छड़ी
छड़ी
रोज की तरह राजेश अपने दफ्तर जाने की तैयारी कर रहा था। उसने अपनी पत्नी मधु से कहा की उसे दफ्तर जाने में देर हो रही है। उसका टिफिन अभी तक तैयार क्यों नहीं है ? मधु तुनकती हुई आई और बोली "मुझे क्या तुमने अल्लाद्दिन का जिन्न समझ रखा है, जो तुम्हारी हर फरमाइश बोलते ही पूरी हो जाये। इस घर में हर किसी ने मुझे मशीन समझ रखा है। ये लो पकड़ो अपना टिफिन।"
अब राजेश ने बहस करना उचित नहीं समझा। जैसे ही कमरे से बाहर निकला देखा की माँ हॉल मे कुर्सी पर बैठी है। माँ राजेश का हाथ पकड़कर खड़ी होती है और लाचारी से कहती है, "बेटा कल मोहल्ले के बच्चो ने मेरी छड़ी तोड़ दी, चलने में बड़ी दिक्कत हो रही है। अगर शाम को आते समय लेता आए तो... "माँ की बात बीच में काटते हुवे राजेश ने कहा की इस महीने तो मुमकिन ही नहीं है लेकिन वो अगले महीने जरुर लाकर देगा।
अभी दोनों की बात पूरी ही हुई थी की मधु ने आकर राजेश से कहा "गए नहीं अभी तक,अच्छा चलो पांच हजार रुपये निकालो मुझे आज शॉपिंग जाना है। राजेश चुपचाप पर्स से रुपए निकाल कर मधु को देता है और बाहर निकल जाता है। जमनादेवी अवाक् सी रह जाती है और कुर्सी पर निढाल हो जाती है। अपनी किस्मत को कोसती है। अपना दुखड़ा बेचारी दो को ही सुना सकती थी, एक तो दो महीने पहले स्वर्गवासी हो गए और दूसरी कल शाम टूट गई।