अख्तर की आज़ादी

अख्तर की आज़ादी

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डिस्क्लेमर: उपरोक्त कहानी पूर्णतः काल्पनिक है, सिर्फ इतिहास के कुछ चरित्र एवम् घटनाएँ उल्लेख की गई हैं ।

अखबारों में खबरें छपना शुरू हो चुकी थीं। हिंदी, अंग्रेजी, बांग्ला, पंजाबी सभी भाषाओं के समाचार पत्र अलग अलग बातें बयान कर रहे थे। आज़ादी के बाद का भारत कैसा होगा किसी को कुछ अंदाज़ नहीं था पर सब खुश थे।

जगह-जगह तैनात अंग्रेज टुकड़ियां अपना-अपना सामान बाँधने में व्यस्त नज़र आती थीं। प्रधानमन्त्री को लेकर भी चर्चा ज़ोरों पर थी, कोई अबुल का नाम लेता तो कोई पटेल का। कोई अम्बेडकर का पैरोकार था तो कोई नेहरू का। दबी जुबान से गांधी का भी नाम देश के सर्वोच्च पद के लिए आ रहा था पर सब जानते थे कि गांधी जी कोई संवैधानिक पद को ग्रहण कर के अपने कद को छोटा नहीं करेंगे।

१९४७ का जून चल रहा था l छोटे-छोटे गाँवों में भी आज़ादी का जश्न धूम धड़ाके से मनाने की तैयारी ज़ोरों पर थीं। राजनैतिक बन्दी छोड़े जाने लगे थे। असहयोग आन्दोलन, खिलाफत आन्दोलन, आज़ाद हिन्द फौज, कांग्रेस, मुस्लिम लीग, हिन्दू महासभा जैसी सैकड़ों संस्थाएं कागज़ भर-भर के अपने जेल में बंद कार्यकर्ताओं की लिस्ट अंग्रेजी सरकार को सौंप रही थीं और पहले आओ पहले पाओ के आधार पर जेल से रिहाईयों का दौर जारी था।

भ्रष्टाचार का दीमक अंग्रेजों ने भारतीयों को लगा दिया था। राजनीतिक बन्दियों की छाया में सामान्य अपराधियों की भी डील होने लगी थी। ४०-५० रूपए के एवज में मान्यता प्राप्त संस्थाएं लिस्ट में ३०-३५ सामान्य नाम भी डाल के भेज दे रही थीं और चुंकि अग्रेंजी अफसरों को इंग्लैंड लौटने की जल्दी भी थी तो किसी नाम की कोई स्क्रूटनी नहीं थी बस लिस्ट के हिसाब से कैदी छोड़े जा रहे थे।

ग्वालियर में गांधीजी की सभा चल रही थी। सुरक्षा में कई मुस्टंडे रास्ते को घेरे खड़े थे। एक ६५ वर्ष का अधेड़ उन सुगठित युवकों से बापू से मिलने की अरज कर रहा था। बापू सामान्य वक्ता नहीं थे। श्रोताओं की नज़रें पकडे़ रखना बापू की खासियत थी। भीड़ के गुबार में हैरान से अधेड़ को बापू ने परख लिया था सो हलके से हाथ से उन युवाओं को इशारा सा किया और अधेड़ को बापू तक पहुँचने का परमिट मिल गया।

"बापू मैं अख्तर खान हूँ, वो पिछले महीने मेरा लड़का उतावला हो गया, बोलता था जंग से आज़ादी मिलेगी। गरम खून था माईबाप तो अंग्रेजों को देख उबाल मार गया। पत्थर फैंक के मार दिया अफसर को। बापू अभी जेल में बंद है वो किसी संस्था से जुड़ा नहीं है तो रिहाई भी नहीं हो रही। राजद्रोह का चार्ज लगाया था गोरों ने और उसके लिए तो उम्र कैद भी हो सकती है। गरीब किसान हूँ बापू ना तो वकील लायक पैसा है और ना रिश्वत लायक, एक महीने से दर-दर भटक रहा हूँ पर मायूसी ही हाथ लगी है। आपसे आखिरी आशा के साथ आया हूँ। जो उचित हो कर दीजियेगा।" अधेड़ ने अपनी परेशानी एक साँस में गांधीजी के समक्ष कह सुनाई।

बापू ने बड़े ध्यान से उसकी सारी बातें सुनी पर बिना पड़ताल कुछ वादा कर पाना गांधीजी की आदत नहीं थी तो आज़ादी के बाद मिलने को बोल दिया। अख्तर लौट आया और दिन बीतने शुरू हो गए। कुछ दिनों में आज़ादी भी आ गई पर साथ ले आई दंगों की दास्ताँ भी। गांधीजी के कहे अनुसार अख्तर का उनसे मिलना आवश्यक था। ज़वान बेटे को जेल में महीनों बीते जा रहे थे और बेबस बाप कुछ कर सकने की हालत में नहीं था। दंगों का दन्श शांत होने का नाम नहीं ले रहा था। गांधी जी भी देश भर में घूम-घूम के लोगों को शांत करने में लगे थे।

१९४७ बीत गया, दंगे कुछ हद तक शांत हो गए थे। जनवरी का महीना था। गांधीजी दिल्ली लौट आये थे। अख्तर ने दिल्ली जाने का फैसला किया। पूरे महीने गांधीजी के पीछे-पीछे घूमने के बाद आज अवसर मिल ही गया अख्तर को। ३० जनवरी की शाम थी । गांधीजी बिरला हाउस से निकले ही थे ।अख्तर को एक नज़र में पहचान लिया बापू ने। सामान्य से अभिवादन के बाद जैसे ही अख्तर ने कदम आगे बढ़ाये ज़ोर का शोर हुआ और गांधीजी ज़मीन पर धड़ाम से गिर पड़े। १५ मिनट की जद्दोजहद के बाद बापू ने दुनिया छोड़ दी और अख्तर ने अपने बेटे की आज़ादी की आस।


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