STORYMIRROR

Aman kumar

Drama Fantasy

4  

Aman kumar

Drama Fantasy

[अमरकंटक से डिंडौरी]

[अमरकंटक से डिंडौरी]

7 mins
21

 (प्रस्तुत यात्रावृत्तांत में नर्मदा नदी के सौन्दर्य के साथ-साथ उसके तट के जन जीवन की अन्तरंग झलक भी मिलती है ) गंगोत्री, यमुनोत्री या फिर नर्मदाकुंड ये वे स्थान है, जहाँ नदी पहाड़ की कोख से निकलकर पहाड़ की गोद में आती है। पहाड़ के गर्भ में छुपा हुआ पानी यही अवतरित होता है। नवजात शिशु की तरह नदी यहाँ धवल, उज्ज्वल और कोमल होती है। यहाँ से हमारी यात्रा का नया अध्याय शुरू हुआ। अभी तक हम नर्मदा के उत्तर-तट पर थे, यहाँ से दक्षिण-तट पर आ गये। अभी तक उद्गम की और चलते थे, आज से संगम की ओर चलेंगे। कोई दो घंटे में कपिलधारा पहुँच गये। अधिकांश परकम्मावासी यहाँ से सड़क पकड़कर कबीरचौरा होते हुए डिंडौरी निकल जाते हैं। लेकिन हमें तो नर्मदा के किनारे-किनारे ही जाना था, पर कपिलधारा के सामने की गहरी घाटी को देखकर ठिठक कर खड़े हो गये। वहाँ से कोई नहीं जाता। वहाँ पगडंडी तो क्या, पगडंडी की चुटिया तक नहीं थी। बहुत चिरौरी करने पर भी कोई हमारे साथ आने को तैयार न हुआ। उलटे डरा दिया कि गर्मी के दिन हैं, साँप बिच्छू नदी के किनारे आ जाते हैं, वहाँ से जाना खतरे से खाली नहीं। लेकिन जायेंगे तो नर्मदा के संग-संग, इसी घाटी में से, चाहे जो हो। प्रपात के आसपास मधुमक्खी के सैकड़ों छत्तों को देखकर बड़ा ताज्जुब हुआ। दीपावली के समय एक भी छत्ता नहीं था। मधुमक्खियों को गरमी में शायद यहाँ की ठंडक भाती हो। दूधधारा से भी नीचे उतरे। चटूटानों पर से धीरे-धीरे आगे बढ़ रहे थे। कहीं-कहीं तो समझ में नहीं आता था कि कहीं से बढ़ें। गिरते-पढ़ते, चढ़ते-उतरते, चप्पा-चप्पा आगे बढ़ रहे थे। थक जाते तो बैठ लेते, फिर तुरंत चल देते। इस सुनसान घाटी में हम अनावश्यक विलंब करना नहीं चाहते थे। विलंब नर्मदा भी नहीं चाहती थी। तेज गति से कूदती-दौड़ती नीचे उत्तर रही थी। अमरकंटक कोई बड़ा पहाड़ नहीं। आते समय हम इसे दो घंटे में चढ़ गये थे। उस समय नर्मदा का साथ छोड़ दिया था, सीधे पगडंडी से चढ़े थे। इस बार नर्मदा के किनारे-किनारे, बिना पगडंडी के उत्तर रहे थे। नर्मदा की उँगली पकड़कर चल रहे थे। आमने-सामने ऊँचे हरे-भरे पहाड़ और बीच में गहरी और सँकरी पाटी में से बहती हुई तन्वंगी नर्मदा। तीसरे पहर घाटी चौड़ी होने लगी। मैं समझ गया कि पहाड़ खत्म होने को है, मैदान आ गया। हमारी खुशी का क्या कहना। अमरकंटक का नाम मेकल भी है। इसलिए नर्मदा का नाम मेकलसुता भी है। मेकल अपनी बिटिया को वनाच्छादित घाटी में से किस हिफाजत से नीचे छोड़ गया है, इसे आज हमने अपनी आँखों से देखा। आगे जाने पर पगडंडी मिल गयी। इक्के चुक्के ग्रामीण भी दिखाई देने लगे। शाम होते-होते पकरीसोंका पहुँचे। खूब सबेरे आगे बढ़े। सामने के सूखे खेतों में से बहती नर्मदा साफ दिखाई दे रही थी। अभी तक तंग घाटी के घने शाल वन में नर्मदा छुपी थी, मुश्किल से ही नजर आती थी, लेकिन यहाँ से वह दूर से भी साफ-साफ दिखाई देती है। नर्मदा का जन्म मानो गौरैया की तरह हुआ है। ऊपर कुंड के घोंसले में अंडे की तरह अवतरित हुई है। अंडे में से बाहर वह यहाँ नीचे निकली है। जागे एक पेड़ की छाया में भोजन बनाने बैठे। पास में किरंगी गाँव है। वहाँ का एक ग्रामीण नहाने आया था। हमारे बारे में जानकर बहुत खुश हुआ। कहने लगा, 'गुरु जी, हमारे गाँव में अखंड कीर्तन हो रहा है, जरूर आइए, मेरे घर पर ही ठहरिए।' उसके घर पहुंचे। पड़ोस में अखंड कीर्तन चल रहा था। दूसरे दिन आम का विवाह था, तो वहाँ दो दिन रह गये। उसके पड़ोसी ने घर के आँगन में आम का पेड़ लगाया था। दो साल से उसमें आम लग रहे थे। लेकिन जब तक वह उस पेड़ का विवाह नहीं कर देता, तब तक उसके फल नहीं खा सकता। ऐसा रिवाज है यहाँ। सो चमेली की बेल के साथ आम का विवाह रचाया। पंडित जी आये हैं, विधिवत विवाह हो रहा है। हम यह सब रसपूर्वक देखते रहे। गाँव के कठोर जीवन में ऐसे अनुष्ठान रस घोलते हैं। गारकामट्टा में गोपी कोटवार के घर रहे। गाँव में एक जगह शादी हो रही थी। हम भी शामिल हुए। भोवरें पड़ रही थीं। सभी ने दूल्हा-दुलहन के पैर पूजे। मैंने भी पूजे। दुलहन के हाथ में वो रुपये रखे तो तहलका मच गया। सभी दस्सी-वस्सी जो दे रहे थे । एक मजे की बात यह थी कि यह लड़की का नहीं, लड़के का घर था। यहाँ चार भाँवरे लड़की के घर पड़ती है, तीन लड़के के घर। यहाँ से चलने पर नर्मदा का एक प्रपात देखने को मिला। नर्मदा के बीसियों प्रपातों में सबसे लहुरा कोई एक मीटर ऊँचा। पानी ने पथरीले पाट को काट-छाँट कर खोखला बना दिया है, मानो नदी में कोठियों बनी हों। इसलिए इसका नाम है कोठीघुघरा। घुघर या घुघरा यानी प्रपात। श्रीहीन धरती पर से आगे बढ़ रहे थे। दीवाली के समय जब सामने तट से चले थे, तब कैसी हरियाली थी। उसकी जगह अब है सूरज की ज्वाला से चटखी हुई भूरी, सूखी जमीन। छाया के लिए कहीं पेड़ तक नहीं। डिंडौरी तक ऐसा ही उजाड़ रहेगा। इसलिए बड़े सबेरे चल देते और नौ-दस बजे तक जो गाँव आ जाता, वहीं ठहर जाते। अगला पड़ाव बंजरटोला। इसके बाद सिवनीसंगम। यहाँ सिवनी नदी नर्मदा में आ मिली है। संगम पर बने मंदिर में रहने की बढ़िया व्यवस्था हो गयी और यहाँ का एकांत भी मन को छू गया, तो यहाँ चार दिन रह गये। शादियों के दिन थे। मंदिर में सामने की पगडंडी से बारातें निकलती रहती थीं। अद्भुत आकर्षण है माँ नर्मदा में। वैसाखी पूर्णिमा के दिन खूब बारातें देखने को मिलीं। शहनाई, निशान, नगाड़े, टिमकी और झुमका के स्वर दिन भर गूंजते रहे। दूल्हा-दुलहन हाथ में पंखा लिये घोड़े पर सवार रहते। एक काँवर में दहेज रहता। पगडंडी पर चलते एक के पीछे एक दस-पंद्रह बाराती रहते। बस हो गयी बारात ! तोताराम पास के गोरखपुर बाजार में मनिहारी का सामान बेचता है। रोज नर्मदा नहाने आता है। साथ में रहता है उसका तोता पिंजड़े में नहीं, उसके कंधे पर, लेकिन उड़ नहीं पाता। तोते से बड़ा प्यार है उसे। अकेला जीव, न घर न घाट। न कोई आगे, न पीछे। थोड़े-बहुत पैसे इकट्ठे होते ही तीरथ करने निकल पड़ता है। एक दिन मैंने पूछा, 'तोताराम, तुमने शादी नहीं की ?' 'सगाई तो तीन बार हुई, लेकिन शादी एक बार भी नहीं हुई। किसी-न-किसी कारण से सगाई टूट जाती है।'

तीन-तीन सगाई के बावजूद कुँवारे तोताराम की व्यथा-कथा सुनकर मन उदास हो गया। लेकिन उसने अपने मन को मना लिया है। तोले में मन लगाया है। एक दिन गोरखपुर का बाजार कर आये, फिर चल दिये। गरमी के दिन थे, खेतों में फसल नहीं थी। पहाड़ नहीं, जंगल नहीं। जंगल तो दूर, छाया के लिए एक पेड़ नहीं। सामने का गाँव दूर से ही दिखता रहता। रास्ता भटक जाने का कोई भय नहीं। सो पगडंडी की परवाह किये बिना नर्मषा के किनारे-किनारे ही चलते। धूप के कारण बुरा हाल था, पर आज आकाश में बादल थे। पथरकुचा तक पहुंचते-पहुँचते आकाश बादलों से पिर गया। यहाँ नदी के पाट में बहुत-सी चट्टानें थीं। वरना यहाँ तक नदी केवल मि‌ट्टी में होकर बहती है। कपड़े धोने तक के लिए पत्थर नहीं था। दोपहर का भोजन हमने नदी के पथरीले पाट में बनाया। भोजन करके बले ही थे कि तेज वर्षा के कारण भागकर गाँव में शरण लेनी पड़ी। थोड़ी देर की वर्षा में गाँव में इतना कीचड़ हो गया कि चलना मुश्किल हो गया। इसलिए रात वहीं रह गये। पौ फटते ही कुछ दूर चलने पर लिखनी गाँव में एक वृद्धा से पीने के लिए पानी माँगा तो उसने कहा, 'आओ बेटा, पानी देती हूँ। लेकिन ऐसा करो, रोटी खाकर पानी पीओ। धूप में से आ रहे हो। खाकर पानी पीओगे तो ठीक रहेगा।' माँ जैसे बच्चे को फुसलाती है, दुलराती है, बिलकुल वही भाव। उसके नेह को टाल नहीं सके। वह रोटियाँ ले आयी, उन पर शक्कर रखी थी। 'लो, खा लो बेटा।' कैसा तृप्ति का भाव था उसके चेहरे पर । अगला पड़ाव मझिवाखार, फिर गोमतीसंगम। फिर लछमनमड़या। लछमनमड़वा में एक साच्ची रहती है। मैंने उनसे कहा कि नीकरी के कारण पूरी परिक्रमा एक साथ नहीं कर सकता, छु‌ट्टियों में थोड़ी-थोड़ी करके करता हूँ, तो उन्होंने कहा, 'बेटा, बूँदी का लड्डू पूरा खाओ तो मीठा लगता है और चूरा खाओ तो मीठा लगता है। इसका दुःख न करना। दोपहर को हिंडौरी पहुँचे। डिंडीरी बड़ा कस्बा है। यहाँ नर्मदा पार करने वाले ग्रामीणों का क्रम अबाध गति से चलता रहता है। सिर पर गठरी या कंधे पर काँवर लिये पुरुष तथा सिर पर लकड़ी का गट्ठर और पीठ पर बच्चे को बाँथे स्त्रियाँ। पहले 'नर्मदा मैया की जय' बोलकर प्रणाम करतीं, फिर नदी में उतरती। फिसलन और तेज प्रवाह के कारण बड़ी सावधानी बरतनी पड़ती है। मुख्य बारा आने पर सभी चौकस और चीकन्ने हो जाते हैं, सधे हुए पाँवों से या एक-दूसरे की बाँह पकड़ कर धीरे-धीरे बढ़ते हैं। कैसा रोमांच है इसमें । यह दृश्य मुझे मगन रखता है। तीन दिन तक यही देखते रहे, फिर आ गये। अमरकंटक से डिंडीरी तक की यह यात्रा सबसे कठिन होनी चाहिए थी, लेकिन यही सबसे आसान थी। आधे दिन का पहाड़, एक दिन का जंगल, फिर कुछ दिनों का सँकरा मैदान। नर्मदा जैसी असामान्य नदी भला सामान्य नियम को क्यों कर मानने चली। 



Rate this content
Log in

Similar hindi story from Drama