ये वक़्त जालिम है बहुत...!
ये वक़्त जालिम है बहुत...!
ये वक़्त जालिम है बहुत, मेरी कभी बात नहीं सुनता
कि जब कभी इल्तजा करती हूं, ठहर जाने कि इससे;
ये दुगनी रफ़्तार से गुजरता है जैसे, पल भर में सदियां बितानी हो
किसी चोरी की हुई चीज को, बस जल्द से कहीं छुपानी हो
कि जब कभी इल्तजा करती हूं, गुजर जाए बस किसी तरह
ये थाम कसकर हाथों को मेरे, ठहर जाता है ऐसे
जैसे छूटते ही हाथ मेरा, ये गुम हो जाएगा किसी भीड़ में;
जैसे कोई ले जाएगा इसे, और कैद कर लेगा किसी जंजीर में
ये वक़्त जालिम है बहुत, मेरी कभी बात नहीं सुनता।
