डर पर जीत
डर पर जीत
बात उन दिनों की है, जब मैं शादी करके ससुराल आई थी, वैसे तो मेरी शादी जान पहचान में हुई थी, तो मैं किसी से अनजान नहीं थी, लेकिन फिर भी डर लग रहा था।
सब सब लोगों का व्यवहार कैसा होगा ? उनके रिश्तेदार भी होंगे वहां पर ! वहां सब मेरे साथ कैसा व्यवहार करेंगे ?
और मुझे खाना बनाना भी नहीं आता था, इसीलिए और भी ज्यादा डर रही थी, पता नहीं लोग रसोई की रस्म में, क्या-क्या बनाने को कहेंगे ?
मुझे तो कुछ आता भी नहीं, मुझे तो थोड़ा बहुत ही आता है बस।
यह सभी बातें मुझे डराने के लिए काफी थी। डरते ही डरते मैं ससुराल पहुंच गई, वहां गृह प्रवेश आदि की रस्में सब अच्छे से हो गई। कुछ दिन बाद, वह " शुभ मुहूर्त " भी आ गया, जिसका मुझे डर था।
बुआ सास की बेटी मुझे किचन में लेकर गई, चलो भाभी ! आज आपकी रसोई की रस्म है। मैं डर को कायम रखते हुए, रसोई में पहुंच गई। वहां जाकर देखा, तो कुछ खाना तैयार था, और कुछ बाकी, जो बाकी था, उसका सारा सामान निकाल कर रखा हुआ था ।
सासु मां और जेठानी ने कहा, जो तुम्हें बनाना आता है " वह बना दो, बाकी हम सब बना लेंगे।
सासू मां ने कहा ! मुझे पहले से पता था, तुम वहां पर खाना नहीं बनाई हो।
इसलिए मैंने ! कुछ खाना बना दिया, और कुछ का इंतजाम कर दिया है, अब तुम्हें जो बनाना आता हो इसमें से, अपनी सुविधानुसार वह बना दो।
क्योंकि रसोई की रस्म है।
मैं खीर और चाय बनाई, उसके बाद सासू मां ने कहा अब तुम जाओ आराम करो।
अपने डर पर जीत पाते हुए मैं खुशी से आराम करने चली गई।