हरि शंकर गोयल

Comedy Romance

4.0  

हरि शंकर गोयल

Comedy Romance

भूतों का डेरा

भूतों का डेरा

6 mins
356


एक कहावत है "बिन गृहणी घर भूतों का डेरा" । इस पर आज सुबह सुबह बहस हो गई । श्रीमती जी बोलीं "अगर मैं नहीं रहूं तो यह घर भूतों का डेरा बन जाएगा । आपने कभी मेरी वैल्यू नहीं समझी मगर आपको पता चल जाएगा जब मैं दो चार दिन को कहीं चली जाऊंगी । तब तुम समझोगे कि औरत ही घर संभाल सकती है" । बड़े आत्म विश्वास से वे बोलीं । 

हम भी कहां कम थे हमने भी कह दिया "जाओ जाओ । हमें ना बनाओ । हम भी कुछ कम नहीं हैं , हां । पुरुष किसी नारी का मोहताज नहीं है । हम अपना काम खुद भी कर सकते हैं । आप दो चार दिन हमसे अलग रहकर तो दिखाइए " ? हमने भी खूब शेखी बघारी ।


अब तो बात आगे निकल गई थी। श्रीमती जी भी अड़ गई और हम भी । वैसे हम दोनों ही "अकड़ू" हैं । हर छोटी बड़ी बात पर अकड़ते रहते हैं । फिर क्या था , श्रीमती जी मैके चलीं गईं । हम ऑफिस जाने की तैयारी करने लगे । 


पहले लंच बॉक्स बनायें या नहा लें ? सोचने लगे । इतना समय नहीं बचा था कि लंच बॉक्स बनाया जाये । इसलिए सोचा ऑफिस की कैंटीन में लंच ले लेंगे । इसलिए नहाने चले गए । अब तक बाथरूम में सब कपड़े वगैरह तैयार मिल जाते थे इसलिए हम सीधे ही बाथरूम में घुस जाते थे सो , आज भी वैसे ही घुस गये । बाद में पता चला कि बाथरूम में टॉवल भी नहीं था । बड़ी शर्मिंदगी महसूस हुई और श्रीमती जी की कमी भी खली । मगर हमने भी मन ही मन सोचा कि ऐसी छोटी मोटी समस्याएं तो आएंगी ही , इनकी क्या परवाह करना ? हम कपड़े पहन कर तैयार होने लगे । और तो सब ठीक था मगर मोजे नहीं मिल रहे थे । बहुत तलाश किये मगर नासपीटे ना जाने किस बिल में छिपे बैठे थे कि नजर आने का नाम भी नहीं ले रहे थे । 


मन किया कि एक बार श्रीमती जी से फोन करके पूछ लें मगर हमारी "पुरुषोचित अकड़" बीच में आ गई । हमारी मूंछें फड़कने लगीं ‌‌। हमने भी तय कर लिया था कि हम भी बिना गृहणी के "कुछ दिन" तो रहकर दिखाएंगे । इसलिए स्लीपर पहन कर ही ऑफिस चले गए । 


बॉस ने हमें बुलवाया हम उनके केबिन में चले गए । वे हमारे स्लीपरों पर बड़ी देर तक दृष्टिपात करते रहे । हमने अपनी झेंप मिटाने के लिए कह दिया "पैरों में बड़ी तेज खुजली हो रही थी इसलिए आज स्लीपर पहनने पड़े" । मेरी बात सुनकर बॉस बड़े जोर से हंसे और कहने लगे "गोयल जी, जब मेरी श्रीमती जी भी मैके जातीं हैं तब मैं भी यही बहाना बनाता हूं । आप तो यह बताइए कि कब तक स्लीपर में ही आओगे" ? अब तो पोल खुल गईं थी इसलिए उनसे हकीकत छुपाने का कोई कारण नजर नहीं आया । 


दोपहर तक बड़ी तेज भूख लगने लगी । नाश्ता भी नहीं किया था । सुबह सुबह ही लड़ाई जो हो गई थी । लंच में अभी एक डेढ़ घंटा था । कैंटीन से चाय बिस्कुट मंगवाकर काम चलाना पड़ा । लंच में कैंटीन चले गए । लंच का बिल जी एस टी सहित 681 रुपए आया । बिल देखकर हमारी आंखें फटी की फटी रह गईं । इतने पैसे तो जेब में रहते भी नहीं हैं । पेटीएम से भुगतान किया तब श्रीमती जी का चेहरा आंखों के सामने नाचने लगा । ये 681 रुपए का खर्चा हमें फालतू लगा । श्रीमती जी लंच बॉक्स तैयार करके रख देती थी । मगर आज तो 681 रुपए की चपत लग ही गई । 


जैसे तैसे घर आये । गर्म गर्म चाय की बहुत तेज तलब हो रही थी मगर बनाये कौन ? श्रीमती जी होतीं तो जितनी देर में हम कपड़े बदलते उतनी देर में गर्मा गर्म चाय तैयार मिलती और साथ में एक खूबसूरत मुस्कान भी । मगर यहां तो पानी का गिलास भी खुद भरना था और उसे साफ भी करना था । 


लेकिन बड़े बुजुर्गो ने कहा है कि हिम्मत रखनी चाहिए । तो हम भी हिम्मत अपनी जेब में रखकर चाय बनाने लगे । पानी गैस पर चढ़ाया और अदरक ढूंढने लगे । बिना अदरक की चाय पसंद ही नहीं आती है हमें । मगर अदरक तो थी ही नहीं घर में । आज पहली बार बिना अदरक की चाय तैयार की । मजा नहीं आया । श्रीमती जी के हाथों की मिठास गायब थी उस चाय से । फीकी फीकी लग रही थी । अब अपने ही हाथों से बनी चाय में मीन मेख भी नहीं निकाल सकते थे । ऐसी चाय अगर श्रीमती जी बना देती तो दस बार सुना देते "क्या यार , चाय बनाना भी नहीं आता" ! मगर खुद को कैसे कोसें ? 


घर काटने को दौड़ने लगा । जिधर देखो उधर ही श्रीमती जी नजर आने लगी । इधर उधर काम करती , कभी मेरे साथ बॉलकोनी में बैठकर गप्पें लगातीं , कभी छत पर कपड़े सुखातीं । अरे , ध्यान आया । ‌‌कपड़े सुखाये थे सुबह । जाकर देखा तो गीले पड़े थे । शायद दिन में बारिश से भीग गए थे । श्रीमती जी होती तो उस समय उतार लातीं इनको । ‌‌मगर अकेले क्या क्या करें हम ? 


वक्त काटे नहीं कट रहा था । रह रहकर श्रीमती जी की याद आने लगी । टीवी ऑन किया मगर मन नहीं लगा । जब तक दिन में दो चार बार "जली कटी" नहीं सुन लेते खाना भी हजम नहीं होता था । इसलिए पेट में गुड़गुड़ होने लगी । आज "जलीकटी" सुनने को नहीं मिली न । डॉक्टर के पास गए तो उसने 1000 रुपए की दवाइयां लिख दी ‌‌उसने । हमने तरकीब निकाली और श्रीमती जी को फोन लगाया । फोन लगाते ही निर्बाध रूप से आवाज आनी शुरू हो गई "आज खुश तो बहुत होंगे आप । आखिर आज आजादी का दिन है आपका । और कर लो मजे । मन ही मन लड्डू फूट रहे होंगे कि चलो , बला टली । मगर मैं कहे देती हूं कि मैं पीछा छोड़ने वाली नहीं हूं । जब वापस आऊंगी तब सारा हिसाब चुकता कर दूंगी । कान खोलकर सुन लेना" । 


इतने सारे "लताड़ वाले" शब्द सुनकर पेट का हाजमा ठीक हो गया । गुड़गुड़ की आवाज आनी बंद हो गई । चैन की सांस आ गई । आखिर "जलीकटी" सुनने को मिल ही गई ना । हड़बड़ी में हम इतना ही कह पाया "प्रिये , अब वापस आ जाओ । मुझे पता चल गया है कि वास्तव में तुम ही मेरी लाइफलाइन हो । मैं अपनी गलती स्वीकार करता हूं" । 


उधर से रोने की आवाज आने लगी "हम भी एक मिनट को नहीं भूल सके हैं आपको । आपके बिना हमें भी कुछ अच्छा नहीं लग रहा है । हम अभी आ रहे हैं" । 


बड़े बुजुर्गो ने सच ही कहा है कि बिन गृहणी घर भूतों का डेरा ही होता है । हमने आज प्रत्यक्ष रूप से अनुभव कर लिया था ।



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