Sharda Srivastava

Drama Others

4.2  

Sharda Srivastava

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छोटकी अम्मा

छोटकी अम्मा

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रात का दूसरा पहर। चारों ओर नीरव स्तब्धता व्याप्त थी। "रोशनी" देवी लगातार खाँसे जा रही थी खांसते खांसते हलक सुखा जा रहा था अब इतनी रात को किसे आवाज दे, सब अपनी अपनी कोठरी में सोए पड़े थे।


इतना बड़ा घर-आंगन था... पंडित हरिओम बाबू के आंगन के एक छोर पर 10-12 कमरे बने हुए थे और दूसरे छोर पर दो कमरे... जिनमें एक कमरा जलावन और गैर जरूरी सामानों को रखने के काम आता और दूसरे में रोशनी देवी रहा करती थी। रहा करती थी क्या उन्हें यही कमरा दे दिया गया था ताकि उनके खासने से दूसरों को परेशानी ना हो। उनकी भी इच्छा होती कि कोई घड़ी दो घड़ी उनके पास बैठे... उम्र के इस पड़ाव पर अकेलापन सहन नहीं होता था। लेकिन बैठना तो दूर जलावन लेने कोई बहू कमरे तक आती और यदि वे आवाज लगाती तो धीरे से पीछे की तरफ सरक लेती थी।


रोशनी देवी चारपाई पर लेटे ही लेटे बाहर झांकती है आकाश में तारों की जगमगाहट से सारा आंगन रोशन हो रहा था... मन ही मन बुदबुदाती है, अभी तो रात काफी बाकी है, ना जाने कब भोर होगी..? मन करता था थोड़ी देर चारपाई पर उठ कर बैठे लेकिन शरीर साथ नहीं देता था... बुढ़ापे में शरीर इतना कमजोर हो गया था करवट बदलना भी बड़ा भारी काम जैसा लगता था। अभी आंख लगने ही वाली थी कि मच्छर कान में भिनभिनाना शुरू कर देते हैं। साड़ी के पल्लू से हवा देती है लेकिन फिर वही ढाक के तीन पात। 


सारी रात मच्छरों का शोर ही सुनती हूँ, यह भी कमबख्त मेरे ही पीछे पड़े रहते हैं। कितनी बार कहा है एक मच्छरदानी ला दे चाहे दो कौड़ी की ही ला दे। कम से कम राहत तो रहेगी ना... लेकिन कौन सुनता है... रोज ही शहर जाता है6 गणपत लेकिन एक मच्छरदानी इसके हाथ से नहीं उठती।


बस इसी तरह दीवारों से बात करके मन की भड़ास निकाल लिया करती थी। रोशनी देवी के ससुर हरिओम ओझा के दो लड़के थे चंद्रिका और मुद्रिका ओझा... जब रोशनी देवी का गौना हुआ और इस घर में आई थी, तो क्या राजसी ठाट थे। अपनी बैलगाड़ी थी चारों पहर दरवाजे पर लगी रहती थी। घर की औरतों को कहीं जाना होता था कहार पालकी में लेकर जाते थे। हरवाह-चरवाह लगे रहते थे जो कि आज भी है, ठाट तो अब भी कम नहीं था लेकिन तब की बात कुछ और थी।


पहले मकान कच्ची ईंटों का था अब पक्का मकान बन गया था जो कि इस कैथी गांव में सबसे पहला उन्हीं का था। लेकिन रोशनी देवी को ज्यादा दिन यह सुख सुविधाएं रास नहीं आई। काल के क्रूर हाथों में उनका साल भर का बेटा उनसे छीन लिया नव वधू कुछ समझ नहीं पाई अभी कुछ ही दिनों पहले तो कैसे हंसता खेलता था बस जरा सा बीमार ही तो था दवा दारू सभी यूं ही बेकार।


मुंद्रिका अपने खेतों में बैठा कामकाज देख रहा था बनिहार लगे हुए थे जब हरखू दौड़ता हुआ आया और यह मनहूस खबर उन्हें दी, लगा एक पल को जैसे उनके पैरों तले जमीन निकल गई हो... किस तरह बोझिल कदमों से घर पहुंचा यह तो वही जानता है, लेकिन घर पहुंचते ही ज्यादा देर खड़ा ना रह सका... ना जाने कैसे अजीब सी बेचैनी महसूस कर रहा था। हालत खराब होती देख लोगों में शहर ले जाने को सोचा परंतु वह तो घंटे 2 घंटे का मेहमान था। बेवफा जिंदगी ने उसे भी ठुकरा दिया और छा गया रोशनी के जीवन में घनघोर अंधकार। उसके जीवन की रोशनी बुझ गई हृदय चीत्कार कर रहा था घर में कोहराम मचा था सारा गांव शोकाकुल था विधाता की यह कैसी लीला थी! एक साथ दो दो चिंताएं एक साथ दो दो अर्थी घर से निकली चारों और यही चर्चा कैसी घनघोर विपत्ति..! नव वधु पाषाण हो गई जाने कितने कर्मकांड.... वैधव्य का चोला डाल दिया गया और खो गया उसका सारा श्रृंगार...। न जाने कैसी और किस बात की सजा दी थी ईश्वर ने, ना जाने कौनसी काली स्याही ने उसके भाग्य को लिखा था और अब उसे ऐसे ही जीना था बार-बार हृदय को समझाती लेकिन मन कहां धीर मानने वाला था, रोती तो कलेजा मुंह को आता।


भाई आया था मायके से लिवाने लेकिन रोशनी ने तो जिद ठान ली थी नहीं जाएगी तो नहीं जाएगी। "अब यहां क्या है..? चलो वहां मेरा हमारे साथ रहोगी संतोष रहेगा। यहां मेरे साथ घर वालों की भी तुम्हारी चिंता लगी रहेगी..."


लेकिन रोशनी ने भी अपना फैसला सुना दिया, "नहीं भैया नहीं अब मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो, डोली उठी है तुम्हारे घर से अर्थी अभी यहीं से उठेगी पीहर में मरी भी तो क्या..... पोतनहर बन कर (मिट्टी के घर को पोतने का कपड़ा) तरूँगी तभी (सद्गति) जब मेरे प्राण ससुराल की ड्योढ़ी से निकले..." 


उसकी दलीलों के आगे भाई की एक न चली और थक हार कर समझा-बुझाकर वह अपने गांव गोसाईपुर लौट गया। धीरे-धीरे समय यूहीं सरकता गया।


कुंदन अब सयानी हो रही थी जो उनके जेठ चंद्रिका और गंगोत्री की एकमात्र संतान थी। जन्म दिया था गंगोत्री ने जरूर लेकिन पाला तो था रौशनी ने ही। माता-पिता के अत्यधिक लाड-प्यार में वह इतनी मनसोख हो गई थी कि किसी की नहीं सुनती थी। रोशनी देवी से तो जन्म का बैर था। मां और दादी जब रोशनी को ताने देती तो वह भी कहां पीछे रहने वाली थी। दिन भर काम करने के बाद जब दो कौर मुंह में डालती, "तो क्या खाओगी... तुम्हारे नाम पर कोई कमाने वाला भी है तुझे भूख लग गई..? अरे कमाने वाले को तो तू पहले ही खा गई अब चलो उठो महारानी जी उठो और बाबूजी के लिए पथ्य बनाओ... उठो....जल्दी करो।"


रोशनी घर के कामों में और ईश्वर की आराधना में अपने आप को भरसक व्यस्त रखने की कोशिश करती अपने आप को भुलाने का असफल प्रयास करती थी लेकिन यह तरह-तरह के ताने ही थे जो उसका जीना दूभर कर देते थे। सवेरे पौ फटते ही पूजा-पाठ से निवृत्त हो जाती थी और तुलसी चौरे में नित्य दीपक जलाना वह कभी नहीं बोलती थी... हस्तकला की ज्ञाता थी मोहल्ले में कोई न कोई लड़की कुंदन की सखी सहेलियां कुछ न कुछ पूछने सीखने आ ही जाती। 


उम्र बढ़ने के साथ अनुभव भी निखरा था और फिर थी तो पंडिताइन ही....। शुभ कार्यों में, कार परोजनों में लोग उन्हें बुलाकर ले जाते। अपने हाथ से छूती नहीं थी, अलग मोढ़े पर बैठी रहती और देख देख के पूरे मनोयोग से सारे कार्य पूरे करवाती।


धर्मपरायण, शांत और सुंदर चित्र वाली रोशनी देवी का लोग बड़ा सम्मान करते थे। यह सम्मान ही तो था जो सारा गांव उन्हें छुटकी अम्मा ही कहा करता था। 


धीरे-धीरे रोशनी देवी अब छुटकी अम्मा बन गई थी। चंद्रिका बाबू कुंदन के लिए वर तलाश करने में जुटे थे कुंदन के लिए उन्हें कोई ऐसा लड़का चाहिए था जो यही बस जाए और उनके खेत बारी जमीन जायदाद और साथ-साथ बुढ़ापे में उनकी देखभाल भी कर सकें। 


पुत्र ना होने के कारण सब गोतिया-दयाद की नजर खेत जमीन पर पड़ी रहती थी। चंद्रिका बाबू ने उन सब की मनसा भांपते हुए पहले ही किनारा कर दिया। संजोग से ऐसा लड़का भी मिला और चंद्रिका बाबू के मन की मुराद पूरी हुई। चंद्रिका बाबू ने 10 बीघा जमीन अपने दामाद बालमुकुंद के नाम लिखिए और धूमधाम से शादी की। शादी तो शादी ही थी गांव वाह-वाह कर उठा...! 


इधर रोशनी देवी का सामाजिक सरोकार बढा उधर चंद्रिका बाबू के कान खड़े हो गए। लोगों ने कान भरना शुरू कर दिया, "अरे उस मोसमात का क्या भरोसा कहीं अपना हिस्सा अलग ना कर ले..." कहीं अपनी जिंदगी में अपनी हिस्से की सम्पत्ति अपने भाई के नाम कर गई या कोई उसका शुभचिंतक बहला-फुसलाकर अपने नाम करवा लिया तो तुम कहीं के नहीं रहोगे..." चंद्रिका बाबू ने भी एक योजना बनाई छल और धोखे से बिना बहु को जानकारी दिए उनके हिस्से का खेत अपने नाम रजिस्ट्री करवा ली। "मोसमात रोशनी देवी की देखरेख करने वाला कोई नहीं है सो स्वेच्छा से अपना खेत वह चंद्रिका ओझा के नाम कर रही है।" 

 गांव के ही कुछ लोगों द्वारा जैसे ही छुटकी अम्मा को भनक लगी भाई को पत्र भेजकर बुलवाया फिर रजिस्ट्री खारिज करवाई गई। दूसरा हलफनामा लिखवाया गया, "जब तक रोशनी देवी जिंदा रहेगी तब तक अपने हिस्से की खेत जमीन की मालकिन वे स्वयं है और मरने के बाद भी 20 बीघा जमीन आधी ससुराल आधी मायके वालों में बांट दी जाएगी।"


इसके बाद दोनो गोतनी रोशनी और गंगोत्री देवी में काफी दिनों तक खींचातानी चलती रही। चंद्रिका बाबू को अपनी हार गले नहीं उतर रही थी।


इधर कुंदन दो बेटों की मां बन चुकी थी। दोनो पुत्र गणपत और रुद्रनाथ की किलकारीयों से घर आंगन गूंज उठा। चंद्रिका बाबू बीमार रहने लगे थे। शहर के प्रसिद्ध डॉक्टर के यहां इलाज चल रहा था...


जब तक शरीर साथ देता रहा छुटकी अम्मा सेवा भाव और कर्तव्य परायणता में कभी पीछे नहीं रही। आंखों से अब कम दिखाई पड़ने लगा था... छुटकी अम्मा उम्र के 50 वें पड़ाव पर पहुंच चुकी थी। बालों में सफेदी झलक ने लगी थी... सोचती थी चारों धाम यात्रा कर आऊं, जीवन का महत्त्वपूर्ण काम अब यही तो शेष था। सो एक बीघा खेत बुधिया कमकर के नाम लिखा। बहुत दिनों से बुधिया इस खेत के लिए छुटकी अम्मा के पीछे पड़ा था सो बुधिया भी खुश और छुटकी अम्मा का काम भी बन गया।


अपने भतीजे नारंग को साथ लेकर वृंदावन मथुरा काशी और अयोध्या ना जाने कहां-कहां की सारी तीर्थ यात्राएं पूरी की। कितना आत्मिक संतोष मिला था..! उन तीर्थ स्थलों में... फिर भाई के घर भी हो आई जहां पति की मृत्यु के बाद शायद नहीं गई थी। वही घर जहां उनका बचपन गुजरा था, कितना भाव विह्वल हो गई थी खूब जी भर कर भौजाइयों के गले लग कर रोयी थी। महीने भर वहां रही तब जाकर घर लौटी थी। पूरे मोहल्ले में प्रसाद बांटा गया जो भी मिलने जुलने आता उसके हाथ पर चार दाना रखना नहीं भूलती... कितनी धार्मिक और ज्ञान की पुस्तकें लाई थी हर सुबह पढ़ती और लोगों में अपने अनुभव बांटती। आंखों में धुंधलापन छा गया था फिर शहर के एक अच्छे डॉक्टर के यहां आंखों का ऑपरेशन कराया। बुधिया, नारंग, और गंगोत्री सभी साथ शहर आए थे। यूंही धीरे-धीरे समय सरकता गया। कुंदन के दोनों बेटे गणपत और रुद्रनाथ सयाने हो चले थे। गणपत ने गांव के स्कूल से ही मैट्रिक परीक्षा पास करके वहीं शहर के कॉलेज में दाखिला ले लिया। रुद्रनाथ अभी आठवीं में था एक न एक लड़की वाले दस्तक देते ही रहते। और फिर 2 साल गुजरते गुजरते दोनों का ब्याह भी हो गया। फिर धीरे-धीरे नाती पोतों से घर आंगन भरने लगा। और अब सब अपनी अपनी जीवन लीलाओ में रम गए। 


चंद्रिका बाबू भी चल बसे। जो दुख 50 वर्ष पहले रोशनी देवी का नसीब बना था वही वक्त काफी दुखद पहिया गंगोत्री की तरफ घूम गया था। समय पर किसका जोर चलता है कहां खो गई थी गंगोत्री की वाचालता..! उसे क्या मालूम था वैधव्य का यह दंश उसे भी झेलना पड़ेगा। बालमुकुंद ओझा जो इस घर के दामाद थे गांव के कुछ लोगों की नजरों में खटकते थे गांव वाले चाहते थे कि वह दब कर रहे हैं क्योंकि वह दामाद है। लेकिन बालमुकुंद को यह मंजूर नहीं था दो लोगों के बीच कहीं विवाद होता पहुंच जाते बीच-बचाव करने। विपक्ष वाले उन से खार खाए रहते थे। खेत में मेड को लेकर रंगू और गोपी में विवाद हुआ और रंगू ने एक साजिश के तहत कुछ दबंगों के सहयोग से उनके ही खेत पर बालमुकुंद की हत्या कर दी। एक-एक कर सारे गृह स्वामियों की मौत ने छुटकी अम्मा को अंदर तक आहत कर दिया था। अपनी संतान से कम मोह नहीं था रोशनी को कुंदन से.... यह तो कुंदन ही थी जिन्होंने जिसने उन्हें कभी कुछ समझा नहीं।


रस्सी जल चुकी थी पर ऐंठन कहां समाप्त होने वाली थी और फिर छूटकी अम्मा से तो उसे जन्म का बैर था। छोटकी अम्मा उम्र के इस पड़ाव पर भी बेकार की वस्तु रह गई थी। 80 की उम्र पार कर रही थी छुटकी अम्मा कानों से कम सुनाई देता था खांसी थी छूटने का नाम न लेती सो उन्हें इसी आंगन वाले कमरे में एक तरफ रख दिया गया था। शरीर साथ नहीं देता था सो मोहल्ले में भी आना जाना कम हो गया था। जिसे याद आती वह खुद ही मिलने चला आता था। इसी कमरे में चारपाई पर लेटी रहती थी, वही एक चारपाई उनकी दुनिया हो गई थी। नींद कहां आती थी। और, आती तो मच्छरों का प्रकोप इतना बढ़ गया था कि एक पल भी आंख लगना हराम हो जाता। 


घर की बहुएं प्रतिदिन रात्रि पहर लिट्टी लगाती लिट्टी गणपत को बहुत पसंद था पसंद तो उन्हें भी था पर अब दांत कहाँ था, टूटता नहीं था। बस किसी तरह दोनों हाथों से दबाकर अंदर का मुलायम कुछ हिस्सा खाती, पानी पीती जिससे संतोष हो जाता। किससे कहती, कितना कहती उससे ज्यादा मिल जाता सुनने के लिए। धरती पर जिसकी जरूरत ना हो उसकी खबर ईश्वर भी कहां लेता है..? और जिसकी जरूरत यहां होती है उसकी जरूरत उसे भी लग जाती है...! "अरे रामकली बहू से कह दे न.... एक मच्छरदानी मेरे लिए मंगवा दे... रात नहीं कटती है रे।" 


रामकली कहारिन की बेटी थी जो जलावन निकालने बगल वाले कमरे में आई थी। "हां, अम्मा कह दूंगी... कैसी हो तुम, तबीयत तो ठीक है तुम्हारी..?" अम्मा कुछ नहीं बोली। "अरे भौजाई जी अम्मा मच्छरदानी के लिए कह रही थी मंगवा क्यों नहीं देती...??"


"अरे कोई शहर जाए तब तो लाए कई दिनों से सोच रहे थे आज निकले हैं तो लाएंगे ही, इन्हें तो संतोष ही नहीं है गांव में यूं ही हमारी नाक कटवाना चाहती है जैसे कि इन्हें कुछ मिलता ही नहीं..."


अगले दिन मच्छरदानी स्वयं गणपत लेकर आया था 6 महीना से रट रही थी अम्मा। आज उनकी आस पूरी हुई।आखिर आज आ ही गई मच्छरदानी। 


गणपत का बेटा महेश दिखाने आया, "नानी, अरे इधर देख इधर यह रही तेरी मच्छरदानी..."

 

कितना खुश थी अम्मा ढेरों आशीर्वाद की झड़ी लगा दी। और अपने ही हाथों से महेश ने उसी समय मच्छरदानी लगाई। आज जी भर कर सोएगी अम्मा। एकदम निश्चिंत.... मच्छरों से राहत जो मिल गई थी। शाम को एकबारगी जब आंख खुली तो अंधेरा छाने लगा था। आवाज लगाती थी कोई सुनता ही नहीं था। फिर चुपचाप लेटी रही। 


"लो अम्मा खा लो... आज खूब भी में डुबोया है बिल्कुल नरम लेती है छुट्टी है छोटी बहू खाने की थाली लेकर पहुंची।"


रख दे बहू अभी इच्छा नहीं है। क्या कहती क्या खाए इसको तो देख कर ही पेट भर जाता है।


रात गहराने लगी अकेले लेटे लेटे बीते बीते दिनों की याद करती कभी सोती कभी जागती। प्यास लग आई थी सोचा एक टुकड़ा खाकर पानी पी हीं लूं। उठा तो जा नहीं रहा था, किसी तरह बड़ी मुश्किल से मच्छरदानी से निकली और लिट्टी को तोड़ना चाहा टूटा तो नहीं पर थोड़ा दब जरूर गया उसी में से थोड़ा सा सत्तू निकाला मुंह में रखा और पानी पी ली। फिर मच्छरदानी में आ गई और उसे दबाया। ना जाने कैसे एक मच्छरदानी का एक कोना नीचे लटका हुआ रह गया। बड़ी बेचैनी मालूम होती थी अम्मा को रह रह कर करवटें लेती, उठती फिर सोती। ढिबरी और मच्छरदानी के कोने में फ़ासला बहुत कम का रह गया था। गर्म होते होते मच्छरदानी ने कब आग पकड़ ली आग की लपटे जोर होने लगी प्लास्टिक के तारों की मच्छरदानी तुरंत गलने लगी अम्मा जब तो कुछ समझती आग काफी फैल चुकी थी। अब पूरी तरह से लपटों में घिर गई थी गलगल कर मच्छरदानी शरीर पर चु जाती और वह चमड़े से चिपक जाती है। अम्मा बेसुध सी चीखने का प्रयास करती पर बोल नही निकलते थे, असहाय, शिथिल पड़ती गई छूटकी अम्मा.... व्याकुल होकर रो रही थी भाग सकती नहीं थी कमरे का दरवाजा भी थोड़ा सटा हुआ था। आवाज बाहर भी जा नहीं रही थी कौन सुनता था इस वीरान, सुनसान रात्रि में...! उस स्याह रात्रि में सब अपनी अपनी नींद में खोए।


सुबह होते-होते पूरी तरह जल चुकी थी अम्मा। शायद इसी दिन के लिए मच्छरदानी मच्छरदानी रटती रही थी। शरीर जलकर पूरी तरह काला पड़ चुका था, बस सांस हल्की हल्की चल रही थी। सुबह पौ फटते ही जलने की बदबू गणपत की पत्नी को लगी, वह चारों तरफ मुआयना कर ही रही थी कि अम्मा के कमरे पर नजर पड़ी। दिल धक से रह गया। दौड़ कराई तो जैसे घिग्घी बंध गई। फिर तो गांव के लोगों का हुजूम जुट पड़ा। जितनी मुंह उतनी बातें। कुछ लोगों ने शहर ले जाने की इच्छा जाहिर की शहर ले जाने की तैयारियां शुरू हुई। लेकिन, सारी तैयारी धरी की धरी रह गई वह तो जा चुकी थी। जहां जाने के लिए इतने दिनों से आस लगाए बैठी थी, अपने पति के पास। आज ईश्वर ने उनकी सुन ली, जीवन के 80 वर्ष गुजारे थे इस ईश्वर को पूजते पूजते। जब तक जिंदा रहीं दूसरों के जीवन में रोशनी ही तो बिखेरती रही थी। अपने सदव्यवहार से सदविचारों से और अनुभवों से।


आज चली गई थी हमारे बीच से। हाँ... आज तर गई थी अम्मा। इसी मुक्ति और सद्गति के लिए ही तो इतने वर्षों तक ससुराल के हर सितम को खुशी-खुशी सहा था। आज अम्मा की अर्थी निकली थी... अम्मा जा रही थी अपने अरमानों के रथ में सवार होकर अनंत यात्रा पर.... आज चिर शांति को प्राप्त हो चुकी थी अम्मा..... छुटकी अम्मा..!! कितनी सहनशीलता कितना धैर्य.... अद्भुत, अप्रतिम..।


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