डेंगू एक स्वप्न कथा

डेंगू एक स्वप्न कथा

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उस दिन का मंजर उसकी आँखों में नाचता ही रहता है, जब अनाज की कोठी में रखा चावल का एक दाना भी नहीं बचा था। और उसकी बेटी भूख से रोए जा रही थी।

''अंजली'' उसकी सबसे छोटी बेटी आठ महीना की हो गई थी। माँ के दूध से अब उसका पेट नहीं भरता उसे बाबू के साथ भात दाल तरकारी भी चाहिए था और अम्मा के हाथ से दूध-भात भी। बाबू के खाना खाने बैठते ही वह हुलसते हुए उनके गोद में चढ़ बैठती और उनके हाथों से निवाला चाव से खाती और खुद भी अपने हाथों से थाली का भात उठा कर खाने की कोशिश करती पर मुँह तक आने से पहले ही भात फर्श पर बिखर जाता।

उसकी बाल सुलभ कोशिश पर वह निहाल हो जाता और बाबू हँस पड़ते। उस दिन बेटी को भात के लिए तरसता देख उसका कलेजा कलप गया था।

कल तक जो कोठी अनाज से भरी रहती आज वो खाली पड़ी थी। कोठी क्या खाली हुई! सबका मन और पेट भी खाली कर गई।

घर के बाहर जहाँ अम्मा और लुगाई बर्तन-बासन करती थी वो भी सूना पड़ा था। जिस जूठन को खाने के लिए गौरैया , कौवे के झूंड और लवारिश कुत्ते उधम मचाये रहते वहाँ मरधट सा सूनापन था। वह सूनापन घर के सभी प्राणियों के आँखों में भी उतर आया था। अंजली जब भूख से रोती या खाने में नखरे करती अम्मा गीत गा कर चुप कराती।

चंदा मामा आरे आवS बारे आवS

नदिया किनारे आवS

सोने के कटोरवा में दूध भात ले ले आवS

बबुआ के मुँहवा में घुटूक घुटूक घुटूक

पर उस दिन अम्मा का हुलसाता गीत भी काम नहीं कर रहा था। करता भी कैसे! कटोरी में आटा घोल के उसे पिलाने की कोशिश की जा रही थी और वो दूध-भात के लिए मचले जा रही थी। बाद में मन लायक खाने को नहीं मिलने पर रोते-रोते सो गई।

बूढ़े माता-पिता और दो भाइयों का छोटा सा परिवार शादी फिर बच्चों के जन्म के बाद चौदह सदस्यों का कुनबा बन चुका था।

दद्दा के समय पच्चीस बीघ पर खेती होती थी। गाँव के संपन्न परिवारों में उनके परिवार की गिनती होती। समतल और उपजाऊ जमीन होने के कारण खरीफ और रबी फसलें सोना उगलती। अनाज की कोठी सालो भर भरी रहती।

कुछ खेत दियारा में थे जो सरयू नदी में बाढ़ आने से अक्सर डूब जाते। पर बड़े ही उपजाऊ थे। बाढ़ का पानी उतरते ही उस बलुहाई जमीन में सब्जियाँ उगाई जाती। लौकी, ककड़ी, नेनुआ, भतुआ, सेम, पालक आदी। कई बार अधिकांश सब्जियाँ मंडी ले जाने से पहले ही नियमित गंगा स्नान पर जाने वाले लोग लौटते समय हाथों हाथ खरीद लेते। कुछ पैसे भी बन जाते और घर के लिए भी ताजी सब्जियाँ भी मिल जाती।

घर के आँगन में दो गाय भी हमेशा बंधी रहती। बालपन में दद्दा के समय कभी दूध-दही की कमी नहीं रही।

समय का ऐसा फेरा हुआ पच्चीस बीघा खेत दद्दा की बिमारी और बुआओं की शादी में बिकते–बिकते पांच बीघा का रह गया। उधर दियारा वाला खेत भी सालों भर सरयू नदी के अंदर ही डूबा रहता। उसका होना ना होना अब कोई मायने नहीं रखता था।

दादी कहती-''हमार हँसत-खेलत घर में केहू के नज़र लग गईल हो''

दद्दा बहुत ही ज़िंदादिल मानुष थे। खूब खाने बतियाने और घूमने के शौकीन।

नयका धान कुटाया नहीं कि दद्दा चहक के अम्मा को कहते-''एक दो दिन में खुद्दी पीस के पीठा बनावा हो दुल्हिन'' ''आ साथ में बैंगन आलू टमाटर के तरकारी होखे के चाही।''

पास ही अंगना में ओखल में धान कुटती दादी दद्दा को बच्चे की तरह मचलते देख मुस्काँ देती और अम्मा के साथ खुद्दी(धान कूटने के दौरान टूट गए चावल) पीसने के लिए औसारा में गड़ा जांता की साफ-सफाई में लग जाती। फिर दादी और अम्मा मिलकर जांता में खुद्दी पीस कर पीठा के लिए चौरेठा ( आटा) तैयार कर लेती। अंदाज से पीठा के भरावन के लिए रात में चना दाल और पोस्ता पानी में फुलने के लिए डाल देती। दूध वाला मीठा पीठा के लिए सवेरे दूध औट के खोया भी तैयार कर लिया जाता। पीठा बनने की तैयारी होते देख दद्दा अपने संगी-साथी  को भी न्योत आते।

ऐसे ही जाड़ा में लिट्टी–चोखा की घर में पंगत बैठती। पर लिट्टी सिकने की जिम्मेवारी दद्दा अपने संगी-साथी के साथ खुद ही लेते। सत्तू में प्याज-मिरचा आचार मंगरैला- अजवाइन, जीरा,काली मिरच, तेल नून, नींबू का रस सब तैयार कर आटा गुंथ के आँगन में गोइठा पर लिट्टी सेकता।संगी साथी के साथ बिरहा गाते और हुक्का पीते लिट्टी और भंटा बैगन का चोखा तैयार होता। दद्दा, दादी औ अम्मा को हाथ भी नहीं लगाने देते।

कहते- ''हमार हाथ के खयबू त देख तोहार जिनगी बन जाई। येही से चुपचाप आज बइठल रह।''

हम लइकन सब दद्दा के इस अंदाज पर फिदा रहते।

बचपन में दद्दा की उंगली पकड़ के हम लइकन सब खूब घूमे थे। छठ पूजा में डोरीगंज ,तो नवरात्रि में आमी पूजने जाती दादी। दशहरा में मेला दिखाने दद्दा छपरा लेके जाते।पहले शहर घूमते। कचौड़ी आलू की सब्ज़ी जलेबी-रबड़ी, फुच्चका(पानीपुरी) भर-पेट खिलाते। गुलाबी हवा मिठाई मिल जाता तो हम वो भी ज़िद कर खरीदवाते। पूं पूं बजने वाला बाजा, फुंकना, दादी और अम्मा के लिए अलता, लाल चुड़ी, बिंदी, रिबन खरीदने के बाद में हम रामलीला रात भर देखते। उ पूँछ उठा के हनुमान जी उड़ के आते। बड़ा मजा आता। राम जी सीता जी जब आते तो पंडाल में बैइठल सब आमदी हाथ जोड़ लेते।

सबसे मजेदार और यादगार तो सोनपुर का मेला रहा। जब भी कातिक माह आता तो दादी रट लगाती कि- ''कातिक पूनिमा के दिन सोनपूर जाके गंगा नहा  करके हरिहरनाथ के दर्शन करेके बा एक दिन। कहल जा ला ऐसन करे से सौ गौदान के बराबर पून मिले ला।''  

दद्दा हर बार कहते  ''हाँ चलल जाइ''

मौका आया बड़का भइया की शादी होने के बाद। मुखिया जी का ट्रैक्टर भाड़े पर ले के बड़की भौजी के साथ दोनों बुआ फुफा और सारे चचेरे–फुफेरे भाई-बहन को दद्दा सोनपुर मेला लेके गए। रास्ते में खाने के लिए दादी ने खूब इंतजाम किया था। पूरी-तरकारी, लिट्टी-चोखा, आचार, निमकी, ठेकुआ, भुंजल चिउरा, चना और न जाने क्या क्या।इसके अलावे समय काटे के खातिर गीत के साथी ढोलकी भी रखा गया। गाते–बजाते खाते-पीते जाने का पूरा इंतजाम। दादी अम्मा के साथ दो दिन पहले से सब तैयारी कर रही थी।

दद्दा टोकते रहे- ''का ज़रूरत बा इतना ताम झाम करे के!

''मेला में खाए के ना मिली का हो''

दादी का कहना था कि ''साथे एतना छोटा लइका-लइकी सब बारन स। अ एतना लम्हर रास्ता बा। कब पहुँचेब स कब ना। लइकन सबके भूख-तरास लागी त कहाँ से खिलाएब। राउरे सबके भुखे ऱखेके पिलान बा का।''

ये अलग बात है कि अपने दादी, अम्मा, बुआ सब भूखे रही थी। सब गंगा में नहाए के हरिहरनाथ के दर्शन करने के बाद कुछ खाई थी।

भुखे प्यासे ही सही पर दादी बुआ काकी और अम्मा का जोश भर रास्ता देखने में बनता था। दादी ढोलकी बजा बजा के खूब बिरहा, चैता  गाई और गवाई भी। दादी के समय गाँव में टीवी तो नहीं ही था रेडियों भी सबके पास नहीं था पर भिखारी ठाकूर सभी पूरबिया लोगन के सुपरस्टार रहे। उनका नाटक और गीत सबके जुबान पर। गाँव में नौटंकी होती और पूरा गाँव जगराता करता। कई दिनों तक भिखारी ठाकूर के बिदेशीया और अन्य नाटकों को गीत और डॉयलाग के साथ याद करता रहता। दादी भी उनका गीत हर शादी बियाह और गंगा स्नान जाने के समय गाती।

''करी के गवनवा भवनवा में छोड़ी करs
अपने परइलs पुरूबवा बलमुआ..''

दादी जब सुर लगाती तो सब जन अपना काम छोड़कर सुनने बैठ जाते।''अंगूरी के डसले बिया नगिनिया रे ए ननदी
संइयाँ के बोला द..''

मेला में एक से एक जानवर थे। पहली बार हाथी-ऊँट, सफेद कबूतर, लाल, पीला सफ़ेद पहाड़ी तोता, सफेद विलायती चूहा और न जाने कितना जनावर दद्दा दिखाते रहे।कई जगह नौटंकी भी चल रही थी पर दद्दा नहीं दिखाए पर सब घूमाते रहे थे।    

दद्दा को बस एक ही चीज की लत थी और वो थी हुक्का। दद्दा कहते हुक्के का शौक तो राजा-महाराजाओ के ज़माने से चला आ रहा है। इससे कोई हानि नहीं होती। दद्दा सुबह उठते के साथ हुक्के की कश लेते तब जाके खेत-खलिहान की सूध लेते। खेत से लौटने के बाद थोड़ा आराम करते फिर दद्दा चार बजते पीपल के चबूतरे पर अपना हुक्का ले के पहुँच जाते और फिर गाँव के बड़े-बुजूर्गो के संग उनकी बैठकी सूरज डूबने के बाद तक चलती रहती। गाँव में किसकी लड़की बिहाने को हो गई है किसकी बहू के पैर भारी है। अबकी फ़सल कैसी होगी। मानसून समय पर आएगा या रुला के जाएगा। किसको कौन सी बिमारी हो गई। शहर जा कर किसका लड़का क्या खरीद कर लाया है।किसकी बेटी अभी ससुराल में लड़ कर मायके आके बैठी है। किसका लड़का हाथ से निकलता जा रहा है। सबकी चर्चा होती।

गाँव के कई पढे-लिखे लड़के जो शहर में नौकरी करते थे जब भी गाँव आते तो दद्दा के इस लत के तरफ इशारा करते। दद्दा कहना होता कि वो तंबाकू थोड़े ही सीधे खा रहे हैं। हुक्का की गुडगुड़ाहट उनको परम शांति की अनुभूति देता। आत्मा से परमात्मा के मिलन का आनंद। इसलिए किसी का भी हुक्के की बुराई करना या टोकना उन्हें सहन नहीं होता। हुक्का उनकी पहचान थी। आन बान थी। हो भी क्यों ना। इस हुक्के की वजह से मुखिया के बाद उनका ही रुतबा था। मुखिया जी गाँव –जवार के हर समस्या पर दद्दा से सलाह-मसविरा करते थे।

पर दद्दा का तो भाग्य ही खराब रहा। मुँह का ऐसा भयानक कैंसर हुआ कि सबकी जान आफत में आ गई। कई दिनों तक घर के हर प्राणी की भूख-प्यास ही मर गय़ी। उ रोग के इलाज कराने में कई एकड़ खेत गिरवी रखे। कई बेचे गए। उधर दादी ने भी अपनी तरफ से पूजा-पाठ और दान-दक्षिणा में कोई कटौती नहीं की। आंगन में बंधी दोनों गाय कब दान में चली गई इसका उसे तो होश भी नहीं है। पर उ बिमारी तो दद्दा की जान ले के ही मानी।

दद्दा के जाने के बाद परिवार की सारी जिम्मेवारी बाबू और बड़का भइया के कंधे पर आ गई। पांच एकड़ में जो खेती होती उसमें क्या खाये और क्या बचाये जैसी स्थिति बन गई थी।

अम्मा-बाबू और बड़का भइया से बात कर तय किया कि अब वो शहर में जाकर काम ढूंढ़ेगा। उसे इतना तो पता था, सरकारी स्कूल से आठवीं पास किसान को कोई नौकरी देने से रहा अत: उसे हर हाल में मजदूरी ही करनी पड़ेगी। उसके स्कूल के कई साथी जो उसके साथ चौथी-पाँचवी जमात में साथ पढ़े थे अब शहर जाकर रिक्शा चला कर काफी अच्छी कमाई कर रहे थे। उनका छप्पर का घर अब पक्की ईटों का हो गया था। घर में हर तरह की सुख-सुविधा का सामान आ गया था। उनके बच्चे स्कूल में पढ़ रहे थे।

उनमें से लखन से उसकी खूब बनती थी। इस बार लखन जब गाँव आया तो उससे मिलने घर पर आया था उसकी ठाठ देखने में ही बन रही थी। पालिस्टर की सर्ट, जीन्स, पैरों में जूते और हाथ में मोबाइल। लखन कह रहा था बेटा-बेटी को खूब पढ़ाएगा। सरकारी नौकरी में लगायेगा। सरकार उनके जैसो के लिए सरकारी नौकरी में छूट दे रखी है। और ना जाने कितनी नई बातें बताता रहता था। वह चकित हो कर सुनता। कुछ बातें समझ में आती कुछ नहीं।

लखन खेतीहर मज़दूर का बेटा था। पर आजकल लखन के परिवार के ठाठ की चर्चा पूरा गाँव कर रहा था।

कई पुश्तों से लखन और उसके जैसे कई खेतीहर मज़दूरों का परिवार सम्पन्न किसानों के खेतो में मज़दूरी करते थे।उसके परिवार की तरह मझौले और अन्य बड़े किसान उनके मालिक थे। इन भूमिहीन  खेतीहर मज़दूरों के औरत-मरद बच्चे सभी उनके खेतो पर काम करते थे। आज स्थिति यह है कि उसका  खुद का परिवार ही भूमिहीन होता जा रहा है।

कल तक लखन का परिवार उसके खेतो पर निर्भर था। आज वह और उसके जैसे गाँव के कई नौजवान खेती में हो रहे घाटे के कारण, कठिन और अनिश्चत जीवन को छोड़कर नियमित आय वाले काम की खोज में शहर का रुख कर चुके थे। उसने भी वही किया। लखन के साथ दिल्ली चला आया था।

शहर आये हुए उसे दो साल होने को था। किसान से रिक्शा चालक तक का सफ़र किसी हादसे से कम नहीं था। दिल्ली जैसे शहर में काम मिलना तो आसान था पर एक छोटे से कमरे में छ: लोगो का एक साथ रहना किसी नरक से कम नहीं लगा। लखन और उसके मज़दूर साथियों के साथ एक कमरे में रहते उसका किसान का बेटा होने का स्वाभिमान कई बार आड़े आ जाता। रात में कई बार घूटन महसूस होती। उसे अपना खुला खेत-खलिहान गाँव की हरियाली सपने में बुलाते दिखते।

कई बार भीषण गर्मी में खून जला कर रिक्शा चलाता और जब कोई बतमीज सवारी भाड़े देने में तू तड़ाक करती तो लगता सब छोड़ कर वापस चला जाए। पर घर की हालत और बच्चों का मुँह आँखों के सामने आता तो, घर लौटने का भूत  अपने आप उतर जाता।

बात अब सिर्फ भरपेट खाना और कपड़े की नहीं रह गई थी। ना ही क़र्ज़ में चढ़े खेतो को छुड़ाने की ही रह गई थी।

सोच कर तो बस इतना ही आया था शहर में। पर अब उसकी आँखों में भी दिल्ली शहर ने कई सपने जगा दिए थे। अब उसका मन गाँव और हाड़-तोड़ किसानी में नहीं रह गया था। उसे अब गाँव में, खेती में भविष्य नहीं दिख रहा था ना ही अब अपने बच्चों को उसमें लगाना चाहता था। वो भी लखन की तरह धीरे-धीरे कई बातें जानने लगा है।  अब तो वह भी अपने बच्चों को अच्छे स्कूल में पढ़ाना चाहता है। उन्हें सरकारी नौकरी करवाना चाहता है।

उसने कई दफा समाचार में सुना था देश के दूसरे राज्यों में किसान क़र्ज़ नहीं चुकाने के कारण आत्महत्या कर रहे हैं। आये दिन जंतर-मंतर पर किसान क़र्ज़ माफी के लिए प्रर्दशन करते रहते हैं। पिछले साल दिल्ली  चुनाव के ठीक बाद दिल्ली के मुख्यमंत्री और मीडिया के सामने किसानों की रैली में हरियाणा के किसान गजेंद्र सिंह ने फांसी लगा के आत्महत्या कर ली थी। पूरी दिल्ली उबलने लगी थी पर हुआ कुछ नहीं।

इधर कई दिनों से उसे अपनी तबियत ठीक नहीं लग रही थी। घर की याद रह रह के आती रहती। आज सुबह आँखे खुली तो ज़रुर अपनी नियत समय से, पर रिक्शा लेकर काम पर जाने की हिम्मत नहीं जुटा सका। शरीर में भारीपन और ऐठन सी महसूस हुई। माथा भी गर्म था।

बगल में विविध भारती पर गीत चल रहा था।

''मेरे देश की धरती सोना उगले उगले हीरे-मोती

मेरे देश की धरतीss''

तभी किसी ने चैनेल बदल दिया। समाचार आ रहा था। महाराष्ट्र के कई गाँवों के कई किसानों ने आत्महत्या कर ली। उसके अपने बदन का ताप बढ़ता लगा। ज्वर माथे पर चढ़ रहा था।

चैनेल पर किसानों के आत्महत्या पर बहस जारी थी। कैमरे के सामने बैठकर दिल्ली की मीडिया और कुछ नेता मिलकर ए.सी. युक्त स्टुडियों में आत्महत्या के कारण ढूढने में लगे थे।

इस बीच उसकी आँख लग गई। आँख खुली तो समाचार चैनेल अभी भी विचार-विर्मश में लगा हुआ था। एंकर आंध्र, महाराष्ट्र, पंजाब और यूपी के किसानों की आत्महत्या के आँकड़े बता रहा था।

उसका शरीर पसीने से तरबतर उठा था शायद ज्वर उतर रहा था।

यहाँ काम मिलते ही बच्चों को गाँव के ही सरकारी स्कूल में दाखिला दिलाया था उसने। पढ़ाई का महत्व शहर आ कर उसे अच्छे से समझ आ गया था। दो उसके और तीन बड़े भईया के बच्चे सभी का भविष्य संवारना है उसे। उन सबकी बड़ी याद आने लगी।

उसे प्यास लग रही थी। आँख खोलकर उसने कोटला मुबारकपूर के अपने 9x8 फीट कमरे में नज़र दौड़ाई। सारे साथी काम पर जा चुके थे। उसके लिए भात-तरकारी ढ़क कर रख गए होंगे। चार लीटर वाला एक मुँहा गैस का चुल्हे को देखा। उस पर तसला दिखा। अंतरियों में कुछ गुड़गुड़ाहट सी हुई। चुल्हे के बगल में प्लास्टीक की बाल्टी में पीने का पानी रखा होता है। उसने नज़र दौड़ाई। दिख गया। उसने जैसे ही पानी पीने के लिए पैरों को उठाने की कोशिश की मुँह से चीख निकल आई।

जाँघ से लेकर पैरों की उंगलियों तक में अजीब सी जकड़न थी और पीड़ा ऐसी की वह रो उठा। उसे महसूस हुआ जैसे उसे कमर के नीचे लकवा मार गया हो। अंतहीन पीड़ा से आँसू निकल आये। अपनी जगह से किंचित मात्र भी हिल नहीं पा रहा था।

''जय जवान जय किसान जैसे देश में किसानों की उपेक्षा की जा रही है। इस उपेक्षा के कारण किसानों के बच्चे किसानी नहीं करना चाहते हैं।''

अपने माता-पिता की कड़ी मेहनत के बावजूद इतनी गरीबी में देखकर नई पीढी खेती नहीं करना चाहती। किसानों की उपेक्षा कर देश विकास नहीं कर सकता। समाचार चैनेल पर बहस तीखी होती जा रही थी।

इस समस्या का समाधान वर्तमान सरकार को निकालना होगा अन्यथा बहुत बुरा होगा।

वो अपना दर्द कुछ समय के लिए भूल उन्हें सूनने की कोशिश करने लगा। आजतक उसने इन बड़े लोगो को अपने छोटे से गाँव में नहीं देखा था। फिर ये क्या जानते हैं खेती और किसानों के बारे में।

उत्तेजना में उसने अपने पैरों को हिलाया एक तेज दर्द की लहर उठी। वह तड़प उठा।

उसने अपने ऊपरी हिस्से को उठाया फिर हाथ बढ़ा कर पानी के बाल्टी तक जाने की सोची पर नाकाम रहा।

ज्वर तेज हो रहा था उसे ठण्ड लगने लगी। बगल में पड़ी चादर को ओढ़ कर चुपचाप पड़ा रहा। अम्मा की याद आने लगी। अम्मा होती तो अब तक मडुआ की रोटी और गुड़ की चाय पिला दी होती। बच्चे उसका माथा सहला रहे होते। बाद में लुगाई भी सरसों के तेल में लहसुन पका के सौसे देह में मालिश कर दी होती। सबकी याद आते ही अजीब सा अकेलापन ने उसे घेर लिया। इस उदासी से बचने के लिए वह फिर से सोना चाह रहा था पर नींद नहीं आ रही थी। उसे याद रहा था। बालपन में अम्मा उसे सुलाने के लिए उसका सर अपने गोद में रख थपकी देते हुये  गाती थी-

आ उ रे निनिया निनर बन से

बबुआ आइ ल निनिउs रा से

गीत सुनते कब उसकी आँख लग जाती पता भी नहीं चलता।

चार बजे तक खाना खाने कोई न कोई साथी तो ज़रूर कमरे पर आएगा। इसी आस में वह लेटा रहा।

''दिल्ली में चिकनगुनिया और डेगू का प्रकोप। अब तक किसी के मरने की संभावना से इंकार।''

समाचार किसानों की आत्महत्या से चिकनगुनिया से मौत पर आ गया था।

उसके ऊपरवाले कमरे में दो लड़के रहते हैं उन्हीं के टीवी की ये आवाज़ थी।समाचार बता रहा था। शहर के सारे अस्पताल चिकनगुनिया और डेंगू के मरीज़ों से पटा पड़ा है। बेड की कमी हो रही है। चिकनगुनिया और डेंगू से बचने के लिए साफ-सफाई से कैसे रहे। चिकनगुनिया और डेंगू के मच्छर साफ पानी में पैदा होता है। दिन में ही सिर्फ निकलता है और काटता है। इसलिए कहीं भी गमले में, बोतल में, बाथरुम के बाल्टी में पानी ना जमा करे। बदलते रहे। खूब पानी पिये। ऐसी सूचना दी जा रही थी।

उसे थोड़ा समझ में आने लगा। ज़रूर उसे मच्छर ने ही काटा है। स्वाभिमानी किसान के बेटे से वो लाचार डेंगू के मरीज़ में तब्दील हो रहा था। कायान्तरण की नई किस्म की पौध थी उसकी पीढ़ी। जो गाँव में गर्व से अपने आपको खेतिहर किसान कहती और शहर में आकर मज़दूर बन जाती। एक ज़माने में कोलकता, पंजाब, हरियाणा बिहारी मज़दूरों का गढ था। इन शहरों में वे हर प्रकार की मज़दूरी करते। धान कटनी के समय दो महिना के लिए गाँव चले जाते।

एक बेहद छोटे से कमरे  में पाँच-छह लोगो के साथ खाना-रहना। पास ही सिर्फ घुस के बैठने लायक बदबूदार लैट्रिन 15 लोगों के साथ साझा करना। फिर कई बिमारी का शिकार होके उम्र से पहले बुढा हो जाना और फिर किसी हाड़ी-बिमारी में समय से ईलाज नहीं होने पर बेनाम मौत मर जाना। उसे लगा आज वह भी उसी प्रकार की नियती का शिकार होनेवाला है। उसकी आँखो के कोरो से आँसू टपक रहे थे पर उसे पता भी नहीं था।

उसका गला सूख रहा था शाम होने को आई थी। किसी भी साथी का पता नहीं था। पानी की एक बूंद भी उसके गले से नहीं उतरी थी। ज्वर और हाथ-पैरो के जोड़ो का दर्द जैसे उसके धैर्य की परीक्षा ले रहा था।

कुछ दिन पहले ही लुगाई से फोन पर बात हुई थी। उसे बताया था कि इस बार भी कार्तिक माह में धान की कटनी के समय गाँव आएगा। तब तक वो बच्चों की पढाई का ध्यान रखे। अम्मा बाबू की सेवा करे और भइया भौजी के साथ घर और खेत के काम में हाथ बटाये।

पहली बार जब कमाई कर के गाँव गया था तो बड़का भईया के लिए मोबाइल खरीद के ले गया था। अपने लिए भी बाद में खरीदा और हफ्ता दस दिन में 50 रु का वो क्या कहते हैं टाक टाइम भरवा के सबसे बात कर लेता था।

अभी तो उसे बहुत कुछ करना था कमा के घर–परिवार के लिए। गाँव के छप्पर वाले घर को पक्का करना है। छोटू बहुत पढ़ने में तेज है। बड़का भइया कह रहे थे। उसको इंजिनियर बनाना है। कोई- कोई सवारी बड़ी अच्छी मिल जाती है। बात बात में ही उसको बहुत जानकारी दे देती है। उसको कितना अब पढाई के बारे में ज्ञान हो गया है। कितना पढ़ के क्या बनते हैं। सबकुछ पैसे इक्ठठे हो जाएगें तो वह गाड़ी खरीदेगा और टैक्सी ड्राइवर हो जाएगा। ज़िंदगी भर थोड़े ही रिक्शा चलाना है उसे। लखन तो आठ साल से रिक्शा चला रहा था अब जाकर वह अब भाड़े की टैक्सी चलानी शुरु किया है। ये जो प्राइवेट कम्पनी सब आई है न ओला, उबर। अपनी गाड़ी है तो बहुत बढ़िया नहीं, है तो अपनी टैक्सी देते हैं। लखन बता रहा था बस जीपीएस वाला मोबाइल होना चाहिए। सवारी के इंतज़ार का भी झंझट नहीं। कंपनी खुद ही सवारी दिलवाती है। फोन बस रहना चाहिए। हर काम फोन से। अगर अपनी गाड़ी है तो कम्पनी पर सवारी बीस परसेंट काटती है। नहीं है तो कौनो बात नहीं सैलरी पर रखेगा। हर महीने सैलरी अकांउट में आ जाएगी।

अँधेरा हो गया था कोई साथी नहीं, कोई हलचल नहीं। उसकी जीभ बगावत पर उतर आई थी। ऐंठ रही थी। गला सूखा था पैरो और हाथों के जोड़ का दर्द अपने चरम पर थी।

उसे अम्मा आती दिखी। चेहरे पर मृदुल मुस्कान। माथा पर अचरा। हाथों में कटोरी। कटोरी में लहसून पका गरम सरसों का तेल। अम्मा उसके तलवों में अब मालिश करेगी। उसके बालो पर हाथ फेरेगी। उसके सूखे होठों पर हास्य की लकीर खींच गई। उसे लगा अम्मा गीत गा रही है-

एकिया हो मोरे रामs जब से परदेस में बाड़न रहल हो राम

एकिया हो मोरे रामs तनी ना सोहात बा कवनो टहल हो राम

वो बुदबुदाया ''अम्मा तू आ गईलू हम्मर पास।'' उसे नींद आ गई।

जब आँख खुली तो देखा लखन और दूसरे साथी उसके पास खड़े है। वह अस्पताल में एक दूसरे रोगी के साथ बेड पर लेटा है और हाथ में ड्रिप से पानी चढ़ रहा है। डाक्टर साहब लखन को दवाइयाँ लिख कर दे रहे है। उसे जगा देख कर सब बहुत खुश हुए। लखन ने बताया बड़का भईया को सब बता दिया है। काकी के साथ कल तक आ जाएगें। घबड़ाने की बात नहीं है हफ्ता दस दिन में ठीक हो जाओगे। उसे सब देख सुन के विश्वास नहीं हो रहा था कि उसे लगा वह भोरे-भोरे कोई सपना देख रहा है।


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