यारियाँ

यारियाँ

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जब भी बाहर के खाने की क्रेविंग होती है तो दिल्ली में बिताये दिन और दोस्त याद आते हैं। जिनके साथ हमेशा पिज्जा या बर्गर  शेयर करती थी। सोचना नहीं पड़ता था क्या खाना है।  ऑफ़िस में हो या पीजी में एकमत से प्रस्ताव पास हो जाता है। ज्यादतर समय मैक डी के आलू बर्गर टिक्की या डोमीनोज या पिज्जा हट के पिज्जा ऑडर ही किये जाते। चूंकि ज्यादातर सभी शाकाहारी ही थी इसलिए इस पर कभी बहस नहीं होती क्या मंगाना है और क्या नहीं।

लड़कियाँ हर बात पर दूसरे से सहमत हो ज़रुरी नहीं होता मगर खाना और शॉपिंग के नाम पर हमेशा उनमें बहनापा हो ही जाता है। छोले भटूरे और समोसे मेरे ऑल टाइम फेवरेट थे पर उस पर सहमती कम ही होती। क्योंकि बाकियों के नजर में वे बहुत ऑली थे, फिगर मेंटेन नहीं रहने का खतरा उनके ज़हन में मंडराने लगता। जब जेबें ढीली होतीं तो स्ट्रीट फूड छोले कुलचे और पानी –पूरी या मोमोज़ से ही काम चला लिया जाता।

शुरुआत के कुछ वर्ष पी.जी में रहने के कारण मेरे मित्र समूह में विविधता रही। हर प्रदेश की लड़कियों से मिलना हुआ। उनके तौर-तरीके को जानने का मौका मिला।अपनी रुममेट के मामले में हमेशा भाग्यशाली रही। दो रुममेट मिली और दोनों नार्थ-इस्ट से थी। दोनों बेहद समझदार, सुलझी और बहुत प्यारी। दोनों आज तक मेरी दोस्त हैं और साल में दो बार उनका फोन आ ही जाता है। दोनों में एक बात समान थी। दोनों मुझे आज भी बहुत प्यार करती हैं जबकि हमारी रुचियाँ अलग थी। अलग तरह के परिवेश से आने के कारण कई बातों में हमारी सोच भी अलग थी। पर जब तक हम साथ थे तो हम एक-दूसरे की भावनाओं का हमेशा ख्याल रखते बल्कि ये कहूँगी दोनों मेरी भावनाओं का ज्यादा ही ख्याल रखती।दिल्ली आने से पहले दोनों ने कभी रोटी या पराठें, दालें और छोले नहीं खाये थे। नार्थ-इस्ट के लोगों का मुख्य भोजन चावल ही है और मांसाहार के बिना उनका जीवन मुश्किल। जो भी खाते हैं बिल्कुल सादा, उबला हुआ। साथ में मछली का सूखा आचार या फिर लहसून-मिर्च-टमाटर की चटनी। खिचड़ी का नाम भी नहीं सुना था। हम हजार तरह की सब्जियाँ बनाते हैं और उसमें कई तरह के मसाले डालते हैं उन्हें नहीं पता था। मगर मेरे साथ उन दोनों ने रोटी-पराठें , लिट्टी -चोखा , हर तरह के उत्तर और पूर्वी भारतीय व्यंजन बनाना सीखा और बना कर खाने लगे। और जबतक हम साथ रहें उन्होंने अपनी इच्छा से कभी भी हमारे साझे- रसोई में ना कभी अंडा उबाला, ना कभी मछली बनाई और ना कभी चिकेन बना के खाया। जबकि मैं हमेशा उनसे कहती -"मुझे कोई परेशानी नहीं है यार ! तुमलोग ऐसा मत करो , जो चाहे बनाओं, खाओ"। वे कहती-" महिमा! तुम नहीं जानती , मछली की स्मेल तुम सहन नहीं कर पाओगी और हमें खाना होगा तो हम बाहर होटल में खा लेंगे न!

तुम क्यों इतना सोचती हो! हमें तुम्हारा मसालेवाला खाना अच्छा लगता है ।"

आज उनमें से एक का फोन आया था तो थोड़ी सी नॉस्टालजिक हो गई।



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