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Shubham Sharma

Tragedy

3  

Shubham Sharma

Tragedy

अंतिम अग्नि जले जा रही है..

अंतिम अग्नि जले जा रही है..

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अग्नि ही जीवन, अग्नि ही सृजन है,

अग्नि ही भूख, अग्नि ही तपन है,

अग्नि ही श्वास, अग्नि ही चुभन है,

शरीर भी अग्नि, अग्नि ही दफ़न है।


इस कालचक्र में उम्र भर भटक के,

वो जीवन से परदा करे जा रही है..

एक आखरी अलविदा कहे जा रही है,

एक अंतिम अग्नि जले जा रही है..!

उम्र भर अग्नि ही बनकर रही वो,

कभी लौ बनी कभी ज्वाला सी जली वो,

जमाने के रस्म-ओ-रिवाज़ों में बँधकर,

सौ लड़खड़ाई मगर फिर भी चली वो।

कोई साथ देता तो कुछ और चलती,

इतनी ठोकरें थीं कि कब तक संभलती..

ज़ख्मी अधर में सफर छोड़े जा रही है,

एक अंतिम अग्नि जले जा रही है..!

आज जब वो नहीं है, ये संग कौन सा है,

ज़माने का ये बदचलन ढंग कौन सा है,

यूँ शव संग चलके, गिले कम ना होंगे,

यूँ पल पल बदलता, ये रंग कौन सा है।

जब कहानी ना होगी, तो किस्सों का क्या होगा,

एक माँ बिन माँ के, बच्चों का क्या होगा..

अपना ही जहाँ वीराँ करे जा रही है..

एक अंतिम अग्नि जले जा रही है..!

वक़्त-ए-सितम भले एक शख़्स पे हो,

मगर इम्तेहाँ ख़ुदा और जहाँ दोनों का है,

सवाल सिर्फ ये नहीं कि कौन है खैर-ख्वाह यहाँ,

सवाल नीयत और ईमान दोनों का है।

धरती प्यासी है कहो, आसमाँ क्या करेगा,

ख़ुद वक़्त देखता है, जहाँ क्या करेगा..

अपनी पूँजी सितमगर के हवाले करे जा रही है..

एक अंतिम अग्नि जले जा रही है..!

बैसाख का मौसम, और ये दोपहरी,

सूरज जल रहा है, ज़मीं जल रही है,

बदन जल रहे हैं, खुशी जल रही है,

उन मासूम आँखों की नमी जल रही है।

मौसम इतना बेहाली, आँसू में पानी नहीं हैं,

इक ज़िन्दगी बेबस है, इक ज़िन्दगी जल रही है,

धूप की तपिश भी बढ़े जा रही है,

एक अंतिम अग्नि जले जा रही है..!

हर शख्स खड़ा वहाँ, छाँव तलाशता है,

वक़्त-ए-गर्दिश में रहम की दुआ माँगता है,

मौत का मंज़र देख, ज़िन्दगी सहमी हुई है

ज़िन्दगी से मायूस, ज़िन्दगी की पनाह माँगता है..।

भले कुछ पल को हो पर, चेहरे मायूस तो हैं,

वक़्त के आगे हर शय, कुछ मजबूर तो है..

ज़िन्दगी का फलसफा कहे जा रही है,

एक अंतिम अग्नि जले जा रही है..!

मैं जहाँ हूँ वहीं किसी मंज़र सा खड़ा हूँ

घड़ियाँ गुज़र रही हैं, किसी ठहर सा खड़ा हूँ,

मौसम की तपन क्या जब, मैं खुद ही जल रहा हूँ,

मायूस लाचार बेबस थकान सा खड़ा हूँ।


कुछ ऐसे ही मंज़र जो बीते थे इस नज़र से

जब पहले भी गुज़रा था, इस रहगुज़र से..

वो दर्द वो मायूसी फिर घिरे आ रही है,

इक अंतिम अग्नि जले जा रही है..!

हवाओं ने लपटों को कुछ बढ़ावा दिया है,

रूबरू-ए-हक़ीक़त ने दिल में दस्तक दिया है,

कुछ ख़लिश का असर है, कुछ दस्तूर-ए-जहाँ है,

जो कभी संग ना थे उन सबको इकट्ठा किया है।

शायद जो पहलू सीने की तह में छिपे थे,

कुछ पुराने ज़ख्म जो अभी तक ना भरे थे..

नया ज़ख्म हरा फिर किये जा रही है,

एक अंतिम अग्नि जले जा रही है..!

इन चेहरों के बीच, वो चेहरा जो उधर है,

हाँ वही जो बेसुध, डरा, सहमा, बेखबर है,

बेखबर अपने पते, अपने घर, अपने रहगुज़र से,

जैसे टूटा हो कोई पत्ता, अपने शजर से।

हाँ वो जो अकेला है ख़ामोश, इस अंजुमन में,

कुछ सवाल गिले शिकवे लिए अपने मन में,

क्या कहूँ मैं, वो नज़र कुछ पूछे जा रही है,

एक अंतिम अग्नि जले जा रही है..!

चिता अब अंतिम अग्नि पकड़ने लगी है,

एक आखरी नमन कर भीड़ घर को चली है,

ये नमन ये रसम कुछ नहीं, पाशेमानी जोग है,

अपनी ज़हालत पे चंद लम्हों का अफ़सोस है।


मैं अभी भी ठहरा तकता हूँ आसमाँ को,

वक़्त-ए-सितम से घायल उस उजड़े जहाँ को..

मुझे ज़िन्दगी फिर से डसे जा रही है,

एक अंतिम अग्नि जले जा रही है..!

मौत तो है एक पल, ज़िन्दगी सफ़र है

तो क्या गर एक मौत का असर उम्र भर है,

गर ज़िन्दा है ज़ानिब, तो जीना तो पड़ेगा,

काँटों भरा है तो क्या, सफ़र तो सफ़र है।


एक लंबा सा जीवन, ना सुकूँ ना ठहर है,

उन्हीं के आसरे हैं, जिनसे दिल का कहर है..

मौत ज़िन्दगी पे हँसे जा रही है,

एक अंतिम अग्नि जले जा रही है..!

मौत का मंज़र खत्म, ज़िन्दगी का तमाशा होगा

कुछ धुँधला बिखरा, वक़्त का सिलसिला होगा,

दुनिया बा-दस्तूर अपनी ज़हालत में रहेगी,

जाने क्या ज़िन्दगी होगी, जाने कहाँ आसरा होगा।


मेरी बेबसी मेरे एहसासों से टकरा रही है,

संग संग अश्रु की धारा बहे जा रही है..

ज़िन्दगी अपनी कविता लिखे जा रही है,

एक अंतिम अग्नि जले जा रही है..!


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