बहु भी थोड़ी सेवा का हक रखती
बहु भी थोड़ी सेवा का हक रखती
" रावी.... , मेरा वाॅलेट और घड़ी दो जल्दी। मुझे लेट हो रहा है।"
" हां अभी आई....। ये लो अपना वाॅलेट । सुनो शाम को आते वक्त पापा जी की दवाईयां लेते आना।"
" ठीक है- ठीक है, रोज कोई न कोई काम बता ही देती हो।" झुंझलाते हुए मनीष आफिस के लिए निकल गया।
तभी अंदर से ससुर जी सुभाष जी की आवाज आई,"बहु, जरा मेरा चश्मा देखना कहां रख दिया ।"
" ये लिजिए पापा जी,सुबह आपने टीवी के पास रख दिया था।"
" बहु जरा वो अखबार भी पकड़ा देना ।" कुर्सी पर बैठे बैठे ही उन्होंने कहा।
रावी की सासु मां मनोरमा जी जो पूजा करने बैठी थीं , उन्होंने ससुर जी की तरफ तिरछी नजरों से देखा।बाद में उन्होंने अपने पति को कहा , " आप हरेक छोटे - मोटे काम के लिए बहु को आवाज क्यों लगाते रहते हो? थोड़ा बहुत तो खुद भी हिल डुल - लिया करो। उस बेचारी की सुबह से शाम तक फिरकी बनी रहती है।"
" अरे भाग्यवान, बहु तो होती ही है सेवा करने के लिए। फिर मैं थोड़े ही कोई भारी काम करवाता हूं।"
" बात हल्के और भारी काम की नहीं है लेकिन हमें अपने काम खुद करने की आदत होनी चाहिए। वो शिकायत नहीं करती इसका मतलब ये तो नहीं की सारे काम का जिम्मा सिर्फ उसी का है।"
" तुम तो अनोखी सास हो। सब के घरों में तो सास हीं तानाशाही करती है लेकिन तुम तो ससुर को ही तानाशाह बना रही हो।" सुभाष जी ने दांत खिखियाते हुए कहा।
" जी सास तो मैं हूं ,लेकिन हूं तो मैं भी एक औरत ना। मुझे पता है सुबह से शाम तक काम करने के बाद कैसा महसूस होता है।"
उधर रावी फटाफट अपने काम निपटाने में लगी थी। उसका तीन साल का बेटा मोनू अपने सारे खिलौने घर में बिखराकर खेल रहा था। दोपहर के खाने की भी तैयारी करनी थी। मनोरमा जी ने रावी के हाथ से सब्जी लेते हुए कहा, " बहु , तूं ये सब्जी छोड़ दे , मैं काट दूंगी। थोड़ा बहुत काम मुझे भी बता दिया कर ।"
सासु मां की बात सुनकर रावी ने मुस्कुराते हुए कहा,। " ठीक है मम्मी जी, आप काट दीजिए। मैं छत से कपड़े उतार लाती हूं।"
जैसे ही रावी ने छत पर जाने के लिए सबसे ऊपर वाली सीढ़ी पर पैर रखा ना जाने कैसे उसका पैर फिसल गया। लड़खड़ाते हुए वो धड़ाम से नीचे आ गिरी। गिरने की आवाज सुनकर मनोरमा जी और सुभाष जी भागे भागे आए।देखा तो रावी दर्द से कराह रही थी। उसके पैर और हाथ में काफी चोट आई थी। किसी तरह से उन्होंने रावी को उठाकर बिस्तर पर लिटाया। अपनी मां की ऐसी हालत देखकर छोटा मोनू भी रोने लगा था। सुभाष जी ने मनीष को फोन करके बुला लिया क्योंकि रावी को अस्पताल लेकर जाना था। कहीं कोई हड्डी तो नहीं टूट गई थी।
सच में रावी के दाएं पैर की हड्डी में फैक्चर आ गया था।हाथ में भी चोट आई थी।दो दिनों तक रावी को अस्पताल में भर्ती रखना पड़ा। घर संभालना सबके लिए मुश्किल हो रहा था। ऊपर से मोनू... वो तो रावी के बिना खाना भी नहीं खा रहा था।
जब रावी प्लास्टर बंधवाकर घर वापस आई तो मोनू की जान में जान आई। मनीष ने दूसरे दिन अपने मम्मी पापा से कहा, " मम्मी, डाक्टर ने रावी को कम से कम चालिस दिन का रेस्ट बताया है। मैं रावी के भाई को फोन कर देता हूं कि रावी को कुछ दिनों के लिए अपने साथ ले जाए। "
" क्यूं बेटा, रावी को मायके क्यों भेज रहे हो?"
" मां,अब यहां कौन इसकी सेवा करेगा । आपकी तबियत भी ठीक नहीं रहती और मुझसे तो घर और आफिस का काम होने से रहा ।"
" लेकिन बेटा , इस तरह उसे मायके भेजना अच्छा नहीं लगता। याद है जब समधन जी का आपरेशन हुआ था... उस समय उन्होंने रावी को मदद के लिए बुलाया तो तुम सबने साफ मना कर दिया कि यहां घर कौन संभालेगा। अपने भाई की शादी में भी वो मेहमानों की तरह सिर्फ दो दिनों के लिए ही मायके गई थी।.... बेटा पांच साल से रावी पूरा घर संभाल रही है, हम सब की सेवा कर रही है। तो क्या हम सब मिलकर एक डेढ़ महीना उसकी देखभाल नहीं कर सकते???? सिर्फ मुसीबत के वक्त मायके वालों को परेशान करना ठीक नहीं है। "
मां का तर्क सुनकर मनीष की गर्दन नीचे झुक गई। " आप बोल तो ठीक रही हैं मम्मी लेकिन इतना काम कैसे होगा? "
बेटा रसोई का काम मैं देख लूंगी ।हम कुछ दिनों के लिए एक आया रख लेंगे जो रावी की देखभाल कर देगी और घर की साफ सफाई कर देगी। और तुम और तुम्हारे पापा को भी घर के कामों में हाथ बंटाना होगा। और मोनू को भी संभालना है। माना कि रावी की तरह नहीं लेकिन क्या हम इतने लोग मिलकर कुछ दिनों अपनी बहु की सेवा नहीं कर सकते?? "
" ठीक है मां मैं आज हीं कोई आया ढूंढ़ता हूं।"अंदर कमरे में लेटी हुई रावी की आंखें सजल हो गई थी। उसे आज अपने इतने सालों की सेवा का फल जो मिल गया था।
