वो मंदिर
वो मंदिर
हर शनिवार को, पिता की साथ ,
उसके चारों ओर परिक्रमा करना,
ललाट पर सिंदूरी टिका लगाकर ,
एक अदृश्य शक्ति सा भर देता
था वो मंदिर।
विद्यालय जाते वक्त , यूँही घुसकर ,
आशीर्वाद लेना, घंटी बजाना ,
प्रसाद लेना, न जाने कौन सी ,
भक्ति से जोड़ देता
था वो मंदिर।
भटकती राहों में , कभी मायूस होकर
जब चले
जब कुछ ना समझे , तब राहों में
पड़ कर ,
थोड़ा ठहरकर ,
कुछ सोचने पर ,
मजबूर कर देता
था वो मंदिर।
घर के बिखराव का ,
मन के बँटवारे का ,
समाज के भेदभाव का ,
हार का, जीत का,
सभी को एक जगह लाकर ,
जोड़ देता
था वो मंदिर।
फिर भागती , दौड़ती जिंदगी में
कभी दिन, तो कभी रात में
कभी दरवाजे पर ही ,
चप्पलें उतार कर,
हाथ जोड़ता , फिर निकल जाता ,
उस मूरत की आँखे तलाशता ,
अपनापन जताता ,
था वो मंदिर।
सिर्फ ईमारत भर नहीं,
पर एक जिंदगी की कई
जिंदगियों से जुडी ,
खुली क़िताब
था वो मंदिर।
पत्थर पर छपती , उतरती,
दीनजनों के दिनों की
जीवन कहानी चलाता
था वो मंदिर।
