Vishakha .

Classics Inspirational

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Classics Inspirational

आखिरी पैग़ाम

आखिरी पैग़ाम

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"ममता, कैसी हो तुम ? अपना ख्याल ठीक तरह से रख रही हो ना? डॉक्टर से जो नई दवाई दिलवाई थी, वो आराम दे रही है ना? मैं अच्छा हूं! तुम्हारी और राजू की बड़ी याद आती है। पता है, हमारे साथ एक नया लड़का जुड़ा है - रवि। रवि को भी राजू की ही तरह आम के आचार का बहुत शौक है। तुमने जो आचार दिया था, रवि दो महीने के अंदर ही सारा चट कर गया। राजू जब बड़ा हो जाएगा तो उसे भी हम फौजी बनाएंगे।

बड़े होने से याद आया, इस बार भी राजू का जन्मदिन तुम्हे अकेले ही मनाना होगा। कश्मीर की घाटियों पर आतंकी हमला बढ़ रहा है। हमें भी कुछ महीनों के लिए वहीं तैनात किया जाएगा। इस कारण से मैंं इस साल भी छुट्टियां बिताने गांव नहीं आ पाऊंगा! अगर मुमकिन हो सका तो कश्मीर की वादियों से तुम्हें चिठ्ठी ज़रूर भेजूंगा।

वैसे सुना है कश्मीर की वादियों में जितनी सुंदरता है, उतनी ही ठंड भी। सोचते ही तुम्हारे हाथ से बुने स्वेटर की कमी खल उठती है। तुम मेरे लिए एक स्वेटर बुन कर तैयार रखना। कश्मीर से वापिस आ कर मैंं तुम्हें और राजू को शिमला ले जाऊंगा। तुम्हारी उड़न खटोले पर बैठने की बड़ी इच्छा है ना? 

चिठ्ठी के साथ कुछ पैसे भी भेज रहा हूं। राजू को जो लाल बस्ता चाहिए था, उसके जन्मदिन पर दिला देना। और अपने लिए भी एक साड़ी ले लेना (गुलाबी रंग तुम पर खूब खिलता है) तुम्हारी चिठ्ठी का इंतज़ार रहेगा। 

जय हिन्द ! 

कैप्टन राजवीर" 

मैंने चिठ्ठी को धीरे से तह किया और वापिस संदूक में रख दी। संदूक में रखे सामान के बीच से कहीं मेरा लाल बस्ता झांक रहा था। चिठ्ठी में लिखे बाबा के शब्द मेरे कानों में किसी रिकॉर्डिंग की तरह चल रहे थे। इसी रिकॉर्डिंग के बीच किसी के सिसकने की आवाज़ सुनाई देने लगी। मैंने मुड़ कर मां की तरफ देखा। मेरा ध्यान उनकी आंखों के नीचे पड़ी झुर्रियों की तरफ गया, और फिर उस आंसू की बूंद की तरफ जो उन झुर्रियों में अपना रास्ता खोज रही थी। मैंने हाथ उठा कर उस बूंद का वजूद मां के चेहरे से मिटा दिया। 

मां का हाथ थामते हुए मैंने धीरे से पूछा, "क्या हुआ मां?" 

इसके आगे मां का जवाब और हमारी बातचीत किसी ऐसी कहानी की तरह मेरे दिमाग में घूमने लगी जिसको किसी बच्चे ने परीक्षा के लिए अच्छी तरह रटा हो। मैंं हर साल छुट्टियों में मां के पास गांव आता हूं। और हर साल वापिस जाने से ठीक एक दिन पहले ये चिठ्ठी मां को पढ़ कर सुनाता हूं। मगर साल दर साल इसे पढ़ने के बाद भी इसका एहसास नया सा रहता है जो मुझे भीतर से अभी भी उसी तरह चीरता है। 

मां फर्श पर मेरे पास सरकती हुईं मुझसे बोलीं, "कुछ नहीं बेटा! ये तुम्हारे बाबा की आखिरी चिठ्ठी थी और..." वाक्य को अधूरा ही छोड़कर मां अपना चेहरा साड़ी के पल्लू से छिपाए कमरे के कोने में पड़ी खटिया पर जा कर बैठ गईं। 

मैंं आठ साल का था जब कश्मीर पर आतंकी हमले में बाबा शहीद हो गए। दुश्मनों ने उनके शरीर में गोलियां दाग कर छ: दिन तक उन्हें अपने पास रखा था। सातवें दिन भी वापिस आयी तो सिर्फ उनकी वर्दी। मैंने बाबा को उनकी बातों और चेहरे से कम, बल्कि उनकी चिठ्ठियों से ज़्यादा जाना था। साल भर जब वह घर नहीं आया करते थे, तब मैंं उनकी चिठ्ठियों को किसी पाठ की तरह बार बार पढ़ता था। शायद इसी कारण से जब कुछ सैनिक खून से लथपथ उनकी वर्दी हमारे गांव लेकर आए थे, तब भी मैंं उस वर्दी में उन्हें नहीं बल्कि उनकी चिठ्ठी को ढूंढ रहा था। चिठ्ठी के ना मिलने पर ये एहसास आहिस्ते से मुझ में घर करने लगा था कि मैंने बाबा को खो दिया है, हमेशा के लिए। कुछ सालों में मुझे ये समझ आने लगा था कि फौज में इंसान अकेला भर्ती नहीं होता, अकेला देश के लिए जान न्योछावर नहीं करता, उसके साथ उसका पूरा परिवार अपना जीवन भारत मां के चरणों में सौंप देता है। 

बीते वक्त की इन यादों में डूब कर मैंं कब संदूक में रखी बाबा की वर्दी को सहलाने लगा, मुझे मालूम ही ना हुआ। मेरे हाथों में वर्दी को देख कर मां मेरे पास आई और कहने लगीं, "इस वर्दी पर तुम्हारे बाबा का नाम देख कर हर कोई कांप उठता था। शायद इसी कारण से दुश्मन भी ये वर्दी अपने पास ना रख सके। मां की ये बात सुनकर मैं अपने चेहरे पर धीरे से दस्तक देती गर्व की चमक को रोक ना सका। मां की पारखी नज़रों ने शायद इस चमक को पकड़ लिया था। उन्होंने मेरा हाथ अपने हाथों में लिया और मुझसे कहा,"तुम्हारे बाबा का सपना था कि तुम भी उन्हीं की तरह सैनिक बनो। वरना उनके जाने के बाद हर पल इस डर में जीती रहूं की तुम्हारा कौन सा फोन आखिरी हो - इतनी हिम्मत मुझ में कहां थी?! वो हमेशा मुझ से कहा करते थे," मैं रहूं या ना रहूं, लेकिन ये देश रहना चाहिए।"" 

ना जाने अचानक कौन सी ऊर्जा मुझ में भर गई और मां का कहा वाक्य मैंने उन्हीं के आगे दोहरा दिया,"मैंं रहूं या ना रहूं, लेकिन ये देश रहना चाहिए।" एक मंद सी मुस्कान अपने चेहरे पर लिए मां अपने हाथों से मेरे बाल सहलाने लगीं। मैंने बाबा की वर्दी को अपनी छाती से लगाया और मां की गोद में सिर रख कर लेट गया। हजारों सैनिकों की तरह मेरे कंधों पर भी भारत मां और उनके सभी बच्चों की रक्षा की ज़िम्मेदारी थी। मगर आज एक आखिरी बार अपनी उन ज़िम्मेदारियों से परे होकर मैं सिर्फ अपनी मां का बेटा होना चाहता था।


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