Manoj Kumar Samariya “Manu"

Drama

4  

Manoj Kumar Samariya “Manu"

Drama

अपाहिज कौन

अपाहिज कौन

4 mins
308



यात्रियों से ठसाठस भरी हुई सिटी बस जैसे ही निर्धारित स्टेण्ड़ पर रुकी वैसे ही पहले से तैयार भीड़ बस की और लपक पड़ी। सबसे सतर्क और चालाक यात्री गेट पर अपना अधिकार कर चुके थे। उन्होंने बड़ी मजबूती से गेट से सटे दोनों हैंडल अपने हाथों में जकड़कर अन्दर घुसे यही उपक्रम बची हुई भीड़ ने किया। जैसे - तैसे जगह बनाकर एक विकलांग बस में चढ़ा। तरह - तरह की टिप्पणियों के सीटें उस पर गिरने लगे। जिसे वह गर्दन झुकाकर सहन कर रहा था उस पर गिरते छींटे उसकी आँखों में स्पष्ट दिखाई दे रहे थे। उसने अदृश्य , क्रुर विधाता की ओर देखा और पलकें मूँदकर शब्द बाणों के आघात सहने लगा।

इनके लिए तो अलग से बसें चलानी चाहिए सरकार को ...एक ने कहा। या इनको खुद की गाड़ी लेनी चाहिए। 

दूसरे ने समर्थन किया :- हाँ , हाँ ,और नहीं तो क्या ! कितनी तकलीफ होती होगी इन्हें। इनके कारण हमें भी तो तकलीफ होती है।

 भाई कुछ भी कहो मुझसे तो इनका दर्द देखा नहीं जाता अगर मेरे पास सीट होती तो मैं दे देता। एक ने सहानुभूति जताई। 

रहने दो भाई इतनी सहानुभूति ...थोड़ा इन्हें भी सोचना चाहिए , जरूरी है क्या इतनी भीड़ में चलना ? ये खुद सहानुभूति के भूखे रहते हैं , मैं खूब जानता हूँ ऐसे लोगों को ...अपना ज्ञान बघारते हुए एक ने कहा। सारी बस उसकी तरफ देखने लगी मगर मानवता की व्याख्या करते इन युवकों को कोई कुछ नहीं बोला।

विनिता अपनी सीट पर बैठी सबकी टिप्पणियाँ सुन रही थी सोच रही थी ; मानवता की व्याख्या करने वाले ये सभ्य लोग एक बात बिल्कुल भूल गए कि हर बस में दिव्यांगों के लिए दो - तीन सीट आरक्षित रहती है। जिस पर वे स्वयं अनाधिकार जमें बैठे हैं। उसने नवागंतुक को आवाज लगाई :- हैलो ...भाई ...आप पीछे आ जाईए , यहाँ सीट है। और वह स्वयं सीट से लगभग उठ गई। नवागंतुक ने सजल नेत्रों से आवाज का पीछा किया। इसकी कोई जरूरत नहीं है , मुझे किसी प्रकार की सहानुभूति नहीं चाहिए। उसने कठोरता से जवाब दिया। नहीं , नहीं ! इसमें सहानुभूति जैसी कोई बात नहीं है यह दिव्यांग सीट है ,इस पर आप ही का अधिकार है। प्लीज ! मना मत कीजिये , वैसे भी मुझे उतरना ही है। यात्रियों ने नवागंतुक को जगह दी , वह पीछे आकर धन्यवाद कहकर विनम्रता से बैठ गया। बस में जारी विकलांग शीर्षक कहानी पर अचानक पूर्ण विराम लग गया था। 

वैसे कहाँ तक जाएँगी आप ? लड़के ने बात बढ़ाते हुए कहा ।

यहीं , चाँद बिहारी मोड़ तक ! विनिता ने जवाब दिया। 

जिस हिसाब से गाड़ी चल रही है , अभी तो एक घण्टा और लग जाएगा। आप भी बैठ जाईए। वह एक तरफ सरकते हुए बोला। नहीं , नहीं ! मैं बिल्कुल ठीक हूँ। तुम आराम से बैठो। विनिता मुस्कुराई । ज़रा संभलकर खड़े होना ये ड्राइवर लोग ऐसे ही उड़ाते हैं बसों को । विनिता प्रत्युत्तर में बस मुस्कुरा दी । थोड़ी खामोशी के बाद वह फिर बोली मेरा नाम विनिता है क्या मैं जान सकती हूँ कि तुम्हारे ये पैर ....?

रमेश के पैर कहो ...मेरा नाम रमेश सक्सेना है विनिता दीदी , अभी दो साल पहले एक रोड़ एक्सीड़ेन्ट में मेरे दोनों पैर कट गये थे। मैं अपनी ही गाड़ी से बच्चों की जिद पर सपरिवार दिल्ली घूमने जा रहा था कि पीछे से अनियंत्रित ट्रक यम दूत बनकर आया और मैं अपनी गाड़ी सहित डिवाईडर में धँस गया। मेरे दोनों पैर वहीं स्टेयरिंग में फँस कर .....रमेश के चेहरे पर वह दर्द भरा मंजर साफ - साफ उभर आया ,उसके हाथ अपने दोनों पावों को ढँढ़ने लगे ...जो पैंट की लटकती खाली आस्तीनों में कहीं खो गए थे। 

बस भाई तुम अब कुछ मत बोलो ; उसके दर्द को भीतर तक महसूस कर विनिता तड़प उठी। उसे स्कूटी से अपने एक्सीडेन्ट की याद आ गई थी जब एक पाँव पर खड़े - खड़े दबाव पड़ा तो उसे अहसास हुआ उसका भी तो एक पाँव नकली है। 

उसकी यह कहानी सुनकर बस में सन्नाटा पसर गया । कुछ देर तक कोई कुछ नहीं बोल पाया। 

लो आपका स्टेण्ड़ आ गया दीदी । लड़के ने पुन: धन्यवाद के साथ कहा ।

विनिता ने खिड़की के सहारे खड़ी बैसाखी उठाई तो सभी यात्री चौंक कर खड़े हो गए। 

रमेश लगभग चीख पड़ा ,उसकी रुलाई फूट पड़ी ...दीदी तुम भी .....

विनिता मुस्कुराई ...एक दर्द भरी परन्तु आत्मविश्वास से लबरेज मुस्कान। हाँ रमेश पर मेरे अभी एक पाँव है , मैं आराम से खड़ी रह सकती हूँ। कहते हुए उसने भीड़ की तरफ देखा और सन्नाटा बुनते हुए बस से उतरने लगी । रमेश बैसाखी के सहारे नम आँखें लिए तालियाँ बजा रहा था। विनिता तो चली गई मगर सबके चेहरे पर शर्मिंदगी भरा प्रश्न छोड़कर गई। लोग एक दूसरे को प्रश्नवाचक दृष्टि से देख रहे थे। 

 सबकी नहरें एक ही सवाल तलाश रही थी कि अपाहिज कौन ?  वह जो उतर गई ? या वह जो बस में बैठा है या वह जो ....

तभी गाड़ी के टायर अचानक चूँ...घर्र.......की आवाज में चीख पड़े। ऐ रिक्सा संभल के चल मरेगा क्या ? ड्राइवर चिल्लाया और सबके रौंगटे खड़े हो गए। बस फिर चल पड़ी ।



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