सब इसे क्यों बताया? क्या रेस्तराँ में ली गई सौ ग्राम कोन्याक ने ज़बान को इस क़दर बहका दिया था? ऐसा नहीं हो सकता था. ये भी हो सकता है कि इस मन्दबुद्धि हमनाम ने अपनी उपस्थिति से उस पर ऐसा प्रभाव डाला कि मालाया विशेरा से गुज़रते हुए कपितानोव इतना परिपक्व हो गया कि खुल्लमखुला एक पिता की समस्याओं का इज़हार करते हुए ज़िनाइदा का समर्थन कर बैठा. मानो ग़ैरों की मुसीबतों के बारे में जानकर उसका मन कुछ हल्का हो जाएगा. या फिर वह अपनी स्वयम् की कठिनाइयों के लिए एक आवश्यक पैमाना ढूँढ़ रहा था – जिससे कि वे औरों की कठिनाइयों के मुक़ाबले में छोटी लगें? फ़ू, कैसा ओछा काम कर बैठा था कपितोनव. उसने स्वयम् के लिए सांत्वना प्राप्त की थी, और किससे? – और अब, ये देखकर कि कैसे ज़िनाइदा, जिसने उसकी समस्याओं को दिल में बिठा लिया है, अपने बड़े बेटे की हाफ़-जैकेट के बटन बन्द करने में मदद कर रही है, वह अपनी साफ़गोई पर पछता रहा था, जिसकी किसी को भी ज़रूरत नहीं थी.
अपने बारे में कपितोनव इतना जानता था कि वह एक अच्छा ही मैथेमेटिशियन है, - और इसके लिए वह अपनी मानसिकता को धन्यवाद देता है. कपितोनव में हर चीज़ बर्दाश्त करने की प्रवृत्ति है, ज़िन्दगी के हालात को दिमाग़ में ठूँस लेने की आदत है, या, इसके विपरीत, उनसे ऐसी ही किन्हीं अन्य परिस्थितियों के पीछे छुप जाने की भावना है – और जैसे जैसे ज़िन्दगी आगे बढ़ती जाती है, कपितोनव भावात्मकता के कारण बेचैन होने लगता है – उसका दिमाग़ पर्याप्त रूप से उदासीन नहीं है.