अनकही पीड़ा

अनकही पीड़ा

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‘अरे, इसकोे लेकर कहाँ आ रही हो, काम करने आई हो या इसे खिलाने...।’ सुजाता ने पूनम की गोद में लड़की को देखकर वितृष्णा से कहा।


‘क्या करती मेमसाहब, आज इसकी तबियत ठीक नहीं है...।’ पूनम ने सिर झुकाकर मिमियाते हुए कहा।


‘ठीक है, ले तो आई हो लेकिन इसे अंदर लेकर मत आना, बाहर बरामदे में बिठा दो...।’ कहकर वह लूसी को गोद में लेकर बाल काढ़ने लगी तथा पूनम जल्दी-जल्दी काम निबटाने में लग गई।


सुजाता मेमसाहब कुतिया को गोद में बिठाकर बाल काढ़ती हैं तो उसे बेहद गुस्सा आता हैं क्योंकि कुतिया के बाल इधर-उधर छितर जाने के कारण उसे झाडू-पोंछा लगाने में अतिरिक्त मेहनत करनी पड़ती है। उसके गुस्से, उसकी परेशानी से किसी को क्या मतलब ? उसे अपना और अपनी बच्ची का पेट पालने के लिये काम करना ही है। यह तो कुत्ते के बाल ही हैं लेकिन जब उसे माँस मच्छी वाली प्लेटें साफ करनी पड़ती हैं तब भी वह उफ नहीं कर पाती है। जब जिंदगी जीनी है तो हर बात सहने की आदत पड़ ही जाती है, वरना जब एक स्कूल के अध्यापक शशिकांत से उसका विवाह हुआ था तब उसने सोचा भी नहीं था कि छोटी सी बच्ची को गोद में लेकर उसे घर-घर काम करना पड़ेगा। 


वक्त की मार से कौन बच पाया है...? इंसान सोचता कुछ है तथा होता कुछ है। अभी वह और शशिकांत भविष्य के स्वप्न बुन ही रहे थे कि एक छोटे से पल ने उनकी सारी खुशियाँ छीन ली थी। उस दिन वे खा पीकर आराम से बैठे टी.वी. देख रहे थे कि अचानक आये भूकंप में उनका सब कुछ तबाह हो गया। शशिकांत के ऊपर छत का एक बड़ा सा हिस्सा टूटकर गिरा था। वे तत्काल इस बेरहम दुनिया को छोड़कर चले गये तथा वह सारे दर्द गम, मान-अपमान सहने के लिये बची रह गई थी। इस भीषण भूकंप ने न केवल उसका वरन् उसके सास-ससुर और माँ-पिताजी के घर भी तबाह कर दिये थे। उस समय जहाँ कुछ सरकारी और गैर सरकारी संस्थाएं पीड़ित व्यक्तियों की सहायता में संलग्न थी वहीं कुछ अराजकतत्व अपनी ओछी हरकतों से बाज नहीं आ रहे थे। दर-दर के भिखारी बने लोगों को लूटने में उनको जरा भी दया या संकोच का अनुभव नहीं हो रहा था। इंसान के इस नये रूप को देखकर वह आश्चर्यचकित थी। पता नहीं कभी-कभी इंसान, इंसान न रहकर हैवान क्यों बन जाता है ?


उस हादसे की खबर पाकर उसकी एक मात्र ननद शिखा उसे अपने साथ ले जाने के लिये आई थी। वह करती भी तो क्या करती आखिर उसके साथ चली आई। सरकार से कुछ सहायता मिली थी लेकिन वह कितने दिन चलती...? पेट पालने के लिये कुछ न कुछ तो करना ही था। वह ग्रेजुएट थी लेकिन उसके सर्टिफिकेट औैर मार्कशीट उस खंडहर का एक अंग बन गई थी। मार्कशीट और सर्टिफिकेट के बिना काम मिलना आसान नहीं था किंतु प्रयास जारी था। वह जीवन की भयानक त्रासदी से उबरने का प्रयत्न कर ही रही थी कि एक दिन लगा कि उसकी कोख में कुछ हलचल हो रही है, कुछ ऐसा है जो उसे सुकून पहुंचा रहा है। शिखा उसे डाक्टर के पास ले गई तब पता चला कि दूसरा महीना चल रहा है। शशिकांत और उसके प्रेम की निशानी उसकी कोख में पल रही थी।


उस समय उसे महसूस हुआ था किसी ने सच ही कहा है कि जब सारे रास्ते बंद हो जाते हैं, तब कोई न कोई नया रास्ता निकल आता है जो इंसान को जीने की प्रेरणा देता रहता है। शायद इसीलिये चाहे कितनी भी बड़ी से बड़ी घटना हो जाए, जीवन बिना थके, बिना रूके चलता रहता है। इंसान की जिजीविषा कभी उसे मरने नहीं देती। यह नया प्राणी उसके थके, रूके जीवन में संजीवनी बनकर आया था। वह जीवन को उसके सहारे नया आयाम देगी, उसकी अंगुली पकड़कर जीवन के बाकी दिन काटेगी।


उस कठिन समय में शिखा ने उसकी बेहद मदद की थी जबकि उसकी भी माली हालत विशेष अच्छी नहीं थी। जो दुख में काम आये वही सबसे अच्छा मित्र, रिश्तेदार या पड़ोसी है। ऐसी हालत में शिखा ने उसे कहीं भी काम करने से मना कर दिया था। बच्ची के एक वर्ष का होने पर उसने स्वयं काम करने की इच्छा जाहिर की तो इस बार शिखा मना नहीं कर पाई।


एक दिन उसके ननदोई विशाल ने कहा कि उसके बड़े साहब को एक घर में काम करने वाली स्त्री चाहिए। वे दो ही लोग हैं, खाना-कपड़े के अलावा वेतन भी अच्छा देंगे तथा रहने के लिये भी एक कमरा देंगे। उसने तुरंत ही बिना सोचे समझे ‘हाँ’ कर दी क्योंकि उसे काम चाहिए था जिससे कि वह स्वयं अपना तथा अपने बच्चे का पालन-पोषण कर सके, आत्मनिर्भर बनकर आत्मसम्मान से जी सके। तब उसने सोचा था कि काम कोई छोटा-बड़ा नहीं होता... परिश्रम और ईमानदारी ही प्रत्येक काम की सफलता का मूल मंत्र है।


तीन वर्ष तक उसने वर्मा साहब के घर काम किया। उसकी व्यथा-कथा सुनकर उन्हें उसके साथ हमदर्दी हो गई थी। उन्होंने उसके साथ नौकर जैसा नहीं वरन् घर के सदस्य जैसा ही व्यवहार किया था। उसने भी सदा मेहनत और ईमानदारी से काम करने की चेष्टा की। उसके नम्र स्वभाव तथा कार्य के प्रति समर्पण देखकर साहब ने अपनी पहुॅंच का इस्तेमाल करके उसके लिये ग्रामीण विकास योजना के अंतर्गत एक घर बुक करा दिया था। वेतन से उसकी किश्तें भरने लगी। अपना घर होने के अहसास ने उसके तन-मन में स्फूर्ति भर दी थी किंतु उनके स्थानांतरण ने फिर काम की समस्या पैदा कर दी थी।


वर्मा साहब ने जाने से पूर्व प्रयत्न करके उसे उसके घर का कब्जा दिलवा दिया था जिसके कारण वह बेघर होने से बच गई थी। इसके साथ ही मेमसाहब ने जाते-जाते उसे अपनी अभिन्न सखी सुजाता के घर काम पर रखवा दिया था। वह उनकी सखी अवश्य थी, किंतु उनके स्वभाव के एकदम विपरीत थी। उसके काम पर आने में जरा सी भी देर होने पर वह उसे ऐसे डाँटने लगती थी कि जैसे वह इंसान नहीं जानवर हो...!! पेट पालने के लिये एक आम आदमी को कितनी मेहनत करनी पड़ती है, यह इन बड़े लोगों को क्या पता ? संतोष था तो बस इतना ही कि इस काम के मिल जाने के कारण वह एकाएक बेकार होने से बच गई थी किंतु फिर भी मकान की किश्तें चुकाने तथा बढ़ती बच्ची के बढ़ते खर्च के लिये इस घर के अलावा दो घर और काम करना पड़ रहा था...। 


उसकी पड़ोसन आजीबाई उसकी व्यथा समझकर मीता को अपने पास रखने को तैयार हो गई। वह हमदर्द होने के साथ उसकी माँ तथा सास का भी कर्तव्य निभा रही थी। आज उनके अपनी बहन की बेटी के विवाह में जाने के कारण उसे मीता को काम पर लेकर आना पड़ा। उसके साथ मीता को देखकर मेमसाहब का चेहरा ऐसा तन गया कि जैसे उन्होंने किसी बच्चे को नहीं वरन् खूॅंखार जानवर को देख लिया हो...।


‘अरे, कहाँ मर गई...? तुम लोग न स्वयं साफ रहते हो और न ही बच्चे को साफ रखते हो। नाक बह रही है, तुमने इसे नाक साफ करना भी नहीं सिखाया। अपने गंदे हाथ लगाकर इसने लूसी को गंदा कर दिया। अब मुझे उसे फिर से नहलाना पड़ेगा।’ नाक मुँह सिकोड़कर उन्होंने लूसी को उठाते हुये कहा था।


मेमसाहब की बड़बड़ाहट सुनकर अचानक उसने बिना सोचे समझे नन्हीं मीता को तड़ातड़ चाँटे मार दिये। अप्रत्याशित मार से घबराकर वह मासूम रोने लगी। उसका रोना सुनकर उसका कलेजा फटने लगा... यह मार उसकी गलती का नतीजा है या उसकी अपनी बेबसी का... सोचकर उसे चुप कराने ही जा रही थी कि मेमसाहब का क्रोध भरा स्वर फिर गूँजा... 


‘अब मार कर उसे मत रूलाओ, रूलाओगी फिर चुप कराने बैठ जाओगी। देर से आने के कारण सारा काम बाकी पड़ा है। हाथ भी ऐसे चलते हैं जैसे शरीर में जान ही न हो। अब कल से इसे बरामदे के बाहर बिठाकर काम करना...।’


‘अब चुप भी कर, कहा था चुपचाप बैठी रहना, पर तुझे तो कुछ समझ में ही नहीं आता...।’ रोती बच्ची को और डाँटकर पूनम काम करने लग गई थी। दोबारा डाँट खाकर सहमी मीता को समझ में नहीं आ रहा था कि उसकी क्या गलती थी ? वह तो कुत्ते के साथ खेल ही रही थी।


काम करते हुये पूनम का मन मीता को बेवजह मारने के कारण रोने-रोने को हो रहा था। उसे पता था कि इसमें मीता की कोई गलती नहीं है। लूसी ही चुपचाप बैठी मीता के पास चली गई थी तथा उसके साथ खेलने लगी थी। यदि मीता ने उसे छू दिया तो लूसी गंदी हो गया...। कुत्ते की इन्हें इतनी परवाह है लेकिन इंसानी जान की परवाह नहीं है। कुत्ते को तो ढेरों बिस्कुट खिला देंगी किंतु घंटे भर से बैठी मीता को एक बिस्कुट पकड़ाना इन्हें अपनी तौहीन लगता है। न जाने कैसी है इन बड़े लोगों की मानसिकता...?


मन हुआ कि यहाँ काम करना छोड़ दे लेकिन यदि यह काम छोड़ देगी तो घर का खर्चा कैसे चलेगा...? यह कम से कम आवश्यकता पड़ने पर एडवांस तो दे देती हैं। अन्य से तो वह भी नहीं मिलता... सच मजबूरी इंसान के आत्मसम्मान को खा जाती है !! 


पूनम काम समाप्त कर घर आई। मीता कुछ मार कुछ बीमारी के कारण चुप हो गई थी। वह दुखी मन से घर का काम करने लग गई। जब दाल-रोटी बनाकर मीता को खिलाने के लिये आई तो देखा वह सो गई है। उसके नन्हें-नन्हें गालों पर अपनी अंगुलियों के निशान देखकर, उसे न जाने क्या हुआ कि वह उसे अपने सीने से लगाकर रो पड़ी। आज पहली बार उसका हाथ इतनी जोर से मीता पर उठा था। वह जानती थी कि मीता अब जगाने पर भी खाना नहीं खायेगी। बेटी भूखी सो गई तो भला वह कैसे खा सकती थी ? उसने बना हुआ खाना ढक कर रख दिया तथा मीता के पास आकर लेट गई। उसे स्वयं पर ग्लानि हो आई थी। कैसी माँ है वह जो एक बच्ची का पालन पोषण भी ठीक से नहीं कर पा रही है? ऐसे कैसे चलेगा जीवन...? कैसे वह बेटी की सारी इच्छाओं को पूरा कर पायेगी...? कैसे वह उसे पढ़ायेगी लिखायेगी ? आज की घटना ने उसकी हिम्मत तोड़ कर रख दी थी...।


आजीबाई के न रहने के कारण उसे मीता को साथ लेकर काम पर जाना ही था। वह बरामदे के बाहर बने आहते में उसे छोड़कर काम करने लगी। कुछ देर तो वह चुपचाप बैठी रही किंतु फिर बरामदे में लगी ग्रिल को पकड़कर खड़ी हो गई तथा वहीं खड़े-खड़े लूसी को खेलता देखने लगी। लूसी कभी उसके पास जाने की कोशिश करती तो मेमसाहब की कर्कश आवाज उसे उसके पास जाने से रोक देतीं।


एक दिन वह भगवान की मूर्ति के आगे सिर झुकाये बैठी थी कि मीता ने उससे मासूमियत से पूछा, ‘माँ, यह तया कल रही हो ?’


‘बेटा, मैं भगवान से माँग रही हूँ कि वह तुझे खूब पढाये लिखाये खूब बड़ा आदमी बनाये...।’ उसने नन्हीं मीता की जिज्ञासा शांत करते हुए कहा था।


‘मेमसाहब जैसा...!!’ आँखों में जिज्ञासा थी।


पहले तो वह उसका प्रश्न सुनकर चौंक उठी थी फिर संयत स्वर में बोली,‘हाँ बेटा...।’ 


‘तया ये ऐसा कल सकते हैं...।’ उसकी आवाज में आश्चर्य था।


‘अवश्य कर सकते हैं, यदि सच्चे मन से उनकी पूजा की जाये।’ 


‘तब तो हमाले पास भी बहुत साले बिस्कुट होंगे... खाने का बहुत साला सामान होगा... हमाले साथ खेलने के लिये भी प्याली-प्याली लूसी होगी।’ कहते-कहते उसकी आँखों में भी अनजाने स्वप्न तिर आये थे।


पूजा-पाठ से उसका मन उसी क्षण उठ गया था जिस क्षण ने उससे शशिकांत को छीना था किंतु मीता के उसकी कोख में आने के पश्चात् एक बार फिर उसका संस्कारशील मन उसी ईश्वर की शरण में अनजाने झुकने लगा था... बार-बार यही आवाज अंतर्मन से निकलती... हे ईश्वर, कम से कम इस बार मेरी बेटी पर किसी क्रूर ग्रह की छाया मत पड़ने देना। इस बच्ची को वह सब खुशियाँ देना जो मुझे नहीं मिल पाई...। गरीबों का सहारा भगवान ही होता है। तभी वह एक अनजानी आस में सारे मान अपमान यह सोचकर चुपचाप पीती रहती है कि एक दिन घूरे के दिन भी फिरते है...।


समय आने पर आजीबाई के पोते महेश की भागदौड़ के कारण मीता को शहर के नामी स्कूल में दाखिला मिल गया था। स्कूल के खर्चे पूरे हो सकें इसलिये उसने एक काम और पकड़ लिया था। पहले वह सोचती थी कि जब उसकी बेटी पढ़ने जायेगी तो वह स्वयं उसका होमवर्क करवायेगी। उसे अपने हाथों से तैयार कर स्कूल भेजेगी किंतु ज्यादा पैसे कमाने की धुन में एक जगह खाना बनाने का काम भी स्वीकार कर लेने के कारण अब मीता के लिये उसके पास समय ही नहीं रह गया था। खाना बनाने के लिये उसे सुबह सात बजे निकलना पड़ता था। मीता का टिफिन बनाकर वह आजीबाई को पकड़ा देती थी। वही उसे तैयार करके स्कूल भेजती थी तथा लौटने के पश्चात् वही उसे खाना भी खिलाती थी।


एक बार उसे परेशान देखकर वह बोली थीं, ‘बेटा, सुख-दुख तो मानव जीवन के हिस्से हैं... सुख के पल तो सभी हँसते-हँसते काट लेते हैं लेकिन दुख के पलों को जो इंसान हँसते-हँसते जी लेता है वही जीवन रूपी संग्राम में विजयी होता है।’


अच्छे बुरे की पहचान बुरे वक्त में ही होती है। आजी बाई उसकी कुछ न होकर भी आज उसकी सब कुछ थी। यह भी सच है कि यदि उसे उनका साथ नहीं मिला होता तो वह भटक जाती। घर आकर वह इतना थक जाती थी कि खाना बनाने के अतिरिक्त वह और कुछ नहीं कर पाती थी। मीता का दिमाग अच्छा था तथा जहाँ उसे थोड़ी बहुत समस्या होती महेश हल कर देता था। पिछले तीन सालों से वह अपनी कक्षा में प्रथम आ रही थी जिससे उसे बहुत खुशी होती थी। उसकी जिंदगी चाहे जैसे भी कटे किंतु बेटी को वह सुनहरा भविष्य दे पाये, यही उसका एक मात्र स्वप्न था।


मीता चौथी कक्षा में आ गई थी। स्कूल का वार्षिक समारोह था। मीता भी एक प्रोग्राम में भाग ले रही थी। मीता के विशेष आग्रह पर वह कार्यक्रम में गई। प्रोग्राम के पश्चात् वह उसके पास अपनी एक मित्र के साथ आई। उसकी मित्र ने उसको देखकर मुँह बनाकर कहा, ‘अच्छा तो यह तुम्हारी मम्मी हैं...।’


‘हाँ...।’ कहते हुये उसके चेहरे पर खुशी छलक आई थी ।


‘हम तो सोचते थे कि तुम्हारी मम्मी आफिस में काम करती हैं किंतु यह तो हमारे पड़ोस वाले घर में खाना बनाने का काम करती हैं।’ कहकर उसने बुरा सा मुँह बनाया।


उसका वाक्य पूरा होने के साथ ही मीता का मुँह अपमान से लाल हो गया। वह कार्यक्रम अधूरा छोड़कर घर चली आई। घर आते ही मीता ने कहा, ‘माँ, आप वहाँ काम करना छोड़ दीजिए !!’


 ‘बेटा, यदि मैं काम छोड़ दूँगी तो तुझे पढ़ाऊँगी कैसे ?’ उसने उसे समझाने का प्रयत्न करते हुए कहा था।

काम कोई छोटा या बड़ा नहीं होता किंतु फिर भी आदमी की इज्जत उसके द्वारा किये काम से ही की जाती रही है यही सोचकर वह मीता के स्कूल नहीं जाती थी लेकिन आज उसका मन रखने के लिये वह स्कूल चली गई थी...वही हुआ जिसका कि उसे सदा अंदेशा रहा था।

उस दिन के पश्चात् मीता खोई-खोई रहने लगी थी, चुप रहने के साथ-साथ स्कूल जाने में भी आना कानी करने लगी थी उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे ?


आजी बाई कहतीं, ‘बेटी, तेरी मीता को न जाने क्या होता जा रहा है...कल पूछ रही थी, अम्मा भगवान किसी को अमीर किसी को गरीब क्यों बनाता है...? मेरी माँ को क्यों इतना ज्यादा काम करना पड़ता है...? बेटी है तोे वह छोटी सी किंतु बातें बड़ी बड़ी करने लगी है, मेरी बात मान कुछ समय उसके साथ भी गुजारा कर... अन्य चाहे जितना भी कर लें लेकिन जो छत्र छाया, सुख और संतोष बच्चे को माँ के आँचल में मिलती है वह अन्यत्र कहीं नहीं मिलती है।’


आजीबाई की बातों पर उसे जरा भी आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि छोटे-बडे़ तथा अमीर-गरीब की रेखा उसने स्वयं ही उसके मासूम मन में समय पर उठते अनगिनत प्रश्नों और इच्छाओं को पूरा न कर पाने की बेबसी में उसको समझाने के लिये अनजाने में खींच दी थी। अब वही छोटे-छोटे प्रश्न, बड़े प्रश्न बन कर उसको परेशान करने लगे हैं... वह हीन भावना की शिकार हो रही है।   

   

उसे ही उसके मन की इस हीनभावना से मुक्ति दिलानी है अतः वह उसका विशेष ध्यान रखने लगी थी। ज्यादा से ज्यादा समय उसके साथ बिताने का प्रयास करती किन्तु फिर भी सहज नहीं हो पा रही थी। पता नहीं उसके नन्हे मन में क्या चल रहा था जिसे चाहकर भी वह समझ पा रही थी और न ही निवारण कर पा रही थी...।  


उसका फर्स्ट टर्म का रिजल्ट अच्छा नहीं आया तो उसके कारण पूछने पर वह बोली, ‘माँ, स्कूल में मन नहीं लगता, लोग चिढाते हैं... आप काम करना छोड़ दो।’


‘बेटा, काम करना छोड़ दूँगी तो तुम्हारी फीस कैसे भरूँगी। लोगों की बात पर ध्यान न देकर पढ़ाई में मन लगाओे... पढ़-लिखकर जब तुम बड़ी आफिसर बनोगी तो जो लोग आज तुम्हें चिढ़ा रहे हैं, वही तुम्हें सैल्यूट करेंगे।’ उसने उसे सैल्यूट मारते हुए उसका आत्मविश्वास बढ़ाने की चेष्टा करते हुए कहा।


उसकी बात सुनकर वह मुस्करा दी। वह समझ नहीं पाई थी कि वह उसकी एक्टिंग देखकर मुस्कराई है या उसकी बात में छिपे अर्थ को समझकर। उसका सामान्य व्यवहार देखकर वह भी सहज हो चली थी। उसे लगा कि उन पर छाये गहरे काले बादल छँटने लगे हैं...। एक दिन वह काम करके लौटी तो देखा वह भगवान के सामने बैठी है। उसको सरप्राइज देने के विचार से चुपके से उसके पास जाकर उसकी आँख बंद करने ही वाली थी कि कुछ स्वर उसके कानों में पड़े…


‘हे भगवान, अगले जन्म में मुझे किसी अमीर के घर में ही पैदा करना, गरीब के घर में नहीं...।’ बार-बार दोहराते इन शब्दों के साथ ही उसकी आँखों से आँसू निकल रहे थे।


शायद आज फिर किसी ने उसे मर्मान्तक पीड़ा पहुंचाई थी... उसका कथन उस पीड़ा का ही उद्गम था किंतु मीता के अंतर्मन की आवाज सुनकर पूनम जड़ हो गई। एक अनकही पीड़ा से उसका शरीर सुन्न हो गया था... बेटी के एक ही वाक्य से उसका ममत्व, कष्ट सहकर भी एकमात्र बेटी को सुनहरा भविष्य देने का स्वप्न जो उसके जीवन की एक मात्र थाती था, तिनके की तरह बिखरने लगा...।


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