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Dineshkumar Singh

Abstract

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Dineshkumar Singh

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वो मंदिर

वो मंदिर

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हर शनिवार को, पिता की साथ ,

उसके चारों ओर परिक्रमा करना,

ललाट पर सिंदूरी टिका लगाकर ,

एक अदृश्य शक्ति सा भर देता 

था वो मंदिर। 


विद्यालय जाते वक्त , यूँही घुसकर ,

आशीर्वाद लेना, घंटी बजाना ,

प्रसाद लेना, न जाने कौन सी ,

भक्ति से जोड़ देता 

था वो मंदिर। 


भटकती राहों में , कभी मायूस होकर 

जब चले 

जब कुछ ना समझे , तब राहों में 

पड़ कर ,

थोड़ा ठहरकर ,

कुछ सोचने पर ,

मजबूर कर देता 

था वो मंदिर। 


घर के बिखराव का ,

मन के बँटवारे का ,

समाज के भेदभाव का ,

हार का, जीत का,

सभी को एक जगह लाकर ,

जोड़ देता 

था वो मंदिर। 


फिर भागती , दौड़ती जिंदगी में 

कभी दिन, तो कभी रात में 

कभी दरवाजे पर ही ,

चप्पलें उतार कर,

हाथ जोड़ता , फिर निकल जाता ,

उस मूरत की आँखे तलाशता ,

अपनापन जताता ,

था वो मंदिर। 


सिर्फ ईमारत भर नहीं,

पर एक जिंदगी की कई 

जिंदगियों से जुडी ,

खुली क़िताब 

था वो मंदिर। 


पत्थर पर छपती , उतरती,

दीनजनों के दिनों की 

जीवन कहानी चलाता 

था वो मंदिर। 



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