राजकुमार कांदु

Comedy Tragedy

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राजकुमार कांदु

Comedy Tragedy

भोला -1

भोला -1

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भोला सत्रह साल का एक ग्रामीण युवक था। अपने नाम के ही अनुरूप सीधा सादा और भोला या यूँ भी कह सकते हैं नाम से भी ज्यादा भोला।

उसके पिताजी बचपन में ही गुजर गए थे। नीची जाति का होने के साथ ही गरीब होना व मंदबुद्धि होना जैसे कई गुनाह तो वह पैदा होने के साथ ही कर चूका था। सो उसका क्या नाम है इससे साथ खेलने वाले ऊँची जाति के लड़कों को कोई फर्क नहीं पड़ता था। सभी लड़के उसे गाली देकर ही बुलाते थे ” अबे साले ! सुन ! ”

नन्हा सा भोला रोते हुए घर पर आता और अपनी माँ से पूछता ”सभी लड़के मुझे साले कहकर क्यूँ बुलाते हैं माँ ? ”

उसकी माँ बेबसी में उसे समझाते हुए बताती ” बेटा ! यही तो तेरा नाम है। ” ऊँची जाति के लोगों से उलझ कर वह अपने लिए मुसीबत नहीं खड़ी करना चाहती थी। सो उसे किसी तरह समझा बुझा कर चुप करा देती। धीरे धीरे उसके बाल मन ने उस गाली को ही अपने नाम के रूप में स्वीकार कर लिया था।

ऐसे ही माहौल में एक एक कर दिन गुजरते रहे और भोला अब सत्रह साल का हो चला था। उसके सभी साथी या तो पढ़ने के लिए या रोजगार के लिए अपने परिवारों के साथ शहर में रहने लगे थे।

एक दिन भोला ने समझदारी दिखाई। अपनी माँ से बोला ” माँ माँ ! मैं भी परदेस जाकर कमाना चाहता हूँ। मेरे सभी संगी साथी अब परदेस में ही रहते हैं। तुम कल मेरी तैयारी कर दो। मैं कल ही रवाना होना चाहता हूँ।”

भोला की माँ उसके जिद्दी स्वभाव से परिचित थी सो ज्यादा बहस न करते हुए शहर जाने के लिए उसकी तैयारी कर दी। उसे विदा करते हुए उसकी माँ ने कहा ” बेटा ! तू पैसा नहीं कमाएगा चलेगा। तू नाम कमाना। और सुरक्षित रहना। रास्ते में सामान और पैसे को संभाल कर रखना। चोर उचक्के से बचे रहना। ”

” ठीक है माँ ! ” कहकर भोला घर से रवाना हो गया।

गाँव से बाहर निकल कर बस द्वारा वह रेलवे स्टेशन पहुँच गया। टिकट खिड़की पर उसने मुंबई के लिए टिकट माँगा।

टिकट लेकर भोला प्लेटफोर्म पर पहुँच गया।

ट्रेन आई भोला उसमें सवार हो गया। ट्रेन में संयोग से उसे खिड़की के बगल की सिट मिल गयी। उसके सामने ही एक अन्य शख्स बैठा था जो शायद गुजराती था। सफ़र लम्बा था सो समय काटने की नीयत से भोला कुछ बात करना चाहता था। और कुछ नहीं सुझा तो ट्रेन के दोनों खिड़कियों में लगे लोहे की रॉड को गिनकर उस आदमी से बताया ‘ बारह ‘ ! खिड़की में बारह रॉड लगे हैं। ‘ उस व्यक्ति ने शिष्टाचारवश अपनी मातृभाषा में जवाब दिया ” छे ! ”

उसका जवाब सुनकर भोला असहमति दिखाते हुए बोला ” छे नहीं बारह !”

गुजराती फिर से ” छे ! छे ! ”

भोला फिर से समझाता और गुजराती पुनः वही जवाब देता ‘ छे छे !

कई बार यही क्रम दोहराने के बाद अब भोला का सब्र जवाब दे गया। अगली बार उसके मुंह से ‘ छे ‘ निकलते ही गुस्से से भिन्नाये भोला ने कस के उसकी कनपटी पे एक जोरदार थप्पड़ सीद कर दिया।

उसके अचानक हमले से घबराया वह आदमी अपनी माँ को याद कर चिल्ला उठा ” बा रे ! ” ( गुजराती में माँ को बा कहा जाता है )

अब भोला खुश होते हुए उसे समझाने लगा ” यही बात पहले बता दिया होता तो थप्पड़ तो नहीं खाना पड़ता। लेकिन लोगों ने ठीक ही कहा है ‘ लातों के भूत बातों से नहीं मानते। ‘

अब डिब्बे के अन्य यात्री उसकी इस हरकत पर उसका विरोध करने की बजाय थोड़े सहम से गए थे।

ट्रेन चलती रही। काफी देर सफ़र करने के बाद शहर अब नजदीक ही था। टिकट चेक करनेवाला डिब्बे में सभी का टिकट चेक कर रहा था। उसने आकर भोला से भी टिकट माँगा।

भोला बैठे बैठे ही लापरवाही से उससे बोला ” साहब मेरे पास तो टिकट है। आगे जाइये। उनसे टिकट मांगिये जिसके पास नहीं है।”

”अरे मैं वही तो कर रहा हूँ ! ”

”तो मैंने बता तो दिया आपको कि मेरे पास टिकट है। आप सुन ही नहीं रहे हैं। ”

”मैं भी तो वही टिकट तुमसे देखने को मांग रहा हूँ। टिकट दिखाने में तुम्हें क्या परेशानी है ?

भोला सिट से अपने दोनों पैर नीचे करते हुए बोला ” तो आप ऐसे नहीं मानेंगे ! लगता है हमको जुता उतारना ही पड़ेगा। जुता उतारूँ क्या ? ”

भोला का इतना कहना ही था कि वह टी सी गुस्से से आग बबूला हो उठा ” मैं तुमसे तबसे इज्जत से बात कर रहा हूँ। टिकट मांग रहा हूँ और तुम जुता उतारने की बात कर रहे हो ? ठहरो अभी बताता हूँ। ”

टी सी ने आगे खड़े सिपाही को आवाज लगायी।

तब तक भोला झुककर अपने एक पैर के जुते को खोल चुका था। मोज़े में से टिकट निकालकर टी सी को देते हुए बोला ” आखिर आप नहीं माने। आपने मेरा जूता निकलवा ही दिया। ”

टी सी ने अपना सीर धुन लिया। टिकट सही था। वह गुस्से के बावजूद क्या कर सकता था ?

आखिर उससे पूछ ही लिया ” तुमने टिकट मोज़े में क्यूँ छिपा रखा था ? ”

भोला ने बड़े रहस्य की बात बताते हुए कहा ” ऐसा है कि मेरी माँ ने बताया था शहर में लोग बहुत अच्छे नहीं हैं। रास्ते में चोर उचक्के भी मिलते हैं। उनसे बच के रहने की हिदायत माँ ने दी थी। और इसीलिए मैंने टिकट मोज़े में छिपा लिया था।

मैंने तो सोच रखा था कि अगर चोर पूछेंगे तो भी नहीं बताऊंगा कि मेरे एक मोज़े में टिकट है और दूसरे पैर के मोज़े में पैसे हैं। ”

यह रहस्योद्घाटन सुन टी सी मुंह बनाता सा आगे बढ़ गया। साथ ही बैठे अन्य यात्रियों की हंसी छूट गयी।

कुछ ही घंटों में ट्रेन मुंबई पहुँच गयी। स्टेशन से बाहर निकलकर भोला ऊंची ऊँची इमारतें देखकर दंग रह गया। पहली बार किसी शहर में आया था। शहर की रेलमपेल भीड़ भाड़ और चकाचौंध देखकर वह आश्चर्यचकित रह गया। ‘ अरे बाप रे ! इतनी भीड़ तो हमारे गाँव में ठाकुर की बारात में भी नहीं हुयी थी।‘

सोचता हुआ वह सड़क पार करने की सोच ही रहा था कि तभी एक तरफ से आती डबल डेक्कर बस देख घबरा गया। ‘ अरे बाप रे ! यहाँ तो बस भी बस पे सवार होकर चल रही है। अगर कहीं झटके से गिर गयी तो ? ‘

किसी तरह सड़क पार करके महानगर पालिका भवन के सामने आजाद मैदान में पहुंचा।

शाम का समय था। मैदान के कई हिस्सों में बच्चे क्रिकेट खेल रहे थे। गाँव में पला बढ़ा भोला क्रिकेट से अनजान था। बड़े अचरज से बच्चों को खेलते देखता रहा और सोचता रहा ‘ कैसे बेवकूफ हैं ये ! पता नहीं क्या खेल रहे हैं। ‘

क्रमशः



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