STORYMIRROR

Somya Agrawal

Abstract

4  

Somya Agrawal

Abstract

यादें~~~~~~

यादें~~~~~~

1 min
181

वो भी क्या दिन थे, वह बचपन के दिन थे।

वह भी क्या किलकारियां थीं, बेझिझक मुस्काने थीं।

वह भी क्या नादानियां थीं , वह तुुतलाती आवाजें थीं।

अब तो हम आ गए ऐसी कशमकश जिंदगानी मेें; 

न जाने वह किलकारियां,वह ठहाके मारके हंसना,

वह दोस्तों के साथ गप्पे लड़ाना,

मानो सब इस दिखावटी दुनिया में धुल गया,

नकाबो वाले चेहरे पर वह झूठी मुस्कान आ गई।

क्या हो गया इस दुनिया को ;

अपनी किलकारियां को छोड़कर दूूसरा खुुश क्यों है , इसका जवाब ढूूंढते है!

यह कैसी जवानी , यह कैसा यौवन है,

वह बचपन की हठखेलियां तो इससे बेहतर थी।

क्यों न कुछ आदतों को छोड़कर, फिर से मुस्कराया जाए,

क्यों न अपने आप को समय के हिसाब से बदल लिया जाएं।

छोड़ देें शिकायतें सभी की करनी;

क्यों न खुद को संवारा जाए।

यही तो वह जवानी है,

जो बचपन को सहज कर , 

बड़ा होने की कहानी है।



Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract